मैं भी तो
मन के गह्वर में
ताला लगाकर रखा था
और भूल गई थी
कौन सा खजाना जमा है कहाँ।
अक्सर
खट-खट की आवाज़ें आती थीं
मैं बहक-बहक जाती थी।
क्या करें
पुरानी वस्तुओं का मोह नहीं छूटता
बस
सोचती रह जाती थी
नासमझ-सी।
बस इतना ही न समझ पाई
कि हर पुरानी चीज़
मूल्यवान नहीं होती।
मैं भी तो
सत्तर वर्ष पुरानी हो गई रे।