हांजी , बजट बिगड़ गया। सुना है इधर मंहगाई बहुत हो गई है। आलू पच्चीस रूपये किलो, प्याज भी पच्चीस तीस रूपये किलो और टमाटर भी। अब बताईये भला आम आदमी जाये तो जाये कहां और खाये तो खाये क्या। अब महीने में चार पांच किलो प्याज, इतने ही आलू टमाटर का तो खर्चा हो ही जाता है।सिलेंडर भी शायद 14_16 रूपये मंहगा हो रहा है। कहां से लाये आम आदमी इतने पैसे , कैसे भरे बच्चों का पेट और कैसे जिये इस मंहगाई के ज़माने में।
घर में जितने सदस्य हैं उनसे ज़्यादा मोबाईल घर में हैं। बीस पच्चीस रूपये महीने के नहीं, हज़ारों के। और हर वर्ष नये फीचर्स के साथ नया मोबाईल तो लेना ही पड़ता है। यहां मंहगाई की बात कहां से आ गई। हर मोबाईल का हर महीने का बिल हज़ार पंद्रह सौ रूपये तो आ ही जाता है। नैट भी चाहिए। यह तो आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जितने सदस्य उतनी गाड़ियां। और एक “फोर व्हीलर” भी रखना ही पड़ता है। अब समय किसके पास है कि एक दूसरे को लिफ्ट दें सबका अपना अपना समय और सुविधाएं। और स्टेटस भी तो कोई चीज़ है। अब पैट्रोल पर महीने का पांच सात हज़ार खर्च हो भी जाता है तो क्या। 18 वर्ष से छोटे बच्चों को तो आजकल गाड़ी देनी ही पड़ती है। साईकिल का युग तो रह नहीं गया। चालान होगा तो भुगत लेंगे। कई तरीके आते हैं। अब यहां मंहगाई कहां से आड़े आ गई। हर महीने एक दो आउटिंग तो हो ही जाती है। अब घर के चार पांच लोग बाहर घूमने जाएंगे , खाएंगे पीयेंगे तो पांच सात हज़ार तो खर्च हो ही जाता है। भई कमा किस लिए रहे हैं। महीने में एकाध फिल्म। अब जन्मदिन अथवा किसी शुभ दिन पर हलवा पूरी का तो ज़माना रह नहीं गया। अच्छा आयोजन तो करना ही पड़ता है। हज़ारों नहीं, लाखों में भी खर्च हो सकता है। तब क्या। और मरण_पुण्य तिथि पर तो शायद इससे भी ज़्यादा। और शादी_ब्याह की तो बात ही मत कीजिए, आजकल तो दस बीस लाख से नीचे की बात ही नहीं है।
लेकिन आलू प्याज टमाटर मंहगा हो गया है। बजट बिगड़ गया।
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छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं
छोटी-सी है अर्चना,
छोटा-सा है भाव।
छोटी-सी है रोशनी।
अर्पित हैं कुछ फूल।
नेह-घृत का दीप समर्पित,
अपनी छाया को निहारे।
तिरते-तिरते जल में
भावों का गहरा सागर।
हाथ जोड़े, आंख मूंदे,
क्या खोया, क्या पाया,
कौन जाने।
छोटी रोशनियां
सदैव आकाश बड़ा देती हैं,
हवाओं से जूझकर
आभास बड़ा देती हैं।
सहज-सहज
जीवन का भास बड़ा देती हैं।
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हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या
सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या
जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है
कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
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बरसती बूॅंदें
बरसती बूंदों को रोककर जीवन को तरल करती हूं
बादलों से बरसती नेह-धार को मन से परखती हूं
कौन जाने कब बदलती हैं धाराएं और गति इनकी
अंजुरी में बांधकर मन को सरस-सरस करती हूं।
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मेरी समझ कुछ नहीं आता
मां,
मास्टर जी कहते हैं
धरती गोल घूमती।
चंदा-तारे सब घूमते
सूरज कैसे आता-जाता
बहुत कुछ बतलाते।
मेरी समझ नहीं कुछ आता
फिर हम क्यों नहीं गिरते।
पेड़-पौधे खड़े-खड़े
हम पर क्यों नहीं गिरते।
चंदा लटका आसमान में
कभी दिखता
कभी खो जाता।
कैसे कहां चला जाता है
पता नहीं क्या-क्या समझाते।
इतने सारे तारे
घूम-घूमकर
मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।
कभी सूरज दिखता
कभी चंदा
कभी दोनों कहीं खो जाते।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मास्टर जी
न जाने क्या-क्या बतलाते।
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न्याय अंधा होता है या बहरा
जान नहीं पाई आज तक
न्याय अंधा होता है
या बहरा।
लेकिन इतना जानती हूॅं
कि परिधान बदलने से
स्वभाव नहीं बदल जाता,
आंखों से पट्टी हटने से
न्याय का मार्ग सुगम नहीं होता।
हम सीधे-सादे लोग
बड़ी जल्दी
कुछ गलतफ़हमियों में
फ़ंस जाते हैं।
मूर्ति की आंखों से
पट्टी क्या हटी
सोचने लगे
अब तो न्याय की गंगा बहेगी।
हर दिन पवित्र स्नान होगा
और हम न्याय के जल से
आचमन करेेंगे।
अब पट्टी न्याय की थी
अथवा अन्याय की
यही समझ न सकी।
न्याय कैसा होता है
किसके लिए होता है
और किस रास्ते से होता है
वही समझ सकता है
जिसने न्याय की आस में
कभी जीवन के सालों-साल
बरबाद किये हों।
न्याय की देवी के
नये स्वरूप के लिए
करोड़ों-करोड़ों रुपये लगे होंगें,
किन्तु हर आम आदमी
आज भी
अपना अधिकार पाने के लिए
न्यायालय के दरबार में
अपनी जमा-पूंजी लुटाता
वैसे ही भटक रहा है
जैसे मूर्ति के नये स्वरूप से पहले
भटका करता था।
वह नहीं देख-समझ पाता
कि मूर्ति का रूप बदलने मात्र से
न्याय का रूप कैसे बदल सकता है।
ंकैसे लाखों निरपराध
एक दिन की सुनवाई के लिए
सालों-साल कारागार में काट देते हैं
और कैसे घोषित अपराधी
समाज में जीवन साधिकार बिता लेते हैं।
काश! मूर्ति के नये स्वरूप के साथ
न्याय की प्रक्रिया भी कुछ बदलती,
तारीखें न मिलकर
न्याय की आस मिलती,
उसे मूर्तियॉं नहीं दिखती
दिखती है तो मिटती आस,
विलम्बित न्याय
जो अक्सर
अन्याय से भी बुरा होता है।
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कुछ पल बस अपने लिये
उदित होते सूर्य की रश्मियां
मन को आह्लादित करती हैं।
विविध रंग
मन को आह्लादमयी सांत्वना
प्रदान करते हैं।
शांत चित्त, एकान्त चिन्तन
सांसारिक विषमताओं से
मुक्त करता है।
सांसारिकता से जूझते-जूझते
जब मन उचाट होता है,
तब पल भर का ध्यान
मन-मस्तिष्क को
संतुलित करता है।
आधुनिकता की तीव्र गति
प्राय: निढाल कर जाती है।
किन्तु एक दीर्घ उच्छवास
सारी थकान लूट ले जाता है।
जब मन एकाग्र होता है
तब अधिकांश चिन्ताएं
कहीं गह्वर में चली जाती हैं
और स्वस्थ मन-मस्तिष्क
सारे हल ढूंढ लाता है।
इन व्यस्तताओं में
कुछ पल तो निकाल
बस अपने लिये।
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ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
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ठहरा-सा लगता है जीवन
नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है
हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है
ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन
जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं