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एक सपने में जीती हूं,
अंधेरे में रोशनी ढूंढती हूं।
बहारों की आस में,
कुछ पुष्प लिए हाथ में,
दिन-रात को भूलती हूं।
काल-चक्र घूमता है,
मुझसे कुछ पूछता है,
मैं कहां समझ पाती हूं।
कुछ पाने की आस में
बढ़ती जाती हूं।
गगन-धरा पुकारते हैं,
कहते हैं
चलते जाना, चलते जाना
जीवन-गति कभी ठहर न पाये,
चंदा-सूरज से सीख लेना
तारों-सा टिमटिमाना,
अवसर है अकेलापन
अपनी तलाश का ,
अपने को पहचानने का,
अपने-आप में
अपने लिए जीने का।
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ऐसा नहीं होता मेरे मालिक
कर्म न करना,
परिश्रम न करना,
धर्म न निभाना
बस राम-नाम जपना।
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आंखें बन्द कर लेने से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
राम-नाम जपने से
समस्या हल नहीं हो जाती।
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कुछ चरित्र हमें राह दिखाते हैं।
सन्मार्ग पर चलाते हैं।
किन्तु उनका नाम लेकर
हाथ पर हाथ धरे
बैठने को नहीं कहते हैं।
.
बुद्धि दी, समझ दी,
दी हमें निर्माण-विध्वंस की शक्ति।
दुरुपयोग-सदुपयोग हमारे हाथ में था।
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भूलें करें हम,
उलट-पुलट करें हम,
और जब हाथ से बाहर की बात हो,
तो हे राम ! हे राम!
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ऐसा नहीं होता मेरे मालिक।
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कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।
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जब लहराता है तिरंगा
एक भाव है ध्वजा,
देश के प्रति साख है ध्वजा।
प्रतीक है,
आन का, बान का, शान का।
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तीन रंगों से सजा,
नारंगी, श्वेत, हरा
देते हमें जीवन के शुद्ध भाव,
शक्ति, साहस की प्रेरणा,
सत्य-शांति का प्रतीक,
धर्म चक्र से चिन्हित,
प्रकृति, वृद्धि एवं शुभता
की प्रेरणा।
भाव है अपनत्व का।
शीश सदा झुकता है
शीष सदा मान से उठता है,
जब लहराता है तिरंगा।
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जीवन यूं ही चलता है
पीतल की एक गगरी होती
मुस्कानों की नगरी होती
सुबह शाम की बात यह होती
जल-जीवन की बात यह होती
जीवन यूं ही चलता है
कुछ रूकता है, कुछ बहता है
धूप-छांव सब सहता है।
छोड़ो राहें मेरी
मां देखती राह,
मुझको पानी लेकर
जल्दी घर जाना है
न कर तू चिन्ता मेरी
जीवन यूं ही चलता है
सहज-सहज सब लगता है।
कभी हंसता है, कभी सहता है।
न कर तू चिन्ता मेरी।
सहज-सहज सब लगता है।
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कुहुक-कुहुक करती
चीं चीं चीं चीं करती दिन भर, चुपकर दाना पानी लाई हूं, ले खा
निकलेंगे तेरे भी पंख सुनहरे लम्बी कलगी, चल अब खोखर में जा
उड़ना सिखलाउंगी, झूमेंगे फिर डाली-डाली, नीड़ नया बनायेंगे
कुहुक-कुहुक करती, फुदक-फुदक घूमेगी, अब मेरी जान न खा
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एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने
उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
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ताकता रह जाता है मानव
लहरें उठ रहीं
आकाश को छूने चलीं
बादल झुक रहे
लहरों को दुलारते
धरा को पुकारते।
गगन और धरा पर
जल और अनिल
उलझ पड़े
बदरी रूठ-रूठ उमड़ रही
रंग बदरंग हो रहे
कालिमा घिर रही
बवंडर उठ रहे
ताकता रह जाता है मानव।
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मन मिलते हैं
जब हाथों से हाथ जुड़ते हैं
जीवन में राग घुलते हैं
रिश्तों की डोर बंधती है
मन से फिर मन मिलते हैं
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समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
जि़न्दगी बिना जोड़-जोड़ के कहां चली है
करता सब उपर वाला हमारी कहां चली है
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
इसी मैं-मैं के चक्कर में सबकी अड़ी पड़ी है
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बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
मन के मौसम ने करवट सी-ली है
बासन्ती रंगों ने आहट सी-ली है
बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
उनकी नज़रों ने एक चाहत सी-ली है