बड़े मसले हैं रोटी के

बड़े मसले हैं रोटी के।

रोटी बनाने

और खाने से पहले

एक लम्बी प्रक्रिया से

गुज़रना पड़ता है

हम महिलाओं को।

इस जग में

कौन समझा है

हमारा दर्द।

बस थाली में रोटी देखते ही

टूट पड़ते हैं।

मिट्टी से लेकर

रसोई तक पहुंचते-पहुंचते

किसे कितना दर्द होता है

और कितना आनन्द मिलता है

कौन समझ पाता है।

जब बच्चा

रोटी का पहला कौर खाता है

तब मां का आनन्द

कौन समझ पाता है।

जब किसी की आंखों में

तृप्ति दिखती है

तब रोटी बनाने की

मानों कीमत मिल जाती है।

लेकिन बस

इतना ही समझ नहीं आया

मुझे आज तक

कि रोटी गोल ही क्यों।

ठीक है

दुनिया गोल, धरती गोल

सूरज-चंदा गोल,

नज़रें गोल,

जीवन का पहिया गोल

पता नहीं और कितने गोल।

तो भले-मानुष

रोटी चपटी ही खा लो।

वही स्वाद मिलेगा।

   

 

हमारी अपनी आवाज़ें  गायब हो गई हैं

आवाज़ें निरन्तर गूंजती हैं

मेरे आस-पास।

कभी धीमी, कभी तेज़।

कुछ सुनाई देती हैं

कुछ नहीं।

हमारे कान फ़टते हैं

दुनिया भर की

आवाज़ें सुनते-सुनते।

इस शोर में

इतना खो गये हैं हम

कि अपनी ही आवाज़ से

कतराने में लगे हैं

अपनी ही आवाज़ को

भुलाने में लगे हैं।

हमारे भीतर का सच

झूठ बनने लगा है

दूर से आती आवाज़ों से

मन भरमाने में लगे हैं।

छोटी-छोटी आवाज़ों से

मिलने वाला आनन्द

कहीं खो गया है

हम बस यूं ही

चिल्लाने में लगे हैं।

गुमराह करती

आवाजों के पीछे

हम भागने में लगे हैं।

ऊँची आवाज़ें

हमारी नियामक हो गई हैं

हमारी अपनी आवाज़ें

कहीं गायब हो गई हैं।

  

सच बोलने लग जाती हूँ

मन में

न जाने क्यों

कभी-कभी

बुरे ख़याल आने लगते हैं

और मैं

सच बोलने लग जाती हूँ।

मेरी कही बातों पर

ध्यान मत देना।

एक प्रलाप समझकर

झटक देना।

मूर्ख

बहुत देखे होंगे दुनिया में,

किन्तु

मुझसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं

यह समझ लेना।

मैं तो ऐसी हूँ

जैसी हूँ, वैसी हूँ।

बस

तुम अपना ध्यान रखना।

सच को झूठ

और झूठ को सच

सिद्ध करने की

हिम्मत रखना।

 

फिर भी

मन में मेरे

बुरे-बुरे ख़याल आते हैं

बस

अपना ध्यान रखना।।।

  

ईर्ष्‍या होती है चाँद से

ईर्ष्‍या होती है चाँद से 

जब देखो

मनचाहा घूमता है

इधर-उधर डोलता

घर-घर झांकता

साथ चाँदनी लिए।

चांँदनी को देखो

निरखती है दूर गगन से

धरा तक आते-आते

बिखर-बिखर जाती है।

हाथ बढ़ाकर

थामना चाहती हूँ

चाँदनी या चाँद को।

दोनों ही चंचल

अपना रूप बदल

इधर-उधर हो जाते हैं

झुरमुट में उलझे

झांक-झांक मुस्काते हैं

मुझको पास बुलाते हैं

और फिर

यहीं-कहीं छिप जाते हैं।

   

 

 

नेह के मोती

अपने मन से,

अपने भाव से,

अपने वचनों से,

मज़बूत बांधी थी डोरी,

पिरोये थे

नेह के मोती,

रिश्तों की आस,

भावों का सागर,

अथाह विश्वास।

-

किन्तु

समय की धार

बहुत तीखी होती है।

-

अकेले

मेरे हाथ में नहीं थी

यह डोर।

हाथों-हाथ

घिसती रही

रगड़ खाती रही

गांठें पड़ती रहीं

और बिखरते रहे मोती।

और जब माला टूटती है

मोती बिखरते हैं

तो कुछ मोती तो

खो ही जाते हैं

कितना भी सम्हाल लें

बस यादें रह जाती हैं।

 

 

 

मन चंचल करती तन्हाईयां

जीवन की धार में

कुछ चमकते पल हैं

कुछ झिलमिलाती रोशनियां

कुछ अवलम्ब हैं

तो कुछ

एकाकीपन की झलकियां

स्मृतियों को संजोये

मन लेता अंगड़ाईयां

मन को विह्वल करती

बहती हैं पुरवाईयां

कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं

कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां

 

 

 

पार जरूर उतरना है

चल रे मन !

आज नैया की सैर कराउं !

पतवारों का क्या करना है।

खेवट को क्या रखना है।

बस अपने मन से तरना है।

डूबेंगें, उतरेंगे।

सीपी शंखों को ढूढेंगे।

मोती माणिक का क्या करना है।

उपर नीचे डोलेगी।

हिचकोले ले लेकर बोलेगी।

चल चल सागर के मध्य चलें।

लहरों संग संग तैर चलें।

पानी में छाया को छूलेंगे।

अपनी शक्लें ढूंढेंगे।

बस इतना ही तो करना है

पार जरूर उतरना है।

चल रे मन !

आज नैया की सैर कराउं !


यह अथाह शांत जलराशि

गगन की व्यापकता

ठहरी-ठहरी सी हवा,

निश्चल, निश्छल-सा समां

दूर कहीं घूमतीं

हल्की हल्की सी बदरिया।

तैरने लगती हूं, डूबने लगती हूं

फिर तरती हूं, दूर तक जाती हूं

फिर लौट लौट आती हूं।

इस सूनेपन में,  इक अपनापन है।

 

प्रकृति का सौन्दर्य निरख

सांसें

जब रुकती हैं,

मन भीगता है,

कहीं दर्द होता है,

अकेलापन सालता है।

तब प्रकृति

अपने अनुपम रूप में

बुलाती है

समझाती है,

खिलते हैं फूल,

तितलियां पंख फैलाती हैं,

चिड़िया चहकती है,

डालियां

झुक-झुक मन मदमाती हैं।

सब कहती हैं

समय बदलता है।

धूप है तो बरसात भी।

आंधी है तो पतझड़ भी।

सूखा है तो ताल भी।

मन मत हो उदास

प्रकृति का सौन्दर्य निरख।

आनन्द में रह।

 

अजीब होती हैं  ये हवाएँ भी

अजीब होती हैं

ये हवाएँ भी।

बहुत रुख बदलती हैं

ये हवाएँ भी।

फूलों से गुज़रती

मदमाती हैं

ये हवाएँ भी।

बादलों संग आती हैं

तो झरती-झरती-सी लगती हैं

ये हवाएँ भी।

मन उदास हो तो

सर्द-सर्द लगती हैं

ये हवाएँ भी।

और जब मन में झड़ी हो

तो भिगो-भिगो जाती हैं

ये हवाएँ भी।

क्रोध में बहुत बिखरती हैं

ये हवाएँ भी।

सागर में उठते बवंडर-सा

भीतर ही भीतर

सब तहस-नहस कर जाती हैं

ये हवाएं भी।

इन हवाओं से बचकर रहना

बहुत आशिकाना होती हैं

ये हवाएँ भी।

 

ख़ुद में कमियाँ निकालते रहना

मेरा अपना मन है।

बताने की बात तो नहीं,

फिर भी मैंने सोचा

आपको बता दूं

कि मेरा अपना मन है।

आपको अच्छा लगे

या बुरा,

आज,

मैंने आपको बताना

ज़रूरी समझा कि

मेरा अपना मन है।

 

यह बताना

इसलिए भी ज़रूरी समझा

कि मैं जैसी भी हूॅं,

अच्छी या बुरी,

अपने लिए हूॅं

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

यह बताना

इसलिए भी

ज़रूरी हो गया था

कि मेरा अपना मन है,

कि मैं अपनी कमियाॅं

जानती हूॅं

नहीं जानना चाहती आपसे

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

जैसी भी हूॅं, जो भी हूॅं

अपने जैसी हूॅं,

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

चाहती हू

किसी की कमियाॅं न देखूॅं

बस अपनी कमियाॅं निकालती रहूॅं

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

क्या था मेरा सपना

हा हा !!

वे सपने ही क्या

जो पूरे हो जायें।

कुछ सपने हम

जागते में देखते हैं

और कुछ सोते हुए।

जागते हुए देखे सपने

सुबह-शाम

अपना रूप बदलते रहते हैं

और हम उलझ कर रह जाते हैं

क्या यही था मेरा सपना 

और जब तक उस राह पर

बढ़ने लगते हैं

सपना फिर बदल जाता है।

सोचती हूं

इससे तो

न ही देखा होता सपना।

सच्चाई की कंकरीट पर

चल लेती चाहे नंगे पांव ही]

पर बार-बार

सपने बदलने की

तकलीफ़ से तो न गुज़रना पड़ता।

 

और सोते हुए देखे सपने !!

यूं ही आधे-अधूरे होते हैं

कभी नींद टूटती है,

कभी प्यास लगती है,

कभी डरकर उठ बैठते हैं,

फिर टुकड़ों में आती है नींद

और अपने साथ

सपनों के भी टुकड़े

करने लगती है,

दिन बिखर जाता है

उन अधूरे सपनों को जोड़ने की

नाकाम कोशिश में।

 

 

जूझना पड़ता है अकेलेपन से

कभी-कभी दूरियां

रिश्तों को पास ले आती है

उलझे रिश्तों को सुलझाती हैं

राहें बदलकर जीवन में

आस ले आती हैं

कभी तो चलें साथ-साथ

और कभी-कभी 

चुनकर चलें दो राहें,

जीवन आसान कर जाती हैं।

जीवन सदैव

सहारों से नहीं चलता

ये सीख दे जाती हैं

कदम-दर-कदम

जूझना पड़ता है

अकेलेपन से,

ढूंढनी पड़ती हैं

आप ही जीवन की राहें

अंधेरों और उजालों में

पहचान हो पाती है,

कठोर धरातल पर तब

ज़िन्दगी आसान हो जाती है।

फिर मुड़कर देखना एक बार

छूटे हाथ फिर जुड़ते हैं

और ज़िन्दगी

सहज-सहज हो जाती है।

 

 

यादों पर दो क्षणिकाएं

तुम्हारी यादें

किसी सुगन्धित पुष्प-सी।

पहले कली-सी कोमल,

फिर फूल बन

मन-उपवन को महकातीं,

भंवरे गुनगुनाते।

हर पत्ती नये भाव में बहती।

और अन्त

एक मुर्झाए फूल-सा

डाली से टूटा,

कब कदमों तले रौंदा गया

पता ही न लगा।

*-*

यादों की गठरी

उलझे धागे,

टूटे बटन,

फ़टी गुदड़िया।

भारी-भरकम

मानों कई ज़िन्दगियों

के उधार का लेखा-जोखा।

 

मन की गुलामी से बड़ी कोई सफ़लता नहीं

 

ऐसा अक्सर क्यों होता है

कि हम

अपनी इच्छाओं,

आकांक्षाओं का

मान नहीं करते

और,

औरों के चेहरे निरखते हैं

कि उन्हें हमसे क्या चाहिए।

.

मेरी इच्छाओं का सागर

अपार है।

अनन्त हैं उसमें लहरें,

किलोल करती हैं

ज्वार-भाटा उठता है,

तट से टकरा-टकराकर

रोष प्रकट करती हैं,

सारी सीमाएं तोड़कर

पूर्णता की आकांक्षा लिए

बार-बार बढ़ती हैं

उठती हैं, गिरती हैं

फिर आगे बढ़ती हैं।

.

अपने मन के गुलाम नहीं बनेंगे

तो पूर्णता की आकांक्षा पूरी कैसे होगी ?

.

अपने मन की गुलामी से बड़ी

कोई सफ़लता नहीं जीवन में।

 

एक तृण छूता है

पर्वत को मैंने छेड़ा

ढह गया।

दूर कहीं से

एक तिनका आया

पथ बांध गया।

बड़ी-बड़ी बाधाओं को तो

हम

यूं ही झेल लिया करते हैं

पर कभी-कभी

एक तृण छूता है

तब

गहरा घाव कहीं बनता है

अनबोले संवादों का

संसार कहीं बनता है

भीतर ही भीतर

कुछ रिसता है

तब मन पर

पर्वत-सा भार कहीं बनता है।

 

संदेह की दीवारें

 

संदेह की दीवारें नहीं होतीं

जो दिखाई दें,

अदृश्य किरचें होती हैं

जो रोपने और काटने वाले

दोनों को ही चुभती हैं।

किन्तु जब दिल में, एक बार

किरचें लग जाती हैं

फिर वे दिखती नहीं,

आदत हो जाती है हमें

उस चुभन की,

आनन्द लेने लगते हैं हम

इस चुभन का।

धीरे-धीरे रिसता है रक्त

गांठ बनती है, मवाद बहता है

जीवन की लय

बाधित होने लगती है।

-

यह ठीक है कि किरचें दिखती नहीं

किन्तु जब कुछ टूटा होगा

तो एक बार तो आवाज़ हुई होगी

काश उसे सुना होता ।।।।

तो जीवन

 कितना सहज-सरल-सरल होता।

 

 

आशाओं को रंगीन किया है

कुछ भाव नि:शब्द होते हैं
आकार देती हूं
उन्हें कागज़ पर। 
दूरियां सिमटती हैं। 
अबोल
बोल होने लगते हैं। 
तुम्हांरे नाम
कुछ शब्द लिखे हैं
भावों को रूप दिया है
आशाओं को रंगीन किया है
कुछ इन्द्रधनुष उकेरे हैं
कहीं कुछ बूंदों बहकी 
कुछ शब्द् मिट से गये हैं
समझ सको तो समझ लेना
जोड़-जोड़कर पढ़ लेना।
अधूरे रंगों को पूरा कर लेना।

 

कितना मुश्किल होता है

कितना मुश्किल होता है

जब रोटी गोल न पकती है

दूध उफ़नकर बहता है

सब बिखरा-बिखरा रहता है।

 

तब बच्चा दिनभर रोता है

न खाता है न सोता है

मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।

 

कितना मुश्किल होता है

जब पैसा पास न होता है

रोज़ नये तकाज़े सुनता

मन सहमा-सहमा रहता है।

 

तब आंखों में रातें कटती हैं

पल-भर काम न होता है

मन हारा-हारा रहता है।

 

कितना मुश्किल होता है,

जब वादा मिलने का करते हैं

पर कह देते हैं भूल गये,

मन तनहा-तनहा रहता है।

 

तब तपता है सावन में जेठ,

आंखों में सागर लहराता है

मन भीगा-भीगा रहता है ।

 

कितना मुश्किल होता है

जब बिजली गुल हो जाती है

रात अंधेरी घबराती है

मन डरा-डरा-सा रहता है।

 

तब तारे टिमटिम करते हैं

चांदी-सी रात चमकती है

मन हरषा-हरषा रहता है।

सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी

जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी

कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे

आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।

तरल-तरल भाव सी

बहकती है ज़िन्दगी

राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी

चलें हिल-मिल

कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी

किसी और से क्या लेना

जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी

आज भीग ले अन्तर्मन,

कदम-दर-कदम

मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी

राहें सूनी हैं तो क्या,

तुम साथ हो

तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।

आगे बढ़ते रहें

तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी

    

यह दिल की बात है

कभी दिल है

कभी दिलदार होगा

बादलों में

यूं हमारा नाम होगा

कभी होती है झड़ी

कभी चांद का रोब-दाब होगा

देखो , झांकती है रोशनी

कहती है दिलदार से

दीदार होगा

कभी टूटते हैं

कभी जुड़ते हैं दिल

इस बात का भी

कोई तो जवाबदार होगा

ज़रा-सी आह से

पिघल जाते हैं,

ऐसे दिल से दिल लगाकर,

कौन-सा सरोकार होगा

बदलते मौसम के आसार हैं ये

न दिल लगा

नहीं तो बुरा हाल होगा

 

काश! कह सकूं याद नहीं अब

मैंने कब चलना सीखा
किसने सिखलाया था मुझको,
किसने थामी थी अंगुली
किसने गिरते से उठाया था मुझको,
याद नहीं अब।

कब छूटा था हाथ मेरा,
कब नया हाथ थामा था,
संगी-साथी थे मेरे
या फ़िर चली
अकेली जीवन-पथ पर
किसने समझाया था मुझको,
याद नहीं अब।

कहीं सरल-सुगम राहें थीं
कहीं अनगढ़ दीवारें थीं।
कहीं कंकड़ -पत्थर थे
कहीं पर्वत-सी बाधाएं थीं
क्या चुना था मैंने
याद नहीं अब।

राहों से राहें निकली थीं,
इधर-उधर भटक रही थी
कब लौट-लौटकर
नई शुरूआत कर रही थी,
याद नहीं अब।

क्या पाना चाहा था मैंने,
क्या खोया मैंने ,
बहुत बड़ी गठरी है।
काश!
कह सकूं,
याद नहीं अब।

 

आजकल मेरी कृतियां

 आजकल

मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।

लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।

दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।

हाथ से कलम फिसलने लगी है।

मैं बांधती हूं इक आस में,

वे चौखट लांघकर

बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।

आजकल मेरी ही कृतियां,

मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।

कभी आकार का उलाहना मिलता है,

कभी रूप-रंग का,

कभी शब्दों का अभाव खलता है।

अक्सर भावों की

उथल-पुथल हो जाया करती है।

भाव और होते हैं,

आकार और ले लेती हैं,

अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां

पटल पर मनमानी करने लगती हैं।

टूटती हैं, बिखरती हैं,

बनती हैं, मिटती हैं,

रंग बदरंग होने लगते हैं।

आजकल मेरी ही  कृतियां

मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।

मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।

 

अलगाव

द्वंद्व में फ़ंसी मै सोचती हूं,

मैं और तुम कितने एक हैं,

पर दो भी हैं।

शायद इसीलिए एक हैं।

नहीं ! शायद

एक होने के लिए दो हैं।

पहले एक हैं या पहले दो ?

एक ज़्यादा हैं या दो ?

या केवल एक ही हैं,

या केवल दो ही।

इस एक और दो के

द्वंद्व के बीच,

कहीं मैंने जाना,

कि हम

न एक रह गये हैं

न ही दो।

हम दोनों

एक-एक हो गये हैं।

 

कुछ सपने कुछ सच्चे कुछ झूठे

कागज़ की नाव में

जितने सपने थे

सब अपने थे।

छोटे-छोटे थे, पर मन के थे

न डूबने की चिन्ता

न सपनों के टूटने की चिन्ता।

तिरती थी, पलटती थी

टूट-फूट जाती थी, भंवर में अटकती थी।

रूक-रूक जाती थी।

एक जाती थी, एक और आ जाती थी।

पर सपने तो सपने थे,

सब अपने थे।

न टूटते थे न फूटते थे

जीवन की लय यूं ही बहती जाती थी

फिर एक दिन हम बड़े हो गये

सपने भारी-भारी हो गये

अपने ही नहीं, सबके हो गये

पता ही नहीं लगा

वह कागज़ की नाव कहां खो गई

कभी अनायास यूं ही

याद आ जाती है,

तो ढूंढने निकल पड़ते हैं

किन्तु भारी सपने कहां

पीछा छोड़ते हैं,

सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं

अब नाव नहीं बनती।

मेरी कागज़ की नाव

न जाने कहां खो गई,

मिल जाये तो लौटा देना

 

दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का

दीवारें

एक नाम है

पूरे जीवन का ।

हमारे साथ

जीती हैं पूरा जीवन।

सुख-दुख, अपना-पराया

हंसी-खुशी या आंसू,

सब सहेजती रहती हैं

ये दीवारें।

सब सुनती हैं,

देखती हैं, सहती हैं,

पर कहती नहीं किसी से।

कुछ अर्थहीन रेखाएं

अंगुलियों से उकेरती हूं

इन दीवारों पर।

पर दीवारें

समझती हैं मेरे भाव,

मिट्टी दरकने लगती है।

कभी गीली तो कभी सूखी।

दरकती मिट्टी के साथ

कुछ आकृतियां

रूप लेने लगती हैं।

समझाती हैं मुझे,

सहलाती हैं मेरा सर,

बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।

कभी कुछ निशान रह जाते हैं,

लोग समझते हैं,

कोई कलाकृति है मेरी।

 

समझाने की बात नहीं

आजकल न जाने क्यों

यूं ही 

आंख में पानी भर आता है।

कहीं कुछ रिसता है,

जो न दिखता है,

न मन टिकता है।

कहीं कुछ जैसे

छूटता जा रहा है पीछे कहीं।

कुछ दूरियों का एहसास,

कुछ शब्दों का अभाव।

न कोई चोट, न घाव।

जैसे मिट्टी दरकने लगी है।

नींव सरकने लगी है।

कहां कमी रह गई,

कहां नमी रह गई।

कई कुछ बदल गया।

सब अपना,

अब पराया-सा लगता है।

समझाने की बात नहीं,

जब भीतर ही भीतर

कुछ टूटता है,

जो न सिमटता है

न दिखता है,

बस यूं ही बिखरता है।

एक एहसास है

न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।

अपने-आपको परखना

कभी-कभी अच्छा लगता है,

अपने-आप से बतियाना,

अपने-आपको समझना-समझाना।

डांटना-फ़टकारना।

अपनी निगाहों से

अपने-आपको परखना।

अपने दिये गये उत्तर पर

प्रश्न तलाशना।

अपने आस-पास घूम रहे

प्रश्नों के उत्तर तलाशना।

मुर्झाए पौधों में

कलियों को तलाशना।

बिखरे कांच में

जानबूझकर अंगुली घुमाना।

उफ़नते दूध को

गैस पर गिरते देखना।

और

धार-धार बहते पानी को

एक अंगुली से

रोकने की कोशिश करना।

आस नहीं छोड़ी मैंने

प्रकृति के नियमों को

हम बदल नहीं सकते।

जीवन का आवागमन

तो जारी है।

मुझको जाना है,

नव-अंकुरण को आना है।

आस नहीं छोड़ी मैंने।

विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।

धरा का आसरा लेकर,

आकाश ताकता हूं।

अपनी जड़ों को

फिर से आजमाता हूं।

अंकुरण तो होना ही है,

बनना और मिटना

नियम प्रकृति का,

मुझको भी जाना है।

न उदास हो,

नव-अंकुरण फूटेंगे,

यह क्रम जारी रहेगा,

 

कल किसने देखा है

इस सूनेपन में

मन बहक गया।

धुंधलेपन में

मन भटक गया।

छोटी-सी रोशनी

मन चहक गया।

गहन, बीहड़ वन में

मन अटक गया।

आकर्षित करती हैं,

लहकी-लहकी-सी डालियां

बुला रहीं,

चल आ झूम ले।

दुनियादारी भूल ले।

कल किसने देखा है

आजा,

आज जी भर घूम ले।

प्रण का भाव हो

 

निभाने की हिम्‍मत हो

तभी प्रण करना कभी।

हर मन आहत होता है

जब प्रण पूरा नहीं करते कभी ।

कोई ज़रूरी नहीं

कि प्राण ही दांव पर लगाना,

प्रण का भाव हो,

जीवन की

छोटी-छोटी बातों के भाव में भी

मन बंधता है, जुड़ता है,

टूटता है कभी ।

-

जीवन में वादों का, इरादों का

कायदों का

मन सोचता है सभी।

-

चाहे न करना प्रण कभी,

बस छोटी-छोटी बातों से,

भाव जता देना कभी ।