माणिक मोती ढलते हैं

सीपी में गिरती हैं बूंदे तब माणिक मोती ढलते हैं

नयनों से बहती हैं तब भावों के सागर बनते हैं

अदा इनकी मुस्कानों के संग निराली होती है

भीतर-भीतर रिसती हैं तब गहरे घाव पनपते हैं