खिलता है कुकुरमुत्ता

सुना है मैंने

बादलों की गड़गड़ाहट से

बिजली कड़कने पर

पहाड़ों में

खिलता है कुकुरमुत्ता।

प्रकृति को निरखना

अच्छा लगता है,

सौन्दर्य बांटती है

रंग सजाती है,

मन मुदित करती है,

पर पता नहीं क्यों

तुम्हें

अक्सर पसन्द नहीं करते लोग।

 

अपने-आप से प्रकट होना,

बढ़ना और बढ़ते जाना,

जीवन्तता,

कितनी कठिन होती है,

यह समझते नहीं

तुम्हें देखकर लोग।

 

अपने स्वार्थ-हित

नाम बदल-बदलकर

पुकारते हैं तुम्हें।

 

इस भय से

कि पता नहीं तुमसे

अमृत मिलेगा या विष।

 

कभी अपने भीतर भी

झांककर देख रे इंसान,

कि पता नहीं तुमसे

अमृत मिलेगा या विष।