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शिकायतों का
पुलिंदा है मेरे पास।
है तो सबके पास
बस सच बोलने का
मेरा ही ठेका है।
काश!
कि शिकायतें
आपसे होतीं
किसी और से होतीं,
इससे-उससे होतीं,
तब मैं कितनी प्रसन्न होती,
बिखेर देती
सारे जहाँ में।
इसकी, उसकी
बुराईयाँ कर-कर मन भरती।
किन्तु
क्या करुँ
सारी शिकायतें
अपने-आपसे ही हैं।
जहाँ बोलना चाहिए
वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ
जहाँ मौन रहना चाहिए
वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।
हँसते-हँसते
रोने लग जाती हूँ,
रोते-रोते हँस लेती हूँ।
न खड़े होने का सलीका
न बैठने का
न बात करने का,
बहक-बहक जाती हूँँ
मन कहीं टिकता नहीं
बस
उलझी-उलझी रह जाती हूँ।
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मुझको मेरी नज़रों से परखो
मन विचलित होता है।
मन आतंकित होता है।
भूख मरती है।
दीवारें रिसती हैं।
न भावुक होता है।
न रोता है।
आग जलती भी है।
आग बुझती भी है।
कब तक दर्शाओगे
मुझको ऐसे।
कब तक बहाओगे
घड़ियाली आंसू।
बेचारी, अबला, निरीह
कहकर
कब तक मुझ पर
दया दिखलाओगे।
मां मां मां मां कहकर
कब तक
झूठे भाव जताओगे।
बदल गई है दुनिया सारी,
बदल गये हो तुम।
प्यार, नेह, त्याग का अर्थ
पिछड़ापन,
थोथी भावुकता नहीं होता।
यथार्थ, की पटरी पर
चाहे मिले कुछ कटुता,
या फिर कुछ अनचाहापन,
मुझको, मेरी नज़रों से देखो,
मुझको मेरी नज़रों से परखो,
तुम बदले हो
मुझको भी बदली नज़रों से देखो।
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ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी
प्रकृति में
बिखरे सौन्दर्य को
अपनी आँखों में
समेटकर
मैंने आँखें बन्द कर लीं।
हवाओं की
रमणीयता को
चेहरे से छूकर
बस गहरी साँस भर ली।
आकर्षक बसन्त के
सुहाने मौसम की
बासन्ती चादर
मन पर ओढ़ ली।
सुरम्य घाटियों सी गहराई
मन के भावों से जोड़ ली।
और यूँ ज़िन्दगी
सच में ज़िन्दगी हो उठी।
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और भर दे पिचकारी में
शब्दों में नवरस घोल और भर दे पिचकारी में
स्नेह की बोली बोल और भर दे पिचकारी में
आशाओं-विश्वासों के रंग बना, फिर जल में डाल
इस रंग को रिश्तों में घोल और भर दे पिचकारी में
मन की सारी बातें खोल और भर दे पिचकारी में
मन की बगिया में फूल खिला, और भर दे पिचकारी में
अगली-पिछली भूल, नये भाव जगा,और भर दे पिचकारी में
हंसी-ठिठोली की महफिल रख और भर दे पिचकारी में
सब पर रंग चढ़ा, सबके रंग उड़ा, और भर दे पिचकारी में
मीठे में मिर्ची डाल, मिर्ची में मीठा घोल और भर दे पिचकारी में
इन्द्रधनुष को रोक, रंगों के ढक्कन खोल और भर दे पिचकारी में
मीठा-सा कोई गीत सुना, नई धुन बना और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर दे पिचकारी में
छन्द की चिन्ता छोड़, टूटा फूटा जोड़ और भर दे पिचकारी में
मात्राओं के बन्धन तोड़, कर ले तू भी होड़ और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर दे पिचकारी में
इतना ही सूझा है जब और सूझेगा तब फिर भर दूंगी पिचकारी में
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निशा पड़ाव पल भर
निशा !
दिन भर के थके कदमों का
पड़ाव पल भर।
रोशनी से शुरू होकर
रोशनी तक का सफ़र।
सूर्य की उष्मा से राहत
पल भर।
चांद की शीतलता का
मधुर हास।
चमकते तारों से बंधी आस।
-अंधेरा छंटेगा।
फिर सुबह होगी।
नई सुबह।
यह सफ़र जारी रहेगा।
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राम से मैंने कहा
राम से मैंने कहा, लौटकर न आना कभी इस धरा पर किसी रूप में।
सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, उर्मिला नहीं मिलेंगें किसी रूप में।
किसने अपकर्म किया, किसे दण्ड मिला, कुछ तो था जो सालता है,
वही पुरानी लीक पीट रहे, सोच-समझ पर भारी धर्मान्धता हर रूप में
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अपनी राहों पर अपने हक से चला मैं
रोशनी से
बात करने चला मैं।
सुबह-सवेरे
अपने से चला मैं।
उगते सूरज को
नमन करने चला मैं।
न बदला सूरज
न बदली उसकी आब,
तो अपनी राहों पर
यूं ही बढ़ता चला मैं।
उम्र यूं ही बीती जाती
सोचते-सोचते
आगे बढ़ता चला मैं।
धूल-धूसरित राहें
न रोकें मुझे
हाथ में लाठी लिए
मनमस्त चला मैं।
साथ नहीं मांगता
हाथ नहीं मांगता
अपने दम पर
आज भी चला मैं।
वृक्ष भी बढ़ रहे,
शाखाएं झुक रहीं
छांव बांटतीं
मेरा साथ दे रहीं।
तभी तो
अपनी राहों पर
अपने हक से चला मैं।
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कुछ तो करवा दो सरकार
कुएँ बन्द करवा दो सरकार।
अब तो मेरे घर नल लगवा दो सरकार।
इस घाघर में काम न होते
मुझको भी एक सूट सिलवा दो सरकार।
चलते-चलते कांटे चुभते हैं
मुझको भी एक चप्पल दिलवा दो सरकार।
कच्ची सड़कें, पथरीली धरती
कार न सही,
इक साईकिल ही दिलवा दो सरकार।
मैं कोमल-काया, नाज़ुक-नाज़ुक
तुम भी कभी घट भरकर ला दो सरकार।
कान्हा-वान्हा, गोपी-वोपी,
प्रेम-प्यार के किस्से हुए पुराने
तुम भी कुछ नया सोचो सरकार।
शहरी बाबू बनकर रोब जमाते फ़िरते हो
दो कक्षा
मुझको भी अब तो पढ़वा दो सरकार।
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खण्डित दर्पण सच बोलता है
कहते हैं
खण्डित दर्पण में
चेहरा देखना अपशकुन होता है।
शायद इसलिए
कि इस खण्डित दर्पण के
टुकड़ों में
हमें अपने
सारे असली चेहरे
दिखाई देने लगते हैं
और हम समझ नहीं पाते
कहां जाकर
अपना यह चेहरा छुपायें।
*-*-**-*-
एक बात और
जब दर्पण टूटता है
तो अक्सर खरोंच भी
पड़ जाया करती है
फिर चेहरे नहीं दिखते
खरोंचे सालती हैं जीवन-भर।
*-*-*-*-*-
एक बात और
कहते हैं दर्पण सच बोलता है
पर मेरी मानों
तो दर्पण पर
भरोसा मत करना कभी
उल्टे को सीधा
और सीधे को उल्टा दिखाता है
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मन में बोनसाई रोप दिये हैं
विश्वास का आकाश
आज भी उतना ही विस्तारित है
जितना पहले हुआ करता था।
बस इतनी सी बात है
कि हमने, अपने मन में बसे
पीपल, वट-वृक्ष को
कांट-छांट कर
बोनसाई रोप दिये हैं,
और हर समय खुरपा लेकर
जड़ों को खोदते रहते हैं,
कहने को निखारते हैं,
सजाते-संवारते हैं,
किन्तु, वास्तव में
अपनी ही कृति पर अविश्वास करते हैं।
तो फिर किसी और से कैसी आशा।
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करिये योग भगाये रोग
कैसी विडम्बना एवं आश्चर्य की बात है कि जिस योग पद्धति का उल्लेख हमारे प्राचीनतम ग्रंथों ऋग्वेद एवं कठोपनिषद ग्रंथों में मिलता है, जो ईसा पूर्व के ग्रंथ हैं, उस प्राचीनतम योग पद्धति को हम आज प्रदर्शन के रूप में योगा डे के रूप में मना रहे हैं। पतंजलि का योगसूत्र योग का सबसे महत्वपूर्ण गं्रथ है। अन्य अनेक ग्रंथों में भी योग की परिभाषाएँ महत्व एवं क्रियाएँ उल्लिखित हैं। योग केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, अपितु एक मानसिक, चिकित्सीय पद्धति भी है।
वर्तमान में हम इस बात से ज़्यादा प्रसन्न नहीं हैं कि एक हमारी प्राचीनतम योग पद्धति जो लुप्त हो रही थी, पुनः प्रकाश में आई है, हमारे जीवन का हिस्सा बनने लगी है, उसके गुणों को हम अपने जीवन में उतारने में लगे हैं बल्कि हम इस बात की ज़्यादा खुशियाँ मनाने में लगे हैं कि देखिए हमारा योगा अब विश्व में मनाया जाने लगा है। हमारे योगा का अब अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है।
यदि सत्य को समझने का साहस रखते हों तो आज भी योग हमारे दैनिक जीवन का, नित्यप्रति का हिस्सा नहीं बन सका है। चाहे विद्यालयों में यह एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है किन्तु बच्चे भी इसे एक विषय के रूप में ही लेते हैं न कि दैनिक जीवन की एक अपरिहार्य क्रिया के रूप में, जीवन-शैली के रूप में अथवा चिकित्सा-पद्धति के रूप में। बड़े-बुजुर्ग पार्क में एकत्र होकर अनुलोम-विलोम आदि करते दिखाई दे जायेंगे अथवा एक-दो और क्रियाएँ , और हमारा योगा डे सम्पन्न हो जाता है।
21 जून को सड़कों पर छपी टी-शर्ट पहने, बढ़िया-सी चटाई बिछाये और बाद में कुछ खान-पानी ही योगा-डे की उपलब्धि बनकर रह जाते हैं।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में योग का जो महत्व दर्शाया गया है एवं क्रियाएँ बताईं गईं हैं हम उनसे अभी भी बहुत-बहुत दूर हैं। आवश्यकता है प्रत्येक स्तर पर प्रयास की, अभ्यास की, सम्मान की और इसे अपने दैनिन्दन जीवन का हिस्सा बनाने की। योग को उचित रूप में जीवन का हिस्सा बनाने से निश्चित रूप से आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक, शारीरिक एवं अने मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान हो पायेगा।