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कच्चे घड़े-सी होती हैं
ये युवतियां।
घड़ों पर रचती कलाकृति
न जाने क्या सोचती हैं
ये युवतियां।
रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित
श्रृंगार का रूप होती हैं
ये युवतियां।
रंग सदा रंगीन नहीं होते
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
हाट सजता है,
बाट लगता है,
ठोक-बजाकर बिकता है,
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कला-संस्कृति के नाम पर
बैठक की सजावट बनते हैं]
सजते हैं घट
और चाहिए एक ओढ़नी
जानती हैं सब
केवल, ये युवतियां।
बातें आसमां की करते हैं
पर इनके जीवन में तो
ठीक से धरा भी नहीं है
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कच्चे घड़ों की ज़िन्दगी
होती है छोटी
इस बात को
सबसे ज़्यादा जानती हैं
ये युवतियां।
चाहिए जल की तरलता, शीतलता
किन्तु आग पर सिंक कर
पकते हैं घट
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
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धरा पर उतर
चांद को छू ले
एक बार,
फिर धरा पर उतर,
पांव रख।
आज मैं साथ तेरे
कल अकेले
तुझे आप ही
सारी सीढि़यां नापनी होंगी।
जीवन में सीढि़यां चढ़
सहज-सहज
चांद आप ही
तेरे लिए
धरा पर उतर आयेगा।
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आनन्द के कुछ पल
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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बोध
बोध
खण्डित दर्पण में चेहरा देखना
अपशकुन होता है
इसलिए तुम्हें चाहिए
कि तुम
अपने इस खण्डित दर्पण को
खण्ड-खण्ड कर लो
और हर टुकड़े में
अपना अलग चेहरा देखो।
फिर पहचानकर
अपना सही चेहरा अलग कर लो
इससे पहले
कि वह फिर से
किन्हीं गलत चेहरों में खो जाये।
असलियत तो यह
कि हर टुकड़े का
अपना एक चेहरा है
जो हर दूसरे से अलग है
हर चेहरा एक टुकड़ा है
जो दर्पण में बना करता है
और तुम, उस दर्पण में
अपना सही चेहरा
कहीं खो देते हो
इसलिए तुम्हें चाहिए
कि दर्पण मत संवरने दो।
पर अपना सही चेहरा अलगाते समय
यह भी देखना
कि कभी-कभी, एक छोटा-टुकड़ा
अपने में
अनेक चेहरे आेढ़ लिया करता है
इसलिए
अपना सही अलगाते समय
इतना ज़रूर देखना
कि कहीं तुम
गलत चेहरा न उठा डालो।
आश्चर्य तो यह
कि हर चेहरे का टुकड़ा
तुम्हारा अपना है
और विडम्बना यह
कि इन सबके बीच
तुम्हारा सही चेहरा
कहीं खो चुका है।
ढू्ंढ सको तो अभी ढूंढ लो
क्योंकि दर्पण बार-बार नहीं टूटा करते
और हर खण्डित दर्पण
हर बार
अपने टुकड़ों में
हर बार चेहरे लेकर नहीं आया करता
टूटने की प्रक्रिया में
अक्सर खरोंच भी पड़ जाया करती है
तब वह केवल
एक शीशे का टुकड़ा होकर रह जाता है
जिसकी चुभन
तुम्हारे अलग-अलग चेहरों की पहचान से
कहीं ज़्यादा घातक हो सकती है।
जानती हूं,
कि टूटा हुआ दर्पण कभी जुड़ा नहीं करता
किन्तु जब भी कोई दर्पण टूटता है
तो मैं भीतर ही भीतर
एक नये सिरे से जुड़ने लगती हूं
और उस टूटे दर्पण के
छोटे-छोटे, कण-कण टुकड़ों में बंटी
अपने-आपको
कई टुकड़ों में पाने लगती हूं।
समझने लगती हूं
टूटना
और टूटकर, भीतर ही भीतर
एक नये सिरे से जुड़ना।
टूटने का बोध मुझे
सदा ही जोड़ता आया है।
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रोशनी की परछाईयां भी राह दिखा जाती हैं
अजीब है इंसान का मन।
कभी गहरे सागर पार उतरता है।
कभी
आकाश की उंचाईयों को
नापता है।
ज़िन्दगी में अक्सर
रोशनी की परछाईयां भी
राह दिखा जाती हैं।
ज़रूरी नहीं
कि सीधे-सीधे
किरणों से टकराओ।
फिर सूरज डूबता है,
या चांद चमकता है,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ज़िन्दगी में,
कोई एक पल
तो ऐसा होता है,
जब सागर-तल
और गगन की उंचाईयों का
अन्तर मिट जाता है।
बस!
उस पल को पकड़ना,
और मुट्ठी में बांधना ही
ज़रा कठिन होता है।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-
कविता सूद 1.10.2020
चित्र आधारित रचना
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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जग में न मिला अपनापन
सुख के दिन बीते, दुख के बीहड़ में नहीं दिखता अपनापन।
अपने सब दूर हुए, दृग तरसें, ढूंढे जग में न मिला अपनापन।
द्वार बन्द मिले, पहचान खो गई, दूर तलक न मिला कोई,
सत्य को जानिए, आप ही बनिए हर हाल में अपना संकटमोचन।
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आत्मनिर्भर हूं
देशभक्ति बस राजगद्दी पर बैठे लोगों की बपौती नहीं है
तिरंगा बेचती हूं,आत्मनिर्भर हूं,कोई फिरौती नहीं है
भिक्षा नहीं,दान नहीं,दया नहीं,आत्मग्लानि भी नहीं
पीड़ा नहीं कि शिक्षित नहीं हैं,मुस्कानों में कटौती नहीं है
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कैसे आया बसन्त
बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता
कि वर्ष, तिथि, दिन बदले
और लीजिए
आ गया बसन्त।
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मन के उपवन में
सुमधुर भावों की रिमझिम
कुछ ओस की बूंदें बहकीं
कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग
कहीं दूर कोयल कूक उठी।
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सुना है अच्छे दिन आने वाले हैं
सुना है
किसी वंशी की धुन पर
सारा गोकुल
मुग्ध हुआ करता था
ग्वाल-बाल, राधा-गोपियां
नृत्य-मग्न हुआ करते थे।
वे
हवाओं से बहकने वाले
वंशी के सुर
आज लाठी पर अटक गये
जीवन की धूप में
स्वर बहक गये
नृत्य-संगीत की गति
ठहर-ठहर-सी गई
खिलखिलाती गति
कुछ रूकी-सी
मुस्कानों में बदल गई
दूर कहीं भविष्य
देखती हैं आंखें
सुना है
कुछ अच्छे दिन आने वाले हैं
क्यों इस आस में
बहकती हैं आंखें
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मन गीत गुने
मृदंग बजे
सुर-साज सजे
मन-मीत मिले
मन गीत गुने
निर्जन वन में
वन-फूल खिले
अबोल बोले
मन-भाव बने
इस निर्जन में
इस कथा कहे
अमर प्रेम की