रिश्तों की डोर
रिश्तों की डोर,
बहुत कमज़ोर।
अनजाने, अनचाहे
बांधे रखते हैं
गांठों पर गांठें लगाते रहते हैं।
बस इसी आस में
कभी तो याद आयेंगे हम
किसी खास दिन पर,
न जाने कितने
भ्रम पाले रखते हैं हम।
अलमारियों के कोनों में
किन्हीं दराजों में
संजोकर रखी होती हैं
न जाने कितनी यादें।
अक्सर चाहती हूँ
दीमक लग जाये
या कोई चोरी करके ले जाये
किन्तु नहीं होता ऐसा।
विपरीत, मेरे ही अन्दर
दीमक पनपता है
और मैं प्रसन्न होती हूँ
कोई तो है मेरे साथ।
यह कैसी विडम्बना है।