अपना तो वोट देना ही बेकार चला गया

अपना तो वोट देना ही बेकार चला गया।

हमारे साथ तो पता नहीं क्यों ऐसा अन्याय होता है अक्सर।

अब देखिए, मैं प्रातः काल सात बजे से टी.वी. देख रही थी। हर शहर में , हर मतदान केन्द्र पर टी. वी. के संवाददाता खड़े थे। वोट देने वालों का साक्षात्कार ले रहे थे।

 उनसे पूछ रहे थे

‘‘आपको कैसा लग रहा है वोट देकर’

‘‘आपने किस मुद्दे को लेकर वोट दिया है’’

एक बेचारे व्हील चेयर पर आये थे। उन्हें न तो सुनाई दे रहा था न ही दिखाई। किन्तु हमारी तो ड्यूटी है उनसे पूछना। सो उनके मुंह में माईक घुसा कर हम पूछ रहे थे

‘‘ आप देखिए व्हील चेयर पर वोट देने आये हैं कैसा लग रहा है आपको’’

वे हकबकाये से कभी माईक को देखें और कभी अपने आस-पास खड़े लोगों को।

एक ‘‘बड़ा व्यक्ति’’ अपने घर से पैदल ही वोट देने आ गया। जब तक हमें अच्छे से याद नहीं हो गया कि फलां व्यक्ति अपने घर से पैदल ही वोट देने आया है, संवाददाता हमें याद कराते रहे।

वे ढूंढ-ढूंढकर वृद्ध, बैसाखी वाले लोगों को, व्हील चेयर वाले मतदाताओं को ढूंढ रहे थे , सब कवर हो गये टी. वी. पर।

अन्त में वे कुछ आम लोगों के बीच भी अपना माईक लेकर आ गये।

‘‘आप सुबह-सुबह सात बजे ही यहां आ गये हैं? ’’

जी हां

तो वोट देने आये हैं

जी हां

अच्छा तो क्या सोचकर वोट देने आये हैं

जी, वोट देनी है यही सोच कर आये हैं

पर कुछ तो मुद्दे होंगे जिनको सोचकर आप वोट दे रहे हैं

जी हां, बेरोजगारी मंहगाई वगैरह , वे आखिर में हारकर बोल दिये।

बाद में ज्ञात हुआ कि वे एक बहुत बड़ी पोस्ट पर सरकारी नौकरी में हैं किन्तु उनके लिए बेरोज़गारी कैसे मुद्दा है समझ नहीं आया।

 

हमारा अन्तर्मन भी प्रसन्न हुआ। जल्दी-जल्दी तैयार हुई अच्छे से। मतदान केन्द्र जा रही हूं मत देने, वहां टी. वी. वाले खड़े होंगे, हमारा साक्षात्कार लेंगे। मुद्दे तैयार किये।

पैदल ही गये। पर वहां तो कोई न था।

मत तो देना ही था, यद्यपि मतदान में ही मत शब्द है फिर भी दे दिया। अपना तो आज वोट देना ही बेकार चला गया। हमारे साथ तो पता नहीं ऐसा अन्याय क्यों होता है अक्सर।

 

एक और कथा बताना और भी ज्यादा जरूरी है।

हम अपने परिचितों में प्रायः बात करते हैं इस बार वोट किसे। हमारे एक मित्र बोले मैं तो मोदी को ही अपना वोट दूंगा। क्यों आप राहुल को दे रही हैं क्या या फिर केजरीवाल को।

मैंने कहा , ये दोनों ही हमारे क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। किन्तु मोदी जी तो प्रधानमंत्री हैं वे विधान सभा के लिए आपके क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं क्या?

मेरी ऐसी बातों पर सब बहुत नाराज़ हो जाते हैं। मित्र बोले, फालतू में बात खींचती हो, मतलब भाजपा को वोट देगें।

मैं सिरे की ढीठ। फिर पूछ लिया चलिए अच्छी बात है भाजपा को देंगे, प्रत्याशी तो होगा कोई जिसे वोट देंगें।

अब वे उखड़ गये, इससे क्या ।

क्यों नहीं? काम तो प्रत्याशी ही करेगा, न तो भाजपा करेगी, न ही मोदी जी।

जब कुछ पता नहीं तो बोलती क्यों हो, कहकर वे चिढ़कर उठकर चले गये।

सरकार और मीडिया कहते हैं जनता जागृत हो रही है। जी हां, जनता जागृत हो रही है, जागरण करती है,  दस रूपये चढ़ाती है, प्रसाद लेती है, उन दस रूपयों में पूरा परिवार खाना खाता है और घर जाकर सो जाता है। फिर सुबह उठकर कहता है , मुझे नहीं पता क्या कहता है, और यदि कुछ कहता भी है तो मुझे क्या लेना, कहता रहे, जिसे जो कहना है।

जो मुद्दे कल थे , वे ही आज हैं और कल भी वे ही रहेंगे, कुछ हेर-फ़ेर के साथ क्योंकि हम जागरण करते हैं जागृत नहीं हो रहे।