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फूलों का सौन्दर्य तो बस क्षणिक होता है
रस रंग गंध सबका क्षरण होता है
कभी कांटों को सहेजकर देखना
जीवन भर का अक्षुण्ण साथ होता है
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शिक्षा की यह राह देखकर
शिक्षा की कौन-सी राह है यह
मैं समझ नहीं पाई।
आजकल
बेटियां-बेटियां
सुनने में बहुत आ रहा है।
उनको ऐसी नई राहों पर
चलना सिखलाया जा रहा है।
सामान ढोने वाली
कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है
और शायद
विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।
बच्चियां हैं ये अभी
नहीं जानती कि
राहें बड़ी लम्बी, गहरी
और दलदल भरी होती हैं।
न पैरों के नीचे धरा है
न सिर पर छाया,
बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर
अधर में फ़ंसाया जा रहा है।
अवसर मिलते ही
डराने लगते हैं हम
धमकाने लगते हैं हम।
और कभी उनका
अति गुणगान कर
भटकाने लगते हैं हम।
ये राहें दिखाकर
उनके हौंसले
तोड़ने पर लगे हैं।
नौटंकियां करने में कुशल हैं।
चांद पर पहुंच गये,
आधुनिकता के चरम पर बैठे,
लेकिन
शिक्षा की यह राह देखकर
चुल्लू भर पानी में
डूब मरने को मन करता है।
किन्तु किससे कहें,
यहां तो सभी
गुणगान करने में जुटे हैं।
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मन चंचल करती तन्हाईयां
जीवन की धार में
कुछ चमकते पल हैं
कुछ झिलमिलाती रोशनियां
कुछ अवलम्ब हैं
तो कुछ
एकाकीपन की झलकियां
स्मृतियों को संजोये
मन लेता अंगड़ाईयां
मन को विह्वल करती
बहती हैं पुरवाईयां
कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं
कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां
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भ्रष्टाचार
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर उंगली उठाते हैं तो चार उंगलियां स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रू. की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रू वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार उंगलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली उंगली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकते हूं कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं।
दूसरी उंगली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूं ?
तीसरी उंगली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूं।
और अंत में चौथी उंगली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की उंगली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
यदि प्रत्येक नागरिक आत्मनियन्त्रण करे तो भ्रष्टाचार अवश्य ही दूर होगा।
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सहज भाव से जीना है जीवन
कल क्या था,बीत गया,कुछ रीत गया,छोड़ उन्हें
खट्टी थीं या मीठी थीं या रिसती थीं,अब छोड़ उन्हें
कुछ तो लेख मिटाने होंगे बीते,नया आज लिखने को
सहज भाव से जीना है जीवन,कल की गांठें,खोल उन्हें
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झूठ के आवरण चढ़े हैं
चेहरों पर चेहरे चढ़े हैं
असली तो नीचे गढ़े हैं
कैसे जानें हम किसी को
झूठ के आवरण चढ़े हैं
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हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया
मेरी आंखों के सामने
एक चिड़िया तार में फंसी,
उलझी-उलझी,
चीं-चीं करती
धीरे-धीरे मरती रही,
और हम दूर खड़े बेबस
शायद तमाशबीन से
देख रहे थे उसे
वैसे ही
धीरे-धीरे मरते।
तभी
चिड़ियों का एक दल
कहीं दूर से
उड़ता आया,
और उनकी चिड़चिडाहट से
गगन गूंज उठा,
रोंगटे खड़े हो गये हमारे,
और दिल दहल गया।
उनके प्रयास विफ़ल थे
किन्तु उनका दर्द
धरा और गगन को भेदकर
चीत्कार कर उठा था।
कुछ देर तक हम
देखते रहे, देखते रहे,
चिड़िया मरती रही,
चिड़ियां रूदन करती रहीं,
इतने में ही
कहीं से एक बाज आया,
चिड़ियों के दल को भेदता,
तार में फ़ंसी चिड़िया के पैर खींचे
और ले उड़ा,
कुछ देर चर्चा करते रहे हम।
फिर हम भीतर आकर
टी. वी. पर
दंगों के समाचारों का
आनन्द लेने लगे।
क्रूरता की कोई सीमा नहीं ।
हर चीज़ मर गई
अगर एहसास मर गया।
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जो मिला बस उसे संवार
कहते हैं जीवन छोटा है, कठिनाईयां भी हैं और दुश्वारियां भी
किसका संग मिला, कौन साथ चला, किसने निभाई यारियां भी
आते-जाते सब हैं, पर यादों में तो कुछ ही लोग बसा करते हैं
जो मिला बस उसे संवार, फिर देख जीवन में हैं किलकारियां भी
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स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार
नित परखें हम आचार-विचार
औरों की सोच पर करते प्रहार
अपने भाव परखते नहीं हम कभी
स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार
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ज़िन्दगी प्रश्न या उत्तर
जिन्हें हम
ज़िन्दगी के सवाल समझकर
उलझे बैठे रहते हैं
वास्तव में
वे सवाल नहीं होते
निर्णय होते हैं
प्रथम और अन्तिम।
ज़िन्दगी
आपसे
न सवाल पूछती है
न किसी
उत्तर की
अपेक्षा लेकर चलती है।
बस हमें समझाती है
सुलझाती है
और अक्सर
उलझाती भी है।
और हम नासमझ
अपने को
कुछ ज़्यादा ही
बुद्धिमान समझ बैठे हैं
कि ज़िन्दगी से ही
नाराज़ बैठे हैं।
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माणिक मोती ढलते हैं
सीपी में गिरती हैं बूंदे तब माणिक मोती ढलते हैं
नयनों से बहती हैं तब भावों के सागर बनते हैं
अदा इनकी मुस्कानों के संग निराली होती है
भीतर-भीतर रिसती हैं तब गहरे घाव पनपते हैं