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कहते हैं
पैरों के नीचे
ज़मीन हो
और सिर पर छत
तो ज़िन्दगी
आसान हो जाती है।
किन्तु
जिनके पैरों के नीचे
छत हो
और सिर पर
खुला आसमान
उनका क्या !!!
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More Articles
विश्व-शांति के लिए
विश्व-शांति के लिए
बनाने पड़ते हैं आयुध
रचनी पड़ती हैं कूटनीतियाँ
धर्म, जाति
और देश के नाम पर
बाँटना पड़ता है,
चिननी पड़ती हैं
संदेह की दीवारें
अपनी सुरक्षा के नाम पर।
युद्धों का
आह्वान करना पड़ता है
देश की रक्षा की
सौगन्ध उठाकर
झोंक दिये जाते हैं
युद्धों में
अनजान, अपरिचित,
किसी एक की लालसा,
महत्वाकांक्षा
ले डूबती है
पूरी मानवता
पूरा इतिहास।
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रिश्तों के तो माने हैं
पेड़ सूखे तो क्या
सावन रूठे तो क्या
पत्ते झरे तो क्या
कांटे चुभे तो क्या।
हम भूले नहीं
अपना बसेरा।
लौट लौट कर आयेंगे
बसेरा यहीं बसायेंगे
तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।
दु:ख सुख तो आने जाने हैं।
पर रिश्तों के तो माने हैं।
जब तक हैं
तब तक तो
इन्हें निभायेंगे।
बसेरा यहीं बसायेंगे।
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बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
मन के मौसम ने करवट सी-ली है
बासन्ती रंगों ने आहट सी-ली है
बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
उनकी नज़रों ने एक चाहत सी-ली है
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बहुत किरकिरी होती है
अनुभव की बात कहती हूं
अनधिकार को
कभी मान मत देना
जिस घट में छिद्र हो
उसमें जल संग्रहण नहीं होता
कृत्रिम पुष्पों से
सज्जित रंग-रूप देकर
भले ही कुछ दिन सहेज लें
किन्तु दरारें तो फूटेंगी ही
फिर जो मिट्टी बिखरती है
बहुत किरकिरी होती है
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प्रकृति की ये कलाएँ
अपने ही रूप को देखो निहार रही ये लताएँ
मन को मुदित कर रहीं मनमोहक फ़िज़ाएँ
जल-थल-गगन मौन बैठे हो रहे आनन्दित
हर रोज़ नई कथा लिखती हैं इनकी अदाएँ
कौन समझ पाया है प्रकृति की ये कलाएँ
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भोर की आस
चिड़िया आई
कहती है
भोर हुई,
उठ जा, भोर हुई।
आ मेरे संग
चल नये तराने गा,
रंगों से
मन में रंगीनीयाँ ला।
चल
एक उड़ान भर
मन में उमंग ला।
धरा पर पाँव रख।
गगन की आस रख।
जीवन में भाव रख।
रात की बात कर
भोर की आस रख।
चल मेरे संग उड़ान भर।
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मुस्कुराहटें बांटती हूँ
टोकरी-भर मुस्कुराहटें बांटती हूँ।
जीवन बोझ नहीं, ऐसा मानती हूँ।
काम जब ईमान हो तो डर कैसा,
नहीं किसी का एहसान माँगती हूँ।
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जीवन की गति एक चक्रव्यूह
जीवन की गति
जब किसी चक्रव्यूह में
अटकती है
तभी
अपने-पराये का एहसास होता है।
रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।
पता भी नहीं लगता
कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,
और किस-किस ने सामने से
घेर लिया।
व्यूह और चक्रव्यूह
के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,
अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच
धंसकर रह जाती है।
अधसुनी, अनसुनी कहानियां
लौट-लौटकर सचेत करती हैं,
किन्तु हम अपनी रौ में
चेतावनी समझ ही नहीं पाते,
और अपनी आेर से
एक अधबुनी कहानी छोड़कर
चले जाते हैं।
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दुनिया नित नये रंग बदले
इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये
कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये
दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी
तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये
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ठकोसले बहुत हैं
न मन थका-हारा, न तन थका-हारा
किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा
यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं
किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा