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ज़िन्दगियां
कुछ शब्दों में बंधकर
रह जाती हैं,
बंधक बन जाती हैं,
फिर वे तीन हो
या तेरह
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
बात कानून की नहीं
मन की है, और शायद सोच की।
कानून
कहां-कहां, किस-किसके
घर जायेगा
देखने के लिए
कि कुछ और शब्दों से
या फिर बिना शब्दों के भी
आहत होती हैं, घातक होती हैं।
परदे
आज भी पड़े हैं
चेहरों पर, सोच पर, नज़र पर
कब उतरेंगे, कैसे उतरेंगे
कितनी सदियां लग जाती हैं,
केवल एक भाव बदलने के लिए।
और जब तक वह बदलता है
टूटता है,
कुछ नया जुड़ जाता है
और हमें फिर खड़ा होना पड़ता है
एक नई लड़ाई के लिए
सदियों-सदियों तक।
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होगा कैसे मनोरंजन
कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन
किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन
अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा
औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन
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चांद मानों मुस्कुराया
चांद मानों हड़बड़ाया
बादलों की धमक से।
सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,
चांद मानों लड़खड़ाया
अंधेरे की धमक से।
लहरों में मची खलबली,
देख तरु लड़खड़ाने लगे।
जल में देख प्रतिबिम्ब,
चांद मानों मुस्कुराया
अपनी ही चमक से।
अंधेरों में भी रोशनी होती है,
चमक होती है, दमक होती है,
यह समझाया हमें चांद ने
अपनेपन से मनन से ।
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ब्लाकिंग ब्लाकिंग
अब क्या लिखें आज मन की बात। लिखने में संकोच भी होता है और लिखे बिना रहा भी नहीं जा सकता। अब हर किसी से तो अपने मन की पीड़ा बांटी नहीं जा सकती। कुछ ही तो मित्र हैं जिनसे मन की बात कह लेती हूं।
तो लीजिए कल फिर एक दुर्घटना घट गई एक मंच पर मेरे साथ। बहुत-बहुत ध्यान रखती हूं प्रतिक्रियाएं लिखते समय, किन्तु इस बार एक अन्य रूप में मेरी प्रतिक्रिया मुझे धोखा दे गई।
हुआ यूं कि एक कवि महोदय की रचना मुझे बहुत पसन्द आई। हम प्रंशसा में प्रायः लिख देते हैं: ‘‘बहुत अच्छी रचना’’, ‘‘सुन्दर रचना’’, आदि-आदि। मैं लिख गई ‘‘ बहुत सुन्दर, बहुत खूबसूरत’’ ^^रचना** शब्द कापी-पेस्ट में छूट गया।
मेरा ध्यान नहीं गया कि कवि महोदय ने अपनी कविता के साथ अपना सुन्दर-सा चित्र भी लगाया था।
लीजिए हो गई हमसे गलती से मिस्टेक। कवि महोदय की प्रसन्नता का पारावार नहीं, पहले मैत्री संदेश आया, हमने देखा कि उनके 123 मित्र हमारी भी सूची में हैं, कविताएं तो उनकी हम पसन्द करते ही थे। हमने सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी।
बस !! लगा संदेश बाक्स घनघनाने, आने लगे चित्र पर चित्र, कविताओं पर कविताएं, प्रशंसा के अम्बार, रात दस बजे मैसेंजर बजने लगा। मेरी वाॅल से मेरी ही फ़ोटो उठा-उठाकर मेरे संदेश बाक्स में आने लगीं। समझाया, लिखा, कहा पर कोई प्रभाव नहीं।
वेसे तो हम ऐसे मित्रों को Block कर देते हैं किन्तु इस बार एक नया उपाय सूझा।
हमने अपना आधार कार्ड भेज दिया,
अब हम Blocked हैं।
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सखियाँ झूला झूलें
हिलमिल सखियाँ झूला झूलें
कभी धरा, कभी गगन छू लें
फुहारें मन मुदित कर रहीं
खुशियों के भर-भर घूंट पी लें
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हम सब तो बस बन्दर हैं
नाचते तो सभी हैं
बस
इतना ही पता नहीं लगता
कि डोरी किसके हाथ में है।
मदारी कौन है और बन्दर कौन।
बहुत सी गलतफहमियां रहती हैं मन में।
खूब नाचते हैं हम
यह सोच कर , कि देखों
कैसा नाच नचाया हमने सामने वाले को।
लेकिन बहुत बाद में पता लगता है कि
नाच तो हम ही रहे थे
और सामने वाला तो तमाशबीन था।
किसके इशारे पर
कब कौन नाचता है
और कौन नचाता है पता ही नहीं लगता।
इशारे छोड़िए ,
यहां तो लोग
उंगलियों पर नचा लेते हैं
और नाच भी लेते हैं।
और भक्त लोग कहते हैं
कि डोरी तो उपर वाले के हाथ में है
वही नचाता है
हम सब तो बस बन्दर हैं।
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कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्दगी
हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्दगी
कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी
ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
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मानव के धोखे में मत आ जाना
समझाया था न तुझको
जब तक मैं न लौटूं
नीड़ से बाहर मत जाना
मानव के
धोखे में मत आ जाना।
फैला चारों ओर प्रदूषण
कहीं चोट मत खा जाना।
कहां गये सब संगी साथी
कहां ढूंढे अब उनको।
समझाकर गई थी न
सब साथ-साथ ही रहना।
इस मानव के धोखे में मत आ जाना।
उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे
कहां बनाएं नीड़।
न फल मिलता है
न जल मिलता है
न कोई डाले चुग्गा।
हाथों में पिंजरे है
पकड़ पकड़ कर हमको
इनमें डाल रहे हैं
कोई अभयारण्य बना रहे हैं,
परिवारों से नाता टूटे
अपने जैसा मान लिया है।
फिर कहते हैं, देखो देखो
हम जीवों की रक्षा करते हैं।
चलो चलो
कहीं और चलें
इन शहरों से दूर।
करो उड़ान की तैयारी
हमने अब यह ठान लिया है।
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दिखाने को अक्सर मन हंसता है
चोट कहां लगी थी,
कब लगी थी,
कौन बतलाए किसको।
दिल छोटा-सा है
पर दर्द बड़ा है,
कौन बतलाए किसको।
गिरता है बार-बार,
और बार-बार सम्हलता है।
बहते रक्त को देखकर
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
मन की बात कह ले पगले,
कौन समझाए उसको।
न डर कि कोई हंसेगा,
या साथ न देगा कोई।
ऐसे ही दुनिया चलती है,
जीवन ऐसे ही चलता है,
कौन समझाए उसको।
आंसू भीतर-भीतर तिरते हैं,
आंखों में मोती बनते हैं,
तिनका अटका है आंख में,
कहकर,
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
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बसन्त
आज बसन्त मुझे
कुछ उदास लगा
रंग बदलने लगे हैं।
बदलते रंगों की भी
एक सुगन्ध होती है
बदलते भावों के साथ
अन्तर्मन को
महका-महका जाती है।
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कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।