अपने-आपको अपने साथ ही बांटिये अपने-आप से मिलिए

हम अक्सर सन्नाटे और

शांति को एक समझ बैठते हैं।

 

शांति भीतर होती है,

और सन्नाटा !!

 

बाहर का सन्नाटा

जब भीतर पसरता है

बाहर से भीतर तक घेरता है,

तब तोड़ता है।

अन्तर्मन झिंझोड़ता है।

 

सन्नाटे में अक्सर

कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।

 

हवाएं चीरती हैं

पत्ते खड़खड़ाते हैं,

चिलचिलाती धूप में

बेवजह सनसनाती आवाज़ें,

लम्बी सूनी सड़कें

डराती हैं,

आंधियां अक्सर भीतर तक

झकझोरती हैं,

बड़ी दूर से आती हैं

कुत्ते की रोने की आवाज़ें,

बिल्लियां रिरियाती है।

पक्षियों की सहज बोली

चीख-सी लगने लगती है,

चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।

 

हम वजह-बेवजह

अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,

सोच-समझ

कुंद होने लगती है,

तब शांति की तलाश में निकलते हैं

किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।

 

कोई न मिले

तो अपने-आपको

अपने साथ ही बांटिये,

अपने-आप से मिलिए,

लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।

कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये

खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।