कौन जाने सच

सुना है

बड़ी मछली 

छोटी मछली को

खा जाती है।

शायद, या नहीं,

या पता नहीं।

यह मुहावरा है,

अथवा वास्तविकता,

कौन जाने।

क्योंकि, जब भी बात उठती है

तो, हम

मनुष्यों के सन्दर्भ में ही उठती है।

मछलियों को तो

यूं ही बदनाम कर बैठे हैं हम।

एकान्त की ध्वनियां

एकान्त काटता है,

एकान्त कचोटता है

किन्तु अपने भीतर के

एकान्त की ध्वनि

बहुत मुखर होती है।

बहुत कुछ बोलती है।

जब सन्नाटा टूटता है

तब कई भेद खोलती है।

भीतर ही भीतर

अपने आप को तलाशती है।

किन्तु हम

अपने आपसे ही डरे हुए

दीवार पार की आवाज़ें तो सुनते हैं

किन्तु अपने भीतर की आवाज़ों को

नकारते हैं

इसीलिए जीवन भर हारते है।

चलते चलते

चलते चलते

सड़क पर पड़े

एक छोटे से कंकड़ को

यूं ही उछाल दिया मैंने।

पल भर में न जाने

कहां खो गया।

सोच कुछ और रही थी

कह कुछ और बैठी।

बातों के, घातों के, वादों के

आघातों के

छोटे-छोटे कंकड़

हम, यूं ही उछालते रहते हैं

कब, किसे, कैसे चोट दे जाता है

नहीं जानते।

किन्तु जब अपने पर पड़ती है

तब..................

मेरे भीतर

एक विशालकाय पर्वत है

ऐसे  छोटे-छोटे कंकड़ों का।

यह जीवन है

कुछ गांठें जीवन-भर

टीस देती हैं

और अन्‍त में

एक बड़ी गांठ बनकर

जीवन ले लेती हैं।

जीवन-भर

गांठों को उकेरते रहें

खोलते

या किसी से

खुलवाते रहें,

बेहिचक बांटते रहें

गांठों की रिक्‍तता,

या उनके भीतर

जमा मवाद उकेरते रहें,

तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन

नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।

धरा बिना आकाश नहीं

पंख पसारे चिड़िया को देखा

मन विस्तारित आकाश हुआ

मन तो करता है

पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले

किन्तु

लौट धरा पर उतरूं कैसे,

कौन सिखलाएगा मुझको।

उंचा उड़ना बड़ा सरल है

पर कैसे जानूंगी फिर

धरा पर लौटूं कैसे मैं।

दूरी तो शायद पल भर की है

पर मन जब ऊंचा उड़ता है

दूर-दूर सब दिखता है

सब छोटे-छोटे-से लगते हैं

और अपना रूप नहीं दिखता

धरा बिना आकाश नहीं

पंछी तो जाने यह बात

बस हम ही भूले बैठें हैं यह।

 

खण्डित दर्पण सच बोलता है

कहते हैं
खण्डित दर्पण में
चेहरा देखना अपशकुन होता है।
शायद इसलिए
कि इस खण्डित दर्पण के
टुकड़ों में
हमें अपने
सारे असली चेहरे
दिखाई देने लगते हैं
और हम समझ नहीं पाते
कहां जाकर
अपना यह चेहरा छुपायें।
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एक बात और
जब दर्पण टूटता है
तो अक्सर खरोंच भी
पड़ जाया करती है
फिर चेहरे नहीं दिखते
खरोंचे सालती हैं जीवन-भर।
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एक बात और
कहते हैं दर्पण सच बोलता है
पर मेरी मानों
तो दर्पण पर
भरोसा मत करना कभी
उल्टे को सीधा
और सीधे को उल्टा दिखाता है

 

पीछे मुड़कर क्या देखना

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

जीवन में

कुछ गहराते अंधेरे  हैं

और कुछ होती हैं रोशनियां

हिम्मत करें

तो अंधेरे को बेधकर

रोशनी का मार्ग

दिखाती हैं ये सीढ़ियां

जो बीत गया

सो बीत गया

पीछे मुड़कर क्या देखना

आगे की राह

दिखाती हैं ये सीढि़यां