मन के इस बियाबान में

मन के बियाबान में

जब राहें बनती हैं

तब कहीं समझ पाते हैं।

मौसम बदलता है।

कभी सूखा,

तो कभी

हरीतिमा बरसती है।

जि़न्दगी बस

राहें सुझाती है।

उपवन महकता है,

पत्ती-पत्ती गुनगुन करती है।


फिर पतझड़, फिर सूखा।

 

फिर धरा के भीतर से ,

पनपती है प्यार की पौध।

उसी के इंतजार में खड़े हैं।

मन के इस बियाबान में

एकान्त मन।

 

मेरे हिस्से का सूरज

कैसे कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज खा भी गये।

यूं देखा जाये

तो रोशनी पर सबका हक़ है।

पर सबके पास

अपने-अपने हक का

सूरज भी तो होता है।

फ़िर, क्यों, कैसे

कुछ लोग

मेरे हिस्से का सूरज खा गये।

बस एक बार

इतना ही समझना चाहती हूं

कि गलती मेरी थी कहीं,

या फिर

लोगों ने मेरे हक का सूरज

मुझसे छीन लिया।

शायद गलती मेरी ही थी।

बिना सोचे-समझे

रोशनियां बांटने निकल पड़ी मैं।

यह जानते हुए भी

कि सबके पास

अपना-अपना सूरज भी है।

बस बात इतनी-सी

कि अपने सूरज की रोशनी पाने के लिए

कुछ मेहनत करनी पड़ती है,

उठाने पड़ते हैं कष्ट,

झेलनी पड़ती हैं समस्याएं।

पर जब यूं ही

कुछ रोशनियां मिल जायें,

तो क्यों अपने सूरज को जलाया जाये।

जब मैं नहीं समझ पाई,

इतनी-सी बात।

तो होना यही था मेरे साथ,

कि कुछ लोग

मेरे हिस्से का सूरज खा गये।

 

हम श्मशान बनने लगते हैं

इंसान जब  मर जाता है,

शव कहलाता है।

जिंदा बहुत शोर करता था,

मरकर चुप हो जाता है।

किन्तु जब मर कर बोलता है,

तब प्रेत कहलाता है।

.

श्मशान में टूटती चुप्पी

बहुत भयंकर होती है।

प्रेतात्माएं होती हैं या नहीं,

मुझे नहीं पता,

किन्तु जब

जीवित और मृत

के सम्बन्ध टूटते हैं,

तब सन्नाटा भी टूटता है।

कुछ चीखें

दूर तक सुनाई देती हैं

और कुछ

भीतर ही भीतर घुटती हैं।

आग बाहर भी जलती है

और भीतर भी।

इंसान है, शव है या प्रेतात्मा,

नहीं समझ आता,

जब रात-आधी-रात

चीत्कार सुनाई देती है,

सूर्यास्त के बाद

लाशें धधकती हैं,

श्मशान से उठती लपटें,

शहरों को रौंद रही हैं,

सड़कों पर घूम रही हैं,

बेखौफ़।

हम सिलेंडर, दवाईयां,

बैड और अस्पताल का पता लिए,

उनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं

और लौटकर पंहुच जाते हैं

फिर श्मशान घाट।

.

फिर चुपचाप

गणना करने लगते हैं, भावहीन,

आंकड़ों में उलझे,

श्मशान बनने लगते हैं।

 

नदिया से मैंने पूछा

नदिया से मैंने पूछा

कल-कल कर क्‍यों बहती हो।

बहते-बहते

कभी सिमट-सिमट कर

कभी बिखर-बिखर जाती हो।

कभी मधुर संगीत छेड़ती

कभी विकराल रूप दिखाती हो।

कभी सूखी,

कभी लहर-लहर लहराती हो।

नदिया बोली,

मुझसे क्‍या पूछ रहे

तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।   

पर मैं आज तुम्‍हें चेताती हूं। 

इसीलिए,

कल-कल की बातें कहती हूं।

समझ सको तो, सम्‍हल सको तो

रूक कर, ठहर-ठहर कर

सोचो तुम।

बहते-बहते, सिमट-सिमट कर

अक्‍सर क्‍यों बिखर-बिखर जाती हूं ।

मधुर संगीत छेड़ती

क्‍यों विकराल रूप दिखाती हूं।

जब सूखी,

फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।

मैं आज तुम्‍हें चेताती हूं। 

 

 

बीहड़ वन आकर्षित करते हैं मुझे

कभी भीतर तक जाकर

देखे तो नहीं मैंने बीहड़ वन,

किन्तु ,

आकर्षित करते हैं मुझे।

कितना कुछ समेटकर रहते हैं

अपने भीतर।

गगन को झुकते देखा है मैंने यहां।

पल भर में धरा पर

उतर आता है।

रवि मुस्कुराता है,

छन-छनकर आती है धूप।

निखरती है, कण-कण को छूती है।

इधर-उधर भटकती है,

न जाने किसकी खोज में।

वृक्ष निःशंक सर उठाये,

रवि को राह दिखाते हैं,

धरा तक लेकर आते हैं।

धाराओं को

यहां कोई रोकता नहीं,

बेरोक-टोक बहती हैं।

एक नन्हें जीव से लेकर

विशाल व्याघ्र तक रहते हैं यहां।

मौसम बदलने से

यहां कुछ नहीं बदलता।

जैसा कल था

वैसा ही आज है,

जब तक वहां  मानव का

प्रवेश नहीं होता।

ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है

कितना अच्छा लगता है,

और कितना सम्मानजनक,

जब कोई कहता है,

चलो आज शाम

मिलते हैं कहीं बाहर।

-

बाहर !

बाहर कोई पब,

शराबखाना, ठेका

या कोई मंहगा होटल,

ये आपकी और उनकी

जेब पर निर्भर करता है,

और निर्भर करता है,

सरकार से मिली सुविधाओं पर।

.

एक सौ गज़ पर

न अस्पताल मिलेंगे,

न विद्यालय, न शौचालय,

न विश्रामालय।

किन्तु मेरे शहर में

खुले मिलेंगे ठेके, आहाते, पब, होटल,

और हुक्का बार।

सरकार समझती है,

आम आदमी की पहली ज़रूरत,

शराब है न कि राशन।

इसीलिए,

राशन से पहले खुले थे ठेके।

और शायद ठेके की लाईन में

लगने से

कोरोना नहीं होता था,

कोरोना होता था,

ठेला चलाने से,

सब्ज़ी-भाजी बेचने से,

छोटे-छोटे श्रम-साधन करके

पेट भरने वालों से।

इसीलिए सुरक्षा के तौर पर

पहले ठेके पर जाईये,

बाद में घर की सोचिए।

-

ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है

कौन लेगा यह निर्णय।

 

 

हैं तो सब इंसान ही

एक असमंजस की स्थिति में हूं।

शब्दों के अर्थ

अक्सर मुझे भ्रमित करते हैं।

कहते हैं

पर्यायवाची शब्द

समानार्थक होते हैं,

तब इनकी आवश्यकता ही क्या ?

इंसान और मानव से मुझे,

इंसानियत और मानवीयता का बोध होता है।

आदमी से एक भीड़ का,

और व्यक्ति से व्यक्तित्व,

एकल भाव का।

.

शायद

इन सबके संयोग से

यह जग चलता है,

और तब ईश्वर यहीं

इनमें बसता है।

 

प्रकाश तम में कहीं सिमटा है

मन में आज एक द्वंद्व है,

सब उल्टा-सुल्टा।

चांद-सितारे मानों भीतर,

सूरज कहीं गायब है।

धरा-गगन एकमेक हुए,

न अन्तर कोई दिखता है।

आंख मूंद जगत को निरखें,

कौन, कहां, कहीं दिखता है।

सब सूना-सूना-सा लगता है,

मन न जाने कहां भटकता है।

सुख-दुख से परे हुआ है मन,

प्रकाश तम में कहीं सिमटा है।

 

असमंजस में रहते हैं हम

कितनी बार,

हम समझ ही नहीं पाते,

कि परम्पराओं में जी रहे हैं,

या रूढ़ियों में।

.

दादी की परम्पराएं,

मां के लिए रूढ़ियां थीं,

और मां की परम्पराएं

मुझे रूढ़ियां लगती हैं।

.

हमारी पिछली पीढ़ियां

विरासत में हमें दे जाती हैं,

न जाने कितने अमूल्य विचार,

परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,

कुछ पुराने यादगार पल।

इस धरोहर को

कभी हम सम्हाल पाते हैं,

और कभी नहीं।

कभी सार्थक लगती हैं,

तो कभी अर्थहीन।

गठरियां बांधकर

रख देते हैं

किसी बन्द कमरे में,

कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,

और भूल जाते हैं।

.

ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी

सौंपी जाती है विरासत,

किसी की समझ आती है

किसी की नहीं।

किन्तु यह परम्परा

कभी टूटती नहीं,

चाहे गठरियों

या बन्द कमरों में ही रहें,

इतना ही बहुत है।

 

सागर की गहराईयों सा मन

सागर की गहराईयों सा मन।

सागर के सीने में

अनगिन मणि-रत्नम्

कौन ढूंढ पाया है आज तलक।

.

मन में रहते भाव-संगम

उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,

कौन समझ पाया है

आज तलक।

.

लहरें आती हैं जाती हैं,

हिचकोले लेती नाव।

जग-जगत् में

मन भागम-भाग किया करता है,

कहां मिलता आराम।

.

खुले नयनों पर वश है अपना,

देखें या न देखें।

पर बन्द नयन

न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,

अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,

जिनसे बचना चाहें,

वे सब रूप दिखा जाते हैं।

अगला-पिछला, अच्छा-बुरा

सब हाल बता जाते हैं,

अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर

कभी हंसी देकर,

तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।

 

 

प्रेम-प्यार की बात न करना

प्रेम-प्यार की बात न करना,

घृणा के बीज हम बो रहे हैं।

.

सम्बन्धों का मान नहीं अब,

दीवारें हम अब चिन रहे हैं।

.

काले-गोरे की बात चल रही,

चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं

.

अमीर-गरीब की बात कर रहे,

पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं

.

कौन है सच्चा, कौन है झूठा,

बिन जाने हम कोस रहे हैं।

.

पढ़ना-लिखना बात पुरानी

सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।

.

सर्वधर्म समभाव भूल गये,

भेद-भाव हम ढो रहे हैं।

.

अपने-अपने रूप चुन लिए,

किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।

-

राजनीति का ज्ञान नहीं है

चर्चा में हम लगे हुए हैं।  

 

आने वाला कल

अपने आज से परेशान हैं हम।

क्या उपलब्धियां हैं

हमारे पास अपने आज की,

जिन पर

गर्वोन्नत हो सकें हम।

और कहें

बदलेगा आने वाला कल।

.

कैसे बदलेगा

आने वाला कल,

.

डरे-डरे-से जीते हैं।

सच बोलने से कतराते हैं।

अन्याय का

विरोध करने से डरते हैं।

भ्रमजाल में जीते हैं -

आने वाला कल अच्छा होगा !

सही-गलत की

पहचान खो बैठे हैं हम,

बनी-बनाई लीक पर

चलने लगे हैं हम।

राहों को परखते नहीं।

बरसात में घर से निकलते नहीं।

बादलों को दोष देते हैं।

सूरज पर आरोप लगाते हैं,

चांद को घटते-बढ़ते देख

नाराज़ होते हैं।

और इस तरह

वास्तविकता से भागने का रास्ता

ढूंढ लेते हैं।

-

तो

कैसे बदलेगा आने वाला कल ?

क्योंकि

आज ही की तो

प्रतिच्छाया होता है

आने वाला कल।

 

दीप तले अंधेरे की बात करते हैं

सूरज तो सबका है,

सबके अंधेरे दूर करता है।

किन्तु उसकी रोशनी से

अपना मन कहां भरमाता है ।

-

अपनी रोशनी के लिए,

अपने गुरूर से

अपना दीप प्रज्वलित करते है।

और अंधेरा मिटाने की बात करते हैं।

-

फिर  भी अक्सर

न जाने क्यों

दीप तले अंधेरे की बात करते हैं।

-

तो हिम्मत करें,

हाथ पर रखें लौ को

तब जग से

तम मिटाने की बात करते हैं।

 

 

नदी के उस पार कच्चा रास्ता है

कच्ची राहों पर चलना

भूल रहे हैं हम,

धूप की गर्मी से

नहीं जूझ रहे हैं हम।

पैरों तले बिछते हैं 

मखमली कालीन,

छू न जाये कहीं

धरा का कोई अंश।

उड़ती मिट्टी पर

लगा दी हैं

कई बंदिशें,

सिर पर तान ली हैं,

बड़ी-बड़ी छतरियां

हवा, पानी, रोशनी से

बच कर निकलने लगे हैं हम।

पानी पर बांध लिए हैं

बड़े-बड़े बांध,

गुज़र जायेंगी गाड़ियां,

ज़रूरत पड़े तो

उड़ा लेंगे विमान,

 

पर याद नहीं रखते हम

कि ज़िन्दगी

जब उलट-पलट करती है,

एक साथ बिखरता है सब

टूटता है, चुभता है,

हवा,पानी, मिट्टी

सब एकमेक हो जाते हैं

तब समझ में आता है

यह ज़िन्दगी है एक बहाव

और नदी के उस पार

कच्चा रास्ता है।

तुम्हारा अंहकार हावी रहा मेरे वादों पर

जीवन में सारे काम

सदा

जल्दबाज़ी से नहीं होते।

कभी-कभी

प्रतीक्षा के दो पल

बड़े लाभकारी होते हैं।

बिगड़ी को बना देते हैं

ठहरी हुई

ज़िन्दगियों को संवार देते हैं।

समझाया था तुम्हें

पर तुम्हारा

अंहकार हावी रहा

मेरे वादों पर।

मैंने कब इंकार किया था

कि नहीं दूंगी साथ तुम्हारा

जीवन की राहों में।

हाथ थामना ही ज़रूरी नहीं होता

एक विश्वास की झलक भी

अक्सर राहें उन्मुक्त कर जाती है।

किन्तु

तुम्हारा अंहकार हावी रहा,

मेरे वादों पर।

अब न सुनाओ मुझे

कि मैं अकेले ही चलता रहा।

ये चयन तुम्हारा था।

ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं

बहुत कही जाती है एक बात

कि जब

रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,

नहीं आसान होता

उन्हें खोलना, सुलझाना।

कुछ न कुछ निशान तो

छोड़ ही जाती हैं।

 

लेकिन सच कहूं

मुझे अक्सर लगता है,

जीवन में

कुछ बातों में

गांठ बांधना भी

ज़रूरी होता है।

 

टूटी डोर को भी

हम यूं ही नहीं जाने देते

गांठे मार-मारकर

सम्हालते हैं,

जब तक सम्हल सके।

 

ज़िन्दगी कहीं

उससे सस्ती तो नहीं,

फिर क्यों नहीं कोशिश करते,

यहां भी कभी-कभार,

या बार-बार।

 

दिखाने को अक्सर मन हंसता है

चोट कहां लगी थी,

कब लगी थी,

कौन बतलाए किसको।

दिल छोटा-सा है

पर दर्द बड़ा है,

कौन बतलाए किसको।

गिरता है बार-बार,

और बार-बार सम्हलता है।

बहते रक्त को देखकर

दिखाने को अक्सर मन  हंसता है।

मन की बात कह ले पगले,

कौन समझाए उसको।

न डर कि कोई हंसेगा,

या साथ न देगा कोई।

ऐसे ही दुनिया चलती है,

जीवन ऐसे ही चलता है,

कौन समझाए उसको।

आंसू भीतर-भीतर तिरते हैं,

आंखों में मोती बनते हैं,

तिनका अटका है आंख में,

कहकर,

दिखाने को अक्सर मन हंसता है।

खिलता है कुकुरमुत्ता

सुना है मैंने

बादलों की गड़गड़ाहट से

बिजली कड़कने पर

पहाड़ों में

खिलता है कुकुरमुत्ता।

प्रकृति को निरखना

अच्छा लगता है,

सौन्दर्य बांटती है

रंग सजाती है,

मन मुदित करती है,

पर पता नहीं क्यों

तुम्हें

अक्सर पसन्द नहीं करते लोग।

 

अपने-आप से प्रकट होना,

बढ़ना और बढ़ते जाना,

जीवन्तता,

कितनी कठिन होती है,

यह समझते नहीं

तुम्हें देखकर लोग।

 

अपने स्वार्थ-हित

नाम बदल-बदलकर

पुकारते हैं तुम्हें।

 

इस भय से

कि पता नहीं तुमसे

अमृत मिलेगा या विष।

 

कभी अपने भीतर भी

झांककर देख रे इंसान,

कि पता नहीं तुमसे

अमृत मिलेगा या विष।

 

हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या

सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या

जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है

कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

दीप तले अंधेरा ढूंढते हैं हम

रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम

सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम

तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं

ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम

कड़वाहटों को बो रहे हैं हम

गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम

जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम

यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है

इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम

कल डाली पर था आज गुलदान में

कवियों की सोच को न जाने क्या हुआ है, बस फूलों पर मन फिदा हुआ है

किसी के बालों में, किसी के गालों में, दिखता उन्हें एक फूल सजा हुआ है

प्रेम, सौन्दर्य, रस का प्रतीक मानकर हरदम फूलों की चर्चा में लगे हुये हैं

कल डाली पर था, आज गुलदान में, और अब देखो धरा पर पड़ा हुआ है

वक्त कब कहां मिटा देगा

वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने

वक्त कब बदला लेगा कौन जाने

संभल संभल कर कदम रखना ज़रा

वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने