ग्रह तो ग्रह ही होते हैं

 

यह घटना वर्ष २००९ की है।

यह आलेख एक सत्‍य घटना पर आधारित है।  मेरे अतिरिक्‍त किसी भी व्‍यक्ति  से इसका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है।

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ठीक –ठाक थे मेरे पति। वायु सेना में। मंगल, शनि, संक्रांति, श्राद्ध, नवरात्रि सब एक समान। न मंदिर, न पूजा-पाठ, न कोई पंडित-पुजारियों के चक्‍कर,  मुझे और क्‍या चाहिए था। मैं तो वैसे ही जन्‍म से पूरी नास्तिक । मन निश्चिंत हुआ। 

किन्‍तु समय बदलते या कहूं ग्रहों के बिगड़ते देर नहीं लगती। मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होने वाला था। पन्‍द्रह वर्ष के कार्यकाल के बाद वायुसेना से सेवानिवृत्‍त हुए और व्‍यवसाय में आ गये। अब जब वातावरण, पर्यावरण परिवर्तित हुआ तो कुछ और भी बदल जायेगा ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था। किन्‍तु ऐसा ही हुआ।

हादसा

समय ठीक नहीं है, तब चलता है। किन्‍तु कोई कहे ग्रह ठीक नहीं हैं, तब डर लगता है। ग्रह कैसे भी हों मुझे पंडित-पुजारी, ज्‍योतिषियों, पूजा-पाठ, मन्दिर, दान वगैरह की याद नहीं सताती। एक तो वैसे ही समस्‍याएं होती हैं, दूसरी ओर पंडित-ज्‍योतिषियों का  परामर्श शुल्‍क, उनके अपने-अपने विभाग के भगवानों के लिए विशेष प्रावधान, उनके विभागीय उपायों की विशेष सामग्री, और न जाने क्‍या–क्‍या। इससे आगे इनकी सांठ-गांठ नग-मोती बेचने वालों के साथ भी रहती है। और जब इस तरह का सिलसिला एक बार चल निकलता है तो उसे रोकना बड़ा कठिन होता है। इसलिए जब कोई कहता है कि आपके ग्रह आजकल ठीक नहीं हैं, कुछ उपाय कीजिए, तो मैं मुंह ढककर सो जाती हूं। (इसे बस एक मुहावरा ही मानकर चलिए)

किन्‍तु तात्‍कालिक चिन्‍ता का विषय यह था कि मेरे पति अनायास ही धार्मिक प्रवृत्ति के होने लगे और मैं आतंकित। ग्रहों की चिन्‍ता में वे प्राय: पंडित-ज्‍योतिषियों के पास जाने लगे। अब जब घर में एक आतंकवादी हो तो प्रभावित और दण्डित तो सारा परिवार होगा ही। कुछ ऐसा ही हमारे परिवार में होने जा रहा था।

अब पति महोदय एक ज्‍योतिषि से ग्रहों की दुर्दशा के उपाय पूछकर आये। अधिकांश पूजा-पाठ, दान आदि तो उनके अपने कर्म-क्षेत्र में आये, कुछ पुत्र के हिस्‍से, किन्‍तु एक ऐसा कार्य था जिसके लिए पण्डि‍त महोदय का सख्‍त निर्देश था कि यह कार्य पत्‍नी द्वारा करने पर ही सुफल मिलेगा।

अ‍ब परिवार की भलाई के लिए कभी न कभी और कहीं न कहीं तो परिवार-पति के समक्ष आत्‍मसमर्पण करना ही पड़ता है, हमने भी कर दिया। उपाय था : कुल 108 दिन तक प्रतिदिन बिना नागा सुन्‍दर काण्‍ड का पाठ। पाठ में आदरणीय पण्डित जी ने यह सुविधा दी थी कि चाहे दोहे-चौपाईयां पढे़ं अथवा हिन्‍दी अनुवाद, फल समान मात्रा में मिलेगा । किन्‍तु व्‍यवधान नहीं आना चाहिए, अथवा पुन: एक से गिनती करनी होगी।

 अब मैं दुविधा-ग्रस्‍त थी। सुन्‍दरकाण्‍ड का ऐसा क्‍या प्रभाव है कि जो समस्‍याएं पिछले पच्‍चीस वर्षों में हमारे कठोर परिश्रम, कर्त्‍तव्‍य-निष्‍ठा, सत्‍य-कर्म और अपनी बुद्धि के अनुसार सब कुछ उचित करने पर भी दूर नहीं हुईं, इस सुन्‍दर-काण्‍ड का 108 बार जाप करने पर दूर हो जायेंगी। किन्‍तु मुझे तर्क का अधिकार नहीं था अब। बस करना था। इस काण्‍ड का अध्‍ययन एम. ए. में अंकों के लिए किया था अब ग्रहों को ठीक करने के लिए करना होगा। तब दोहे, चौपाईयां , भाषा-शैली, अलंकार, आदि की ओर ही ध्‍यान जाता था, इसका एक रूप यह भी है, ज्ञात ही नहीं था। कोई तर्क-बुद्धि नहीं थी कि कथानक में  क्‍यों, कैसे, किसलिए, इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं।  बस अंक मिलें, इतनी-सी ही छोटी सोच थी। किन्‍तु अब जब बुद्धि आतंकवादी हो चुकी है तब कुछ भी पढ़ते समय साहित्यिक अथवा धार्मिक विचार उपजते ही नहीं, बम और बारूद ही दिखाई देने लगते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

कोई बात नहीं, मैंने सोचा, 108 दिन तक सास-बहू के धारावाहिक नहीं देखेंगे, कर लेते हैं पाठ।

संक्षेप में मुझे जो कथा समझ आई वह इस प्रकार है:

 

जब पहली बार सुन्दरकांड का पाठ आरम्भ किया तो ज्ञात हुआ कि तुलसीदास  ने ‘काण्ड’ षब्द का प्रयोग बिल्कुल ठीक किया है। यह कांड हनुमान की लंका यात्रा की कथा पर आधारित है। हनुमान राम के दूत बनकर लंका की ओर सीता को ढूंढने के लिए निकले। मार्ग में अनेक बाधाएं आईं किन्तु क्योंकि वे राम के दूत थे इसलिए सब बाधाओं से पार पा लिया। कभी चार सौ योजन के बन गये तो कभी मच्छर  के समान। लंका में प्रवेष किया। विभीषण से मुलाकात हुई। सीता का एड्र्ेस लिया। सीता को राम के आई-डी प्रूफ़ के रूप में अंगूठी दी। बगीचा उजाड़ा। ब्रम्हास्त्र से बंधकर रावण के दरबार में पहुंचे। राम का गुणगान किया। रावण ने दंडस्वरूप उनकी पंूछ में घी, तेल और कपड़ा बंधवाकर आग लगवाई जिसमें लंका का संपूर्ण घी, तेल और कपड़ा समाप्त हो गया। ;पढ़ते-पढ़ते मेरा ध्यान भटक गया कि इसके बाद बेचारे लंकावासियों ने इन वस्तुओं को कैसे और कहां से प्राप्त किया होगा क्योंकि बीच में तो समुद्र था और आगे राम की सेना खड़ी थी, मैंने इस विषय को भविष्य में कभी षोध कार्य करने के लिए छोड़ दियाद्ध विभीषण का घर छोड़कर हनुमान ने सम्पूर्ण लंका जला डाली। फिर समुद्र में पूंछ बुझाई, सीता से उनके आई डी प्रूफ के रूप में उनकी चूड़ामणि ली और राम के पास लौट आये।

कथा के दूसरे हिस्से में लंका में प्रवेष की योजनाएं, राम की सेना के बल और संख्या का वर्णन आदि, रावण के छद्म दूतों को पकड़ना, उनके हाथ लक्ष्मण द्वारा पत्र भेजना, रावण का उसे पढ़ना, समुद्र पर बांध की तैयारी आदि कथाएं हैं।

इन दो कथाओं के बीच एक तीसरी व मेरी दृष्टि में मुख्य कथा है जिससे मेैं विचलित हूं और जिसका समाधान ढूंढ रही हूं ओैर वह हैै: लंका का राजा कौन? मेरे प्रष्न करते ही तीनों लोकों, चारों दिषाओं से एक ही उत्तर आया: ‘रावण’। मैंने पुनः पूछा: तो विभीषण कौन? तीनों लोकों और चारों दिषाओं से पुनः उत्तर आया: अरे, मूर्ख बालिके, इतना भी नहीं जानती ! विभीषण अर्थात ‘घर का भेदी लंका ढाए’। इतना सुनते ही मैं भगवान रामजी की आस्था के प्रति चिन्तित हो उठी।

विभीषण बड़े सदाचारी थे और सदैव राम का ही ध्यान करते थे। तुलसीदास ने लिखा है कि विभीषण ने रावण को समझाने का बड़ा प्रयास किया किन्तु उसके द्वारा अनादृत होने पर वे अपने साथियों के साथ लंका छोड़कर राम की षरण में आ गए। तुलसीदास ने लिखा है कि विभीषण हर्षित होकर मन में अनेक मनोरथ लेकर राम के पास चले। अब वे मनोरथ क्या थे तुलसी जानें या  विभीषण स्वयं।

तुलसी ने बार-बार यह भी लिखा है कि राम सब की दीनता से बहुत प्रसन्न होते थे। वैसे ही राम विभीषण के दीन वचनों और दण्डवत् से बहुत प्रसन्न हुए। सो राम ने विभीषण को लंकापति और लंकेष कहकर संबोधित किया। अब दोनों एक-दूसरे का स्तुति गान करके परस्पर न्योछावर होने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि राम ने समुद्र्र के जल द्वारा विभीषण का लंका के राजा के रूप में अभिषेक किया और उसे अखंड राज्य दिया। षिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दस सिरों की बलि देने पर दी थी, राम ने वह सब सम्पत्ति विभीषण को दी। मेरे मन में आषंका यह कि राम ने रावण के जीवित रहते हुए किस अधिकार से विभीषण को लंका का राजा घोषित किया और यह सम्पत्ति राम के पास कहां से और कैसे आई। क्योंकि राम तो अयोध्या से सर्वस्व त्याग कर आये थे, कंद-मूल खा रहे थे, कुषा पर सोते थे, वानरों के संग रहते थे, सीता को ढूंढने के लिए वन-वन की ठोकरें खा रहे थे, वानरों-भालुओं की सहायता ले रहे थे। फिर मान लीजिए उन्होंने दे भी दी तो विभीषण ने रखी कहां - इस बात की चर्चा इस ‘कांड’ में कहीं नहीं हैं। किन्तु मेरे मन में इससे भी बड़ी व्यथा उपजी है जो मुझे निरन्तर कचोट रही है, वह यह कि जिस विभीषण को भगवान श्रीरामजी ने लंका का राजा बनाया, उन्हें अखंड राज्य सौंपा, रामजी के इस प्रताप की चर्चा  कभी भी कहीं भी नहीं होती। उसके बाद लंका पर विजय प्राप्त करके राम ने पुनः विभीषण को लंका का राजा बनाया, उसके बाद विभीषण का क्या हुआ किसी को भी पता नहीं। जो भी कहता है वह यही कहता है कि लंका का राजा रावण। और विभीषण घर का भेदी लंका ढाए। इस कांड के अध्ययन के उपरान्त मैं सबसे कहती हूं कि लंका का राजा विभीषण तो सब मेरा उपहास करते हैं। कृपया मेरी सहायता कीजिए। किन्तु मुझे अपनी चिन्ता नहीं है। चिन्ता है तो रामजी की। उनकी ख्याति एवं प्रतिष्ठा की कि जिन्हें उन्होंने लंका का राजा बनाया उसका सब उपहास करते हैं और जिसका उन्होने वध किया उसे सब सोने की लंका का राजा कहते हैं । हे रामजी ! आपकी  प्रतिष्ठा प्रतिस्थापित करने के लिए मैं क्या करुं ? सोचती हूं एक सौ आठ बार सुन्दर कांड ही पढ़ डालूं। ष्षायद इससे ही आपका कुछ भला हो जाए !और इसी कांड में ‘ढोल, गंवार, षूद्र, पषु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ पंक्तियां भी हैं इन्हें भी मैं 108 बार पढ़ूंगी। अभी तो पाठ करते मात्र 13 ही दिन बीते हैं। श्रीरामजी ही जानें कि मेरा क्या होगा ?