औरों को मत देख बस अपने मन में ठान ले

अपने जीवन को  निष्‍कपट बनाने के लिए क्रांति की जरूरत है

अपने भीतर की बुराईयों को मिटाने के लिए क्रांति की जरूरत है

किसी क्रांतिकारी ने कभी झाड़ू नहीं उठाया था किसी नारे के साथ

औरों को मत देख बस अपने मन में ठान ले इसकी ज़रूरत है

स्वच्छता अभियान की नहीं, स्वच्छ भारत बनाये रखने की ज़रूरत है

न उदास हो मन

पथ पर कंटक होते है तो फूलों की चादर भी होती है

जीवन में दुख होते हैं तो सुख की आशा भी होती है

घनघोर घटाएं छंट जाती हैं फिर धूप छिटकती है

न उदास हो मन, राहें कठिन-सरल सब होती हैं

अनुभव की थाती

पर्वतों से टकराती, उबड़-खाबड़ राहों पर जब नदी-नीर-धार बहती है

कुछ सहती, कुछ गाती, कहीं गुनगुनाती, तब गंगा-सी निर्मल बन पाती है

अपनेपन की राहों में ,फूल उगें और कांटे न हों, ऐसा कम ही होता है

यूं ही जीवन में कुछ खोकर, कुछ पाकर, अनुभव की थाती बन पाती है।

सबको बहकाते

पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते

पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते

चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हर पल

हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते

रात से सबको गिला है

रात और चांद का अजीब सा सिलसिला है
चांद तो चाहिए पर रात से सबको गिला है
चांद चाहिए तो रात का खतरा उठाना होगा
चांद या अंधेरा, देखना है, किसे क्या मिला है

बातों का ज्ञान नहीं

उन बातों पर बात करें, जिन बातों का ज्ञान नहीं

उन बातों पर उलझ पड़ें, जिन बातों का अर्थ नहीं

कुछ काम-काज की बात करें तो  है समय नहीं  

उन बातों पर मर मिटते हैं, जिन बातों का सार नहीं

इल्जाम बहुत हैं

इल्जाम बहुत हैं

कि कुछ लोग पत्थर दिल हुआ करते हैं।

पर यूं ही तो नहीं हो जाते होंगे

इंसान

पत्थर दिल ।

कुछ आहत होती होंगी संवेदनाएं,

समाज से मिली होंगी ठोकरें,

किया होगा किसी ने कपट

बिखरे होंगे सपने

और फिर टूटा होगा दिल।

तब  सीमाएं लांघकर

दर्द आंसुओं में बदल जाता है

और ज़माने से छुपाने के लिए

जब आंख में बंध जाता है

तो दिल पत्थर का बन जाता है।

इन पत्थरों पर अंकित होती हैं

भावनाएं,

कविताएं और शायरी।

कभी निकट होकर देखना,

तराशने की कोशिश जरूर करना

न जाने कितने माणिक मोती मिल जायें,

सदियों की जमी बर्फ पिघल जाये,

एक और पावन पवित्र गंगा बह जाये

और पत्थरों के बीच चमन महक जाये।

आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

यह असमंजस की स्थिति है

कि जब भी मैं

सिर उठाकर

धरती से

आकाश को

निहारती थी

तब चांद-तारे सब

छोटे-छोटे से दिखाई देते थे

कि जब चाहे मुट्ठी में भर लूं।

दमकते सूर्य को

नज़बट्टू बनाकर

द्वार पर टांग लूं।

लेकिन  यहां धरती पर

आशाओं-आकांक्षाओं का जाल

निराकार होते हुए भी

इतना बड़ा है  

कि न मुट्ठी में आता है

न हृदय में समाता है।

चाहतें बड़ी-बड़ी

विशालकाय

आकाश में भी न समायें।

मन, छोटा-सा

ज़रा-ज़रा-सी बात पर

बड़ा-सा ललचाए।

खुली मुट्ठी बन्द नहीं होती

और बन्द हो जाये

तो खुलती नहीं,

दरकता है सब।

छूटता है सब।

टूटता है सब।

आकाश और धरती के बीच का रास्ता

बहुत लम्बा है

और अनजाना भी

और शायद अकेला भी।

 

खुली-बन्द होती मुट्ठियों के बीच

बस

रह जाता है आवागमन।

घुमक्कड़ हो गया है मन

घुमक्कड़ हो गया है मन

बिन पूछे बिन जाने

न जाने

निकल जाता है कहां कहां।

रोकती हूं, समझाती हूं

बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।

पर सुनता नहीं।

भटकता है, इधर उधर अटकता है।

न जाने किस किस से जाकर लग  जाता है।

फिर लौट कर

छोटी छोटी बात पर

अपने से ही उलझता है।

सुलगता है।

ज्वालामुखी सा भभकता है।

फिर लावा बहता है आंखों से।

आंख को धुंधला अहं भी कर देता है

लोग, अंधेरे से घबराते हैं

मुझे, उजालों से डर लगता है।

प्रकाश देखती हूं

मन घबराने लगता है

सूरज निकलता है

आंखें चौंधिया जाती हैं

ज़्यादा रोशनी

आंख को अंधा कर देती है।

फिर

पैर ठोकर खाने लगते हैं,

गिर भी सकती हूं,

चोट भी लग सकती है,

और जान भी जा सकती है।

किन्तु जब अंधेरा होता है,

तब आंखें फाड़-फाड़ कर देखने का प्रयास

मुझे रास्ता दिखाने लगता है।

गिरने का भय नहीं रहता।

और उजाले की अपेक्षा

कहीं ज़्यादा दिखाई देने लगता है।

 

आंखें

अभ्यस्त हो जाती हैं

नये-नये पथ खोजने की

डरती नहीं

पैर भी नहीं डगमगाते

वे जान जाते हैं

आगे अवरोध ही होंगे

पत्थर ही नहीं, गढ्ढे भी होंगे।

पर अंधेरे की अभ्यस्त आंखें

प्रकाश की आंखों की तरह

चौंधिया नहीं जातीं।

राहों को तलाशती

सही राह पहचानतीं

ठोकर खाकर भी आगे बढ़ती हैं

प्रकाश की आंखों की तरह

एक अहं से नहीं भर जातीं।

 

आंख को धुंधला

केवल आंसू ही नहीं करते

अहं भी कर देता है।

वैसे मैं तुम्हें यह भी बता दूं

कि ज़्यादा प्रकाश

आंख के आगे अंधेरा कर देता है

और ज़्यादा अंधेरा

आंख को रोशन

 

अत:

मैं रोशनी का अंधापन नहीं चाहती

मुझे

अंधेरे की नज़र चाहिए

जो रात में दिन का उजाला खोज सके

जो अंधेरे में

प्रकाश की किरणें बो सके

और प्रकाश के अंधों को

अंधेरे की तलाश

और उसकी पहचान बता सके।

 

जीवन में पतंग-सा भाव ला

जीवन में पतंग-सा भाव ला।

आकाश छूने की कोशिश कर।

 

पांव धरा पर रख।

सूरज को बांध

पतंग की डोरी में।

उंची उड़ान भर।

रंगों-रंगीनियों से खेल।

मन छोटा न कर।

कटने-टूटने से न डर।

एक दिन

टूटना तो सभी को है।

बस हिम्मत रख।

 

आकाश छू ले एक बार।

फिर टूटने का,

लौटकर धरा पर

उतरने का दुख नहीं सालता।

तिनके का सहारा

कभी किसी ने  कह दिया

एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है,

किस्मत साथ दे

तो सीखा हुआ

ककहरा भी बहुत होता है।

लेकिन पुराने मुहावरे

ज़िन्दगी में साथ नहीं देते सदा।

यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को

यूं ही लांघ जाता है आदमी,

लेकिन कभी-कभी एक तिनके की चोट से

घायल मन

हर आस-विश्वास खोता है।

रोशनी की चकाचौंध में

रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम

सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम

तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं

ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम

निर्माण हो या हो अवसान

उपवन में रूप ले रही

कलियों ने पहले से झूम रहे

पुष्पों की आभा देखी

और अपना सुन्दर भविष्य

देखकर मुस्कुरा दीं।

पुष्पों ने कलियों की

मुस्कान से आलोकित

उपवन को निहारा

और अपना पूर्व स्वरूप भानकर

मुदित हुए।

फिर धरा पर झरी पत्तियों में

अपने भविष्य की

आहट का अनुभव किया।

धरा से बने थे

धरा में जा मिलेंगे

सोच, खिलखिला दिये।

फिर स्वरूप लेंगे

मुस्कुराएंगे, मुदित होंगे,

फिर खिलखिलाएंगे।

निर्माण हो या हो अवसान की आहट

होना है तो होना है

रोना क्या खोना क्या

होना है तो होना है।

चलो, इसी बात पर मुस्कुरा दें ज़रा।

पैसों से यह दुनिया चलती

पैसों पर यह दुनिया ठहरी, पैसों से यह दुनिया चलती , सब जाने हैं

जीवन का आधार,रोटी का संसार, सामाजिक-व्यवहार, सब माने हैं

छल है, मोह-माया है, चाह नहीं है हमको, कहने को सब कहते हैं पर,

नहीं हाथ की मैल, मेहनत से आयेगी तो फल देगी, इतना तो सब माने हैं

विनम्रता कहां तक

आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई 
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई

इंसानियत के मीत

अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत

कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत

पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही

कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत

मैं भी तो

यहां

हर आदमी की ज़ुबान

एक धारदार छुरी है

जब चाहे, जहां चाहे,

छीलने लगती है

कभी कुरेदने तो कभी काटने।

देखने में तुम्हें लगेगी

एकदम अपनी सी।

विनम्र, झुकती, लचीली

तुम्हारे पक्ष में।

लेकिन तुम देर से समझ पाते हो

कि सांप की गति भी

कुछ इसी तरह की होती है।

उसकी फुंकार भी

आकर्षित करती है तुम्हें

किसी मौके पर।

उसका रंग रूप, उसका नृत्य _

बीन की धुन पर उसका झूमना

तुम्हें मोहने लगता है।

तुम उसे दूध पिलाने लगते हो

तो कभी देवता समझ कर

उसकी पूजा करते हो।

यह जानते हुए भी

कि मौका मिलते ही

वह तुम्हें काट डालेगा।

और  तुम भी

सांप पाल लेते हो

अपनी पिटारी में।

शब्द में अभिव्यक्ति हो

मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें

दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें

शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे

विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें

चेहरों पर फूल मन में कांटे

हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।

पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दोनों की अक्सर
साथ साथ होती है।

इधर कांटों में भी फूल खिलने लगे है
और  फूल
कांटों से चुभने लगे हैं।

लेकिन जब कांटों पर खिलते हैं फूल
तो हम कभी उनकी चर्चा ही नहीं करते।
बस इतना ही याद रख लिया है हमने
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।

और कभी छीलकर देखा है कांटों को
भीतर से कितने रसपूर्ण होते हैं ।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
एक अलग-सा
आकर्षण और सौन्दर्य
निहित होता है इनमें
जिसे परखना पड़ता है।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।

और जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए
कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।

आशाओं की चमक

मन के गलियारों में रोशनी भी है और अंधेरा भी
कुछ आवाज़ें रात की हैं और कुछ दिखाती सवेरा भी
कभी सूरज चमकता है और कभी लगता है ग्रहण
आशाओं की चमक से टूटता है निराशाओं का घेरा भी

शोर भीतर की आहटों को

बाहर का शोर

भीतर की आहटों को

अक्सर चुप करवा देता है

और हम

अपने भीतर की आवाज़ों-आहटों को

अनसुना कर

आगे निकल जाते हैं,

अक्सर, गलत राहों पर।

मन के भीतर भी एक शोर है,

खलबली है, द्वंद्व है,

वाद-विवाद, वितंडावाद है

जिसकी हम अक्सर

उपेक्षा कर जाते हैं।

अपने-आप को सुनना ही नहीं चाहते।

कहीं डरते हैं

क्योंकि सच तो वहीं है

और हम

सच का सामना करने से

डरते हैं।

अपने-आप से डरते हैं

क्योंकि

जब भीतर की आवाज़ें

सन्नाटें का चीरती हुई

बाहर निकलेंगी

तब कुछ तो अनघट घटेगा

और हम

उससे ही बचना चाहते हैं

इसीलिए  से डरते हैं।

मन में एक जंगल है

मन में एक जंगल है

विचारों का, भावों का।

एक झंझावात की तरह आते हैं

अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,

तहस-नहस करते हैं

और हवा के झोंके के साथ

अचानक

कहीं दूर उड़ जाते हैं।

कभी शब्द दे पाती हूं

और कभी नहीं।

लिखे शब्द पिघलने लगते हैं

आसमानी बादलों की तरह।

कहीं दूर उड़ जाते हैं

पक्षी की तरह।

हर बार एक कही-अनकही

आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।