अपने मन से करके जी

एक अनुभव है मेरा।

कार्यालयों में

अपनी क्षमता से बढ़कर

काम करने वाले,

अपने-आपको

बड़ा तीसमारखां समझते हैं।

 पहले-पहल तो

बड़ा आनन्द मिलता है,

सब चाटुकारिता में लगे रहते हैं

सराहना के पहाड़ खड़े करते हैं,

गुणों की खान बताते हैं

झाड़ पर चढ़ाते हैं

मदद की पुकार लगाते हैं।

अपनी समस्याएॅं बताकर

अपना काम उन पर थोपकर

नट जाते हैं।

मुॅंह पर  खूब बड़ाई करते हैं,

पीठ पीछे न जाने कितनी

पदवियों से सुशोभित करते हैं

और जी भर कर उपहास करते हैं।

किन्तु

जब तक उन्हें

अपना शोषण समझ आने लगता है

तीर, कमान से निकल चुका होता है।

काम के साथ

त्रुटियों का पहाड़ भी उनके ही

सर पर खड़ा होता है।

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 हे नारी!

मेरी बात समझ आई

कि नहीं आई।

उतना कर

जितना कर सके।

कर, लेकिन

मर-मरकर न कर।

अपनी सीमाएॅं बाॅंध।

देवी, दुर्गा, सती, न्यारी-प्यारी

के मोह में न पड़

अबला-सबला,

प्रेम-प्यार की बातें न सुन।

महानता के पदकों से

जीवन नहीं चलता।

तेरे चक्रव्यूह में

सात नहीं सैंकड़ों योद्धा हैं

पहले ही सम्हल ले।

गुणों का घड़ा बड़ी जल्दी फूटता है

अवगुणों का भण्डार हर दम भरता है।

और एक बार भर जाये

फिर जीवन-भर नहीं उतरता है।

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अपने लिए भी जी

लम्बी तान कर अपने मन से जी

जी भरकर जी,

पीठ पर बोझा लाद-लादकर न जी

मुट्ठियाॅं बाॅंधकर रख

मन से जी, अपने मन से जी

सबकी सुन

लेकिन अपने मन से करके जी।