कहते हैं
भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाॅं बहती थीं
और किसी युग में
दूध-दहीं की
मटकियाॅं फोड़ने की
परम्परा थी
और उस युग की महिलाएॅं
इसका खूब आनन्द लिया करती थीं।
ये सब
शायद मेरे जन्म से
पहले की बातें रही होगी।
क्योंकि हमने तो
दूध को
जब भी देखा
प्लास्टिक की थैलियों में देखा।
इतना ज़रूर है
कि जब कभी थैली फ़टी है
तो दूध की नदियाॅं और
माॅं की डांट साथ बही है।
वैसे सुना है
दूध बड़ा उपयोगी पेय है
बहुत कुछ देता है
बस, ज़रा ध्यान से
उसे मथना पड़ता है
फिर बहुत कुछ निकलकर आता है।
वैसे दूध के
और भी
बड़े उपयोग हुआ करते हैं
इंसान को मिले न मिले,
हम सांपों को दूध पिलाते हैं
यह और बात है
कि पता नहीं लगता
कि वे कब
आस्तीन के साॅंप बन जाते हैं
और हम
कुछ भी समझ नहीं पाते हैं।
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नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे
कहीं नोट पर चित्र छपेगा, कहीं सड़क, पुल पर नाम होगा
कोई कहेगा अवकाश कीजिए, कहीं पुस्तकों में एक पाठ होगा
नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे, दुर्घटना घटे
कहीं झण्डे उठेंगे,डण्डें भिड़ेगें, कहीं बन्द का आह्वान होगा
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आंखें फ़ेर लीं
अपनों से अपनेपन की चाह में
जीवन-भर लगे रहे हम राह में
जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं
कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में
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एक चित्रात्मक कथा
वे दिन भी क्या दिन थे, जब बचपन में भरी दोपहरी की तेज़ धूप में मां-दादी, बड़े भाई-बहनों और चाचा-ताउ की नज़रें बचाकर खिड़की फांदकर घर से निकल आया करते थे। न धूप महसूस होती थी न बरसात। न सूखे का पता था और न फ़सल-पानी की चिन्ता। कभी कंचे खेलते, किसी के खेत से फल-सब्ज़ियां चुराते, किसी के पशु खोल देते, मिट्टी में लोटते, तालाब में छपाछप करते, मास्टरों की खूब नकल उतारते। कब सूरज आकाश से धरती पर आ जाता पता ही नहीं लगता था। फिर भागते घर की ओर। निश्चिंत, डांट-मार खाने को तैयार। “अरे ! कुछ पढ़-लिख लो, नहीं तो खेतों में यूं ही जानवरों से हांकते रहोगे, देखो, फ़लाने का बेटा कैसे दसवीं करके शहर जाकर बाबू बन गया।“ और न जाने क्या-क्या। रोज़ का किस्सा था जब तक पढ़ते रहे। न हम सुधरे , न चिन्ता करने वालों ने हमें समझाना छोड़ा।
फिर, युवा हो गये। हम कहां बदले। बस, बचपन में जो बचपना समझा जाता था वह अब आवारागर्दी हो गया। घर-बाहर के काम करने लगे, खेती-बाड़ी सम्हालने लगे किन्तु सबकी आंखों में चुभते ही रहे। बड़े-बुजुर्ग सर पीटते : “अरे ! क्या होगा इन छोरों का, नासपीटों का, न पढ़े-लिखे, न काम-काज किये, अब इसी खेती में जूझेगें। कुछ हमारी सुनी होती तो बड़े बाउ बनकर शहर में नाम कमा रहे होते। कौन करेगा इन नाकारा छोरों से ब्याह।“
फिर ब्याह भी हो गये हम सबके। घर-बार सब चलने लगे। हमें समझाने वाले चले गये। लेकिन हम वैसे के वैसे। पहले पिछली पीढ़ी हमारे पीछे थी, अब अगली पीढ़ी हमारे आगे आ गई।
बच्चे बड़े हो गये। पढ़-लिख गये। खेती रास न आई। बाउ बन गये। शहरी रंग-ढंग आ गये। पढ़ी-लिखी बहुएं आ गईं। और हम वैसे के वैसे।
भरी दोपहरी की तेज़ धूप हो अथवा भांय-भांय करते खेत, हमारा तो जन्म से यही आशियाना रहा।
और अब, “इन बुढ़उ को देखो, कौन समझावे। उमर हो गई है, आराम से घर में बैठो। घर का, अन्दर-बाहर का कोई काम देखो। घर में सब आराम दियो है, टी. वी. पंखा लगवा दियो है, पर दिमाग फिर गयो है, कैसे तो भरी दोपहरी में, संझा तक धूप में सड़े-पड़े रहे हैं। कल को कुछ हो-हुवा गया तो लोगन कहेंगे बच्चों ने ध्यान न रखा, बहुएं बुरी थीं।“
लेकिन हमें न तो बचपने में ऐसा कुछ सुनाई देता था, न जवानी में सुना और अब तो वैसे ही कान कम सुनने लगे हैं तो बोली जाओ , बोली जाओ , हमें न फ़रक पड़े है।
हा हा हा !!!!!
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ज़िन्दगी के साथ एक और तकरार
अक्सर मन करता है
ज़िन्दगी
तुझसे शिकायत करुं।
न जाने कहां-कहां से
सवाल उठा लाती है
और मेरे जीने में
अवरोध बनाने लगती है।
जब शिकायत करती हूं
तो कहती है
बस
सवाल एक छोटा-सा था।
लेकिन,
तुम्हारा एक छोटा-सा सवाल
मेरे पूरे जीवन को
झिंझोड़कर रख देता है।
उत्तर तो बहुत होते हैं
मेरे पास,
लेकिन देने से कतराती हूं,
क्योंकि
तर्क-वितर्क
कभी ख़त्म नहीं होते,
और मैं
आराम से जीना चाहती हूं।
बस इतना समझ ले
ज़िन्दगी
तुझसे
हारी नहीं हूं मैं
इतनी भी बेचारी नहीं हूं मैं।
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बस यूं ही
बेमौसम मन में बिजली कड़के
जब देखो दाईं आंख है फ़ड़के
मन यूं ही बस डरने लगता है
आंखों से तब गंगा-यमुना बरसे
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कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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ध्वनियां विचलित करती हैं मुझे
कुछ ध्वनियां
विचलित करती हैं मुझे
मानों
कोई पुकार है
कहीं दूर से
अपना है या अजनबी
नहीं समझ पाती मैं।
कोई इस पार है
या उस पार
नहीं परख पाती मैं।
शब्दरहित ये आवाजे़ं
भीतर जाकर
कहीं ठहर-सी जाती हैं
कोई अनहोनी है,
या किसी अच्छे पल की आहट
नहीं बता पाती मैं।
कुछ ध्वनियां
मेरे भीतर भी बिखरती हैं
और बाहर की ध्वनियों से बंधकर
एक नया संसार रचती हैं
अच्छा या बुरा
दुख या सुख
समय बतायेगा।
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हाईकु: धारा
धारा निर्बाध
भावों में हलचल
आंखों में पानी
-
अविरल है
धारा की तरलता
भाव क्यों रूखे
-
धारा निश्छल
चंदा की परछाईं
मन बहके
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पलायन का स्वर भाता नहीं
अरे! क्यों छोड़ो भी
कोई बात हुई, कि छोड़ो भी
यह पलायन का स्वर मुझे भाता नहीं।
मुझे इस तरह से बात करना आता नहीं।
कोई छेड़ गया, कोई बोल गया
कोई छू गया।
किसी की वाणाी से अपशब्द झरे,
कोई मेरा अधिकार मार गया,
किसी के शब्द-वाण झरे,
ढूंढकर मुहावरे पढ़े।
हरदम छोटेपन का एहसास कराते
कहीं दो वर्ष की बच्ची
अथवा अस्सी की वृद्धा
नहीं छोड़ी जी,
और आप कहते हैं
छोड़ो जी।
छोटी-छोटी बातों को
हम कह देते हैं छोड़ो जी
कब बन जाता
इस राई का पहाड़
यह भी तो देखो जी।
छोड़ो जी कहकर
हम देते हिम्मत उन लोगों को
जो नहीं मानते
कि गलत राहें छोड़ो जी।
इसलिए मैं तो मानूं
कि क्यों छोड़ो जी।
न जी न,
न छोड़ो जी।