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भाव तिरंगे के
बालमन भी समझ गये हैं भाव तिरंगे के
केशरी, श्वेत, हरे रंगों के भाव तिरंगे के
गर्व से शीश उठता है, देख तिरंगे को
शांति, सत्य, अहिंसा, प्रेम भाव तिरंगे के
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न आंख मूंद समर्थन कर
न आंख मूंद समर्थन कर किसी का, बुद्धि के दरवाज़े खोल,
अंध-भक्ति से हटकर, सोच-समझकर, मोल-तोलकर बोल,
कभी-कभी सूरज को भी दीपक की रोशनी दिखानी पड़ती है,
चेत ले आज, नहीं तो सोचेगा क्यों नहीं मैंने बोले निडर सच्चे बोल
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कुछ तो हुआ होगा
कुछ तो हुआ होगा
जो हाथों में मशालें उठीं
कुछ तो किया होगा
जो सड़कों पर आहें उगीं
कुछ तो जला होगा
जो नारों से गलियां गूंजीं
कुछ तो सहा होगा
जो शहर-शहर भीड़ उमड़ी
इतना आसान नहीं लगता मुझे
कि शहर-शहर
किसी एक बात को लेकर
किसी को यूं भड़काया जा सके
युवक ही नहीं
युवतियों को भी उकसाया जा सके
पुस्तकालयों में पढ़ते बच्चे
कैसे सड़कों पर आ बैठे
नहीं जानते हम, नहीं पढ़ते हम
नहीं समझते हम
सुनी-सुनाई, अधकचरी सूचनाओं से
भड़कते हम।
बस , कचरा परोसा जा रहा
गली-गली परनाले बहते
हम उसे उंडेल उंडेल कर
नाक सिकुड़ते, भौं मरोड़ते
सच्चाई के पीछे भागते
तो हाथ जलते
कहां से शुरू हो रहा
और कहां होगा अन्त
नहीं जानते हम।
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एक डर में जीते हैं हम
उन्नति के शिखर पर बैठकर भी
अक्सर एक अभाव-सा रह जाता है,
पता नहीं लगता
क्या खोया
और क्या, कैसे पाया।
एक डर में जीते हैं,
न जाने कहां
पांव फिसल जायें
और
आरम्भ करना पड़े
एक नया सफ़र।
अपनी ही सफ़लताओं का
आनन्द नहीं लेते हम।
एक डर में जीते हैं हम।
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प्रकृति का सौन्दर्य
फूलों पर मंडराती तितली को मदमाते देखा
भंवरे को फूलों से गुपचुप पराग चुराते देखा
सूरज की गुनगुनी धूप, चंदा से चांदनी आई
हमने गिरगिट को कभी न रंग बदलते देखा
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आज हम जीते हैं अपने हेतु बस अपने हेतु
मंदिरों की नींव में
निहित होती हैं हमारी आस्थाएं।
द्वार पर विद्यमान होती हैं
हमारी प्रार्थनाएं।
प्रांगण में विराजित होती हैं
हमारी कामनाएं।
और गुम्बदों पर लहराती हैं
हमारी सदाएं।
हम पत्थरों को तराशते हैं।
मूर्तियां गढ़ते हैं।
रंग−रूप देते हैं।
सौन्दर्य निरूपित करते हैं।
नेह, अपनत्व, विश्वास और श्रद्धा से
श्रृंगार करते हैं उनका।
और उन्हें ईश्वरीय प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।
करते –करते कर लिए हमने
चौरासी करोड़ देवी –देवता।
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समय –प्रवाह में मूत्तियां खण्डित होने लगती हैं ।
और खण्डित मू्र्तियों की पूजा का विधान नहीं है।
खण्डित मू्र्तियों को तिरोहित कर दिया जाता है
कहीं जल –प्रवाह में।
और इन खण्डित होती मू्र्तियों के साथ ही
तिरोहित होने लगती हैं
हमारी आस्थाएं, विश्वास, अपनत्व और नेह।
श्रद्धा और विश्वास अंधविश्वास हो गये।
आस्थाएं विस्थापित होने लगीं
प्रार्थनाएं बिखरने लगीं
सदाएं कपट हो गईं
और मन –मन्दिर ध्वस्त हो गये।
उलझने लगे हम, सहमने लगे हम,
डरने लगे हम, बिखरने लगे हम,
अपनी ही कृतियों से, अपनी ही धर्मिता से
बंटने–बांटने लगे हम।
और आज हम जीते हैं अपने हेतु
बस अपने हेतु।
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बस बातें करने में उलझे हैं हम
किस विवशता में कौन है, कहां है, कब समझे हैं हम।
दिखता कुछ और, अर्थ कुछ और, नहीं समझे हैं हम।
मां-बेटे-से लगते हैं, जीवनगत समस्याओं में उलझे,
नहीं इनका मददगार, बस बातें करने में उलझे हैं हम।
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हां, मैं हूं कुत्ता
एक कुत्ते ने
फेसबुक पर अपना चित्र देखा,
और बड़बड़ाया
इस इंसान को देखो
फेसबुक पर भी मुझे ले आया।
पता नहीं क्या-क्या कह डालेगा मेरे बारे मे।
दुनिया-जहां में तो
नित्यप्रति मेरी कहानियां
गढ़-गढ़कर समय बिताता है।
पता नहीं कितने मुहावरे
बनाये हैं मेरे नाम से,
तरह तरह की बातें बनाता है।
यह तो शिष्ट-सभ्य,
सुशिक्षित बुद्धिजीवियों का मंच है,
मैं अपने मन की पीड़ा
यहां कह भी तो नहीं सकता।
कोई टेढ़ी पूंछ के किस्से सुनाता है,
तो कोई स्वामिभक्ति के गुण गाता है।
कोई तलुवे चाटने की बात करता है
तो कोई बेवजह ही दुत्कारता है।
किसी को मेरे भाग्य से ईर्ष्या होती है
तो कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए
मुझे लात मारकर चला जाता है।
और महिलाओं के हाथ में
मेरा पट्टा देखकर तो
मेरी भांति ही लार टपकाता है।
बची बासी रोटी डालने से
कोई नहीं हिचकिचाता है।
बस,आज तक
एक ही बात समझ नहीं आई
कि मैं कुत्ता हूं, जानता हूं,
फिर मुझे कुत्ता-कुत्ता कहकर क्यों चिड़ाता है।
और हद तो तब हो गई
जब अपनी तुलना मेरे साथ करने लगता है।
बस, तभी मेरा मन
इस इंसान को
काट डालने का करता है।
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अन्त होता है ज़िन्दगी की चालों का
स्याह-सफ़ेद
प्यादों की चालें
छोटी-छोटी होती हैं।
कदम-दर-कदम बढ़ते,
राजा और वज़ीर को
अपने पीछे छुपाये,
बढ़ते रहते हैं,
कदम-दर-कदम,
मानों सहमे-सहमे।
राजा और वज़ीर
रहते हैं सदा पीछे,
लेकिन सब कहते हैं,
बलशाली, शक्तिशाली
होता है राजा,
और वजीर होता है
सबसे ज़्यादा चालबाज़।
फिर भी ये दोनों,
प्यादों में घिरे
घूमते, बचते रहते हैं।
किन्तु, एक समय आता है
प्यादे चुक जाते हैं,
तब दो-रंगे,
राजा और वज़ीर,
आ खड़े होते हैं
आमने-सामने।
ऐसे ही अन्त होता है
किसी खेल का,
किसी युद्ध का,
या किसी राजनीति का।