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लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
छुट्टी के दिन करने होते हैं
घर के बचे-खुचे कुछ काम।
धूप बुलाती आंगन में
ले ले, ले ले विटामिन डी
एक बजे तक सेंकते हैं
धूप जी-भरकर जी।
फिर करके भारी-भारी भोजन
लेते हैं लम्बी नींद जी।
संध्या समय
मंथन पढ़ते-पढ़ते ही
रह जाते हैं हम
जब तक सोंचे
कमेंट करें
आठ बज जाते हैं जी।
फिर भी
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
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जो मिला बस उसे संवार
कहते हैं जीवन छोटा है, कठिनाईयां भी हैं और दुश्वारियां भी
किसका संग मिला, कौन साथ चला, किसने निभाई यारियां भी
आते-जाते सब हैं, पर यादों में तो कुछ ही लोग बसा करते हैं
जो मिला बस उसे संवार, फिर देख जीवन में हैं किलकारियां भी
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कहानी टूटे-बिखरे रिश्तों की
कुछ यादें,
कुछ बातें चुभती हैं
शीशे की किरचों-सी।
रिसता है रक्त, धीरे-धीरे।
दाग छोड़ जाता है।
सुना है मैंने
खुरच कर नमक डालने से
खुल जाते हैं ऐसे घाव।
किरचें छिटक जाती हैं।
अलग-से दिखाई देने लगती हैं।
घाव की मरहम-पट्टी को भूलकर,
हम अक्सर उन किरचों को
समेटने की कोशिश करते हैं।
कि अरे !
इस छोटे-से टुकड़े ने
इतने गहरे घाव कर दिये थे,
इतना बहा था रक्त।
इतना सहा था दर्द।
और फिर अनजाने में
फिर चुभ जाती हैं वे किरचें।
और यह कहानी
जीवन भर दोहराते रहते हैं हम।
शायद यह कहानी
किरचों की नहीं,
टूटे-बिखरे रिश्तों की है ,
या फिर किरचों की
या फिर टूटे-बिखरे रिश्तों की ।।।।
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बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
मन के मौसम ने करवट सी-ली है
बासन्ती रंगों ने आहट सी-ली है
बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
उनकी नज़रों ने एक चाहत सी-ली है
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कांगड़ी बोली में छन्दमुक्त कविता
चल मनां अज्ज सिमले चलिए,
पहाड़ां दी रौनक निरखिए।
बसा‘च जाणा कि
छुक-छुक गड्डी करनी।
टेडे-फेटे मोड़़ा‘च न डरयां,
सिर खिड़किया ते बा‘र न कड्यां,
चल मनां अज्ज सिमले चलिए।
-
माल रोडे दे चक्कर कटणे
मुंडु-कुड़ियां सारे दिखणे।
भेडुआं साई फुदकदियां छोरियां,
चुक्की लैंदियां मणा दियां बोरियां।
बालज़ीस दा डोसा खादा
जे न खादे हिमानी दे छोले-भटूरे
तां सिमले दी सैर मनदे अधूरे।
रिज मदानां गांधी दा बुत
लकड़ियां दे बैंचां पर बैठी
खांदे मुंगफली खूब।
गोल चक्कर बणी गया हुण
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बजारा जाणा जरूर
लकड़िया दी सोटी लैणी हजूर।
जाखू जांगें तां लई जाणी सोटी,
चड़दे-चड़दे गोडे भजदे,
बणदी सा‘रा कन्ने
बांदरां जो नठाणे‘, कम्मे औंदी।
स्कैंडल पाईंट पर खड़े लालाजी
बोलदे इक ने इक चला जी।
मौसम कोई बी होये जी
करना नीं कदी परोसा जी।
सुएटर-छतरी लई ने चलना
नईं ता सीत लई ने हटणा।
यादां बड़ियां मेरे बाॅल
पर बोलदे लिखणा 26 लाईनां‘च हाल।
हिन्दी अनुवाद
चल मन आज शिमला चलें,
पहाडों की रौनक देखें।
बस में जाना या
छुक-छुक गाड़ी करनी।
टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से न डरना
सिर खिड़की से बाहर न निकालना
चल मन आज शिमला चलें।
माल रोड के चक्कर काटने
लड़के-लड़कियां सब देखने
भेड़ों की तरह फुदकती हैं लड़कियां
उठा लेती हैं मनों की बोरियां।
बालज़ीस का डोसा खाया
और यदि न खाये हिमानी के भटूरे
तो शिमले की सैर मानेंगे अधूरे।
रिज मैदान पर गांधी का बुत।
लकड़ियों के बैंचों पर बैठकर
खाई मूंगफ़ली खूब।
गोल चक्कर बन गया अब
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बाज़ार जाना ज़रूर।
लकड़ी की लाठी लेना हज़ूर।
जाखू जायेंगे तो ले जाना लाठी,
चढ़ते-चढ़ते घुटने टूटते
साथ बनती है सहारा,
बंदरों को भगाने में आती काम।
स्कैंडल प्वाईंट पर खड़े लालाजी
कहते हैं एक के साथ एक चलो जी।
मौसम कोई भी हो
करना नहीं कभी भरोसा,
स्वैटर-छाता लेकर चलना,
नहीं तो शीत लेकर हटना।
यादें बहुत हैं मेरे पास
पर कहते हैं 26 पंक्तियों में लिखना है हाल।
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ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है
कितना अच्छा लगता है,
और कितना सम्मानजनक,
जब कोई कहता है,
चलो आज शाम
मिलते हैं कहीं बाहर।
-
बाहर !
बाहर कोई पब,
शराबखाना, ठेका
या कोई मंहगा होटल,
ये आपकी और उनकी
जेब पर निर्भर करता है,
और निर्भर करता है,
सरकार से मिली सुविधाओं पर।
.
एक सौ गज़ पर
न अस्पताल मिलेंगे,
न विद्यालय, न शौचालय,
न विश्रामालय।
किन्तु मेरे शहर में
खुले मिलेंगे ठेके, आहाते, पब, होटल,
और हुक्का बार।
सरकार समझती है,
आम आदमी की पहली ज़रूरत,
शराब है न कि राशन।
इसीलिए,
राशन से पहले खुले थे ठेके।
और शायद ठेके की लाईन में
लगने से
कोरोना नहीं होता था,
कोरोना होता था,
ठेला चलाने से,
सब्ज़ी-भाजी बेचने से,
छोटे-छोटे श्रम-साधन करके
पेट भरने वालों से।
इसीलिए सुरक्षा के तौर पर
पहले ठेके पर जाईये,
बाद में घर की सोचिए।
-
ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है
कौन लेगा यह निर्णय।
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
गुब्बारों में हँसी लाया हूँ
चेहरे पर चेहरा लगाकर
खुशियों का
सामान बांटने आया हूँ।
कुछ पल बांट लो मेरे साथ
जीवन को हँसी
बनाने आया हूँ।
चेहरों पर
मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
पर मैं अपने मुखौटै से
तुम्हें हँसाने आया हूँ।
गुब्बारे फूट जायेंगे
हवा बिखर जायेगी,
या उड़ जायेंगे आकाश में
ग़म न करना
ज़िन्दगी का सच
समझाने आया हूँ।
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दिखाने को अक्सर मन हंसता है
चोट कहां लगी थी,
कब लगी थी,
कौन बतलाए किसको।
दिल छोटा-सा है
पर दर्द बड़ा है,
कौन बतलाए किसको।
गिरता है बार-बार,
और बार-बार सम्हलता है।
बहते रक्त को देखकर
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
मन की बात कह ले पगले,
कौन समझाए उसको।
न डर कि कोई हंसेगा,
या साथ न देगा कोई।
ऐसे ही दुनिया चलती है,
जीवन ऐसे ही चलता है,
कौन समझाए उसको।
आंसू भीतर-भीतर तिरते हैं,
आंखों में मोती बनते हैं,
तिनका अटका है आंख में,
कहकर,
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
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उठ बालिके उठ बालिके
सुनसान, बियाबान-सा
सब लगता है,
मिट्टी के इस ढेर पर
क्यों बैठी हो बालिके,
कौन तुम्हारा यहाँ
कैसे पहुँची,
कौन बिठा गया।
इतनी विशाल
दीमक की बांबी
डर नहीं लगता तुम्हें।
द्वार बन्द पड़े
बीच में गहरी खाई,
सीढ़ियाँ न राह दिखातीं
उठ बालिके।
उठ बालिके,
चल घर चल
अपने कदम आप बढ़ा
अपनी बात आप उठा।
न कर किसी से आस।
कर अपने पर विश्वास।
उठ बालिके।
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आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है
प्रायः कहा जाता है कि जीवन में आत्म-संतोष ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यही परम संतोष है।
किन्तु आत्म संतोष क्या है?
क्या अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन आत्म-संतोष का मार्ग है?
वास्तविक धरातल पर जीवन जीना जितना कठिन और कटु है उपदेश देना और सुनाना उतना ही सरल।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे।
वर्तमान उलझनों भरे जीवन, भागम-भाग की जीवन शैली, प्रतियोगिताओं, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़, प्रतिदिन कुछ नया पाने की चाहत, पुरातनता और नवीनता के बीच उलझते, परम्पराओं, संस्कृति और आधुनिकतम जीवन शैली; तब आत्म संतोष कहाँ और परम संतोष कहाँ! हम अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं को किसी सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि हमारी इच्छाएँ और सीमाएँ केवल हमारी नहीं होती, हमारे परिवेश से जुड़ी होती हैं।
आत्म संतोष की सीमा क्या है, कौन सा द्वार है जहाँ पहुँच कर हम यह समझ लें कि अब बस। जीवन की समस्त उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हमने। अब परम धाम चलते हैं। क्या ऐसा सम्भव है?
जी नहीं, बनी-बनाई उपदेशात्मक सूक्तियाँ सुना देना, कुछ आप्त वाक्य बोल देना, ग्रंथों से सूक्तियाँ उद्धृत करना और यह कहना कि हममें आत्म संतोष होना चाहिए और वह ही परम संतोष है, किसी के भी जीवन का सबसे बड़ा झूठ और छल है।
हम यह नहीं कह सकते कि आत्म-संतोष मिल गया और हम परम संतोष की अवस्था में पहुँच गये।
मेरे विचार में आत्म संतोष क्षणिक है, सीमित है, इसका विस्तार जीवनगत नहीं है। जैसे हम कहते हैं आज मेरे बच्चे को मेरा बनाया भोजन बहुत पसन्द आया, मुझे आत्म संतोष मिला। अथवा आज मैंने किसी की सहायता की, मन आत्म-संतोष से भर गया, और मैं परम संतोष की अवस्था में पहुँच गई। अथवा मेरे व्यवहार से वे प्रसन्न हुए, मुझे आत्म-संतोष मिला अथवा परम संतोष मिला।
संतोष की अन्तिम स्थिति हमारे जीवन में सम्भव ही नहीं क्योंकि हम सामाजिक, पारिवारिक प्राणी हैं और आत्म संतोष एवं परम संतोष के लिए प्रतिदिन हम प्रयासरत रहते हैं।
सामाजिक जीवन में, समाज में रहते हुए, अपनी इच्छाओं का दमन करना आत्म संतोष नहीं है, आत्म-संतोष है जीवन में उपलब्धि, लक्ष्य की प्राप्ति, सफ़लता। जीवन में आत्म संतोष किसी एक कार्य से नहीं मिलता, प्रति दिन और बार-बार किये जाने वाले कार्यों से मिलता रहता है, यह एक आजीवन प्रक्रिया है।
अतः आत्म संतोष अथवा परम संतोष जीवन की चरम प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं है, हमारे कार्यों, व्यवहार से उपजा भाव है जिसकी प्राप्ति के लिए हम हर समय प्रयासरत रहते हैं।