५०-५५ वर्ष पुरानी स्म़ृतियां मानस-पटल पर उभर कर आ गईं।
उसे चोरी कहते ही नहीं जो पकड़ी जाये। हम तो इतने होशियार थे कि कभी चोरी पकड़ी ही नहीं गई।
सस्ते का युग था। बाज़ार से छोटा-मोटा सामान हम बहनें ही लाया करती थीं। एक से पांच रूपये तक में न जाने कितना सामान आ जाता था। दस-बीस पैसे तो अक्सर मैं छुपा ही लिया करती थी। अब छुपायें तो छुपायें कहां। प्रवेश द्वार के बाद बरामदा था और उसमें पुस्तकों की अलमारियां थीं, वहां मैंने एक पुस्तक उपर के खाने में निर्धारित कर ली थी जिसके उपर मैं वह पैसे रख देती थी, और स्कूल जाते समय चुपके निकाल लेती थी। आप सोचेंगे, उन पांच-दस पैसों का क्या करते होंगे, दस पैसे के बीस गोलगप्पे आते थे और पांच पैसे का चूरण, गोलियां, अथवा दो-तीन नाशपाती, खट्टा (गलगल) आदि।
स्कूल तो पैदल ही आते-जाते थे, एक घंटे का रास्ता था। अब घर से स्कूल तो कोई पहुंचने से रहा। वह युग पी.टी.एम. वाला युग भी नहीं था कि कोई सच-झूठ का पता लगा पाता। स्कूल से फूलों के पौधे बहुत चुराया करती थी। घर के बाहर बड़ा सा मैदान था, उसमें क्यारियां बनाकर लगाते थे। मां पूछती थी कहां से लाये, कह देते थे स्कूल से माली से ले लिए। और राह-भर में पेड़ों से तोड़-तोड़कर अलूचे, पलम, कैंथ खुरमानी तो बहुत खाये हैं, उस खट्टे-मीठे स्वाद का तो कहना ही क्या।
आज नहीं सोच पाते कि उस समय जो किया वह सही था अथवा गलत, किन्तु जो था यही सत्य था, आज प्रकट कर अच्छा लगा।
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मां तो बस मां होती है
मां का कोई नाम नहीं होता,
मां का कोई दाम नहीं होता
मां तो बस मां होती है
उसका कोई अलग पता नहीं होता ।
मेरे संग पढ़ती,
खेल खिलौने देती,
रातों की नींदों में,
सपनों में,
लोरी में,
परियों की कथा कहानी में,
कपड़े लत्ते में,
रोटी टिफिन में ,
सब जगह रहती है मां ।
कब सोती है
कब उठती,
पता नहीं होता ।
जो चाहिए वो देती है मां।
मेरे अन्दर बाहर है मां,
मां तो बस मां होती है ।
कोई मुझसे पूछे ,
कहां कहां होती है मां।
क्या होती है मां।
मां तो बस मां होती है ।
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बहकती हैं पत्तियों पर ओस की बूंदें
छू मत देना इन मोतियों को टूट न जायें कहीं।
आनन्द का आन्तरिक स्त्रोत हैं छूट न जाये कहीं।
जब बहकती देखती हूं इन पत्तियों पर ओस की बूंदे ,
बोलती हूं, ठहर-ठहर देखो, ये फूट न जाये कहीं ।
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हाथों से मिले नेह-स्पर्श
पत्थरों में भाव गढ़ते हैं,
जीवन में संवाद मरते हैं।
हाथों से मिले नेह-स्पर्श,
बस यही आस रखते है।
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ज़िन्दगी किसी उत्सव से कम नहीं
ज़िन्दगी किसी उत्सव से कम नहीं बस मनाने की बात है
ज़िन्दगी किसी उपहार से कम नहीं बस समझने की बात है
कुछ नाराज़गियों, निराशाओं से घिरे हम समझ नही पाते
ज़िन्दगी किसी प्रतिदान से कम नहीं बस पाने की बात है
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ये सूर्य रश्मियां
वृक्षों की आड़ से
झांकती हैं कुछ रश्मियां
समझ-बूझकर चलें
तो जीवन का अर्थ
समझाती हैं ये रश्मियां
मन को राहत देती हैं
ये खामोशियां
जीवन के एकान्त को
मुखर करती हैं ये खामोशियां
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
पाषाणों में
पढ़ने को मिलती हैं
जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां
समझ सकें तो समझ लें
हम ये कहानियां
अपनेपन से बात करती
मन को आश्वस्त करती हैं
ये तन्हाईयां
अपने लिए सोचने का
समय देती हैं ये तन्हाईयां
और जीवन में
आनन्द दे जाती हैं
छू कर जातीं
मौसम की ये पुरवाईयां
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एक मुस्कान हो जाये
देर से
तुम्हें निहारते निहारते
मेरे जीवन में भी
रंग करवट लेने लगे है।।
इस में
अपनों से
मन की बात कह ली हो
तो चलो
एक उड़ान हो जाये
एक मुस्कान हो जाये
बस यूं
गुमसुम गुमसुम न बैठो।
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कोरोनामय वातावरण में मानसिकता
एक बात समझ नहीं पा रही हूं। जब से कोरोना या कोविड -19 आया है, पहले की तरह साधारण बुखार, वायरल, गला खराब, खांसी-जुकाम होना बन्द हो गया है क्या? मौसम बदलने पर, बारिश में भीगने पर, सर्दी लग जाने पर, ज़्यादा धूप में घूमने या लू लग जाने पर, ए सी या कूलर की सीधी हवा लग जाने से उक्त समस्याएं हो जाती थीं। अब क्या ये सब बन्द हो गई हैं, सीधा कोरोना ही होता है क्या? आजकल चिकित्सकों की बात से तो ऐसा ही लगता है। घर में किसी को इनमें से कोई समस्या होने पर किसी चिकित्सक को फोन कीजिए कि एक-दो दिन से बुखार है अथवा उक्त सारी समस्याओं में से कोई समस्या है। सीधा दो टूक उत्तर मिलता है कोरोना टैस्ट करवा लीजिए।
नहीं डाक्टर ऐसी बात नहीं है।
डाक्टर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं।
नहीं पहले आप कोरोना टैस्ट करवा लीजिए, फिर देखेंगे।
लेकिन डाक्टर, उसमें तो दो दिन लग जायेंगे, बुखार तो तेज़ है।
तो ठीक है ये दो गोली नोट कर लीजिए, 100 बुखार होने तक पहली गोली दे देना दिन में एक बार। 101 से ज़्यादा होने पर पी सी एम दे देना।
मिलते-जुलते उत्तर ही मिलते हैं।
अब मान लीजिए 1 तारीख को बुखार हुआ। हर कोई पहले तो घर में ही रखी पी सी एम या क्रोसीन ले लेता है। दूसरे दिन बुखार न उतरने पर डाक्टर को फोन किया। डाक्टर का उत्तर आपने पढ़ लिया। तीसरे दिन टैस्ट करवाया। पांचवें दिन रिपोर्ट मिली। नैगेटिव।
डाक्टर ने नैगेटिव रिपोर्ट की बात सुनकर कहा, चलो ठीक है, आप बुखार की ये दवाई ले लीजिए।
किन्तु वे पांच दिन कितने भारी थे, उन पांच दिन में बुखार बिगड़कर कोई भी रूप ले लेता है, कोरोना का नहीं। क्या उन पांच दिन के लिए साधारण बुखार की या वायरल की दवाई नहीं दी जा सकती थी, मैं तो डाक्टर नहीं हूं। कोई बतायेगा क्या?
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अस्त्र उठा संधान कर
घृणा, द्वेष, हिंसा, अपराध, लोभ, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता के रावण बहुत हैं।
और हम हाथ जोड़े, बस राम राम पुकारते, दायित्व से भागते, सयाने बहुत हैं।
न आयेंगे अब सतयुग के राम तुम्हारी सहायता के लिए इन का संधान करने।
अपने भीतर तलाश कर, अस्त्र उठा, संधान कर, साहस दिखा, रास्ते बहुत हैं।
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नया-पुराना
कुछ अलग-सा ही होता है
दिसम्बर।
पहले तो
बहुत प्रतीक्षा करवाता है
और आते ही
चलने की बात
करने लगता है।
कहता है
पुराना जायेगा तभी तो
कुछ नया आयेगा।
और जब नया आयेगा
तो कुछ पुराना जायेगा।
लेकिन
नये और पुराने के
बीच की दूरियॉं
पाटने में ही
ज़िन्दगी निकल जाती है
और हम नासमझ
बस हिसाब लगाते रह जाते हैं।
चलिए, आज
नये-पुराने को छोड़
बस आज की ही बात करते हैं
और आनन्द मनाते हैं।
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अवसान एक प्रेम-कथा का
अपनी कामनाओं को
मुट्ठी में बांधे
चुप रहे हम
कैसे जान गये
धरा-गगन
क्यों हवाओं में
छप गया हमारा नाम
बादलों में क्यों सिहरन हुई
क्यों पंछियों ने तान छेड़ी
लहरों में एक कशमकश
कहीं भंवर उठे
कहीं सागर मचले
धूमिल-धूमिल हुआ सब
और हम
देखते रह गये
पाषाण बनते भाव
अवसान
एक प्रेम-कथा का।