सुन्दर है संसार
जीवन में
बहुत कुछ अच्छा मिलता है,
तो बुरा भी।
आह्लादकारी पल मिलते हैं,
तो कष्टों को भी झेलना पड़ता है।
सफ़लता आंगन में
कुलांचे भरती है,
तो कभी असफ़लताएं
देहरी के भीतर पसरी रहती हैं।
छल और प्रेम
दोनों जीवन साथी हैं।
कभी मन में
डर-डर कर जीता है,
तो कभी साहस की सीढ़ियां
हिमालय लांघ जाती हैं।
जीवन में खट्टा-मीठा सब मिलता है,
बस चुनना पड़ता है।
और प्रकृति के अद्भुत रूप तो
पल-पल जीने का
संदेश दे जाते हैं,
बस समझने पड़ते हैं।
एक सौन्दर्य
हमारे भीतर है,
एक सौन्दर्य बाहर।
दोनों को एक साथ जीने में
सुन्दर है संसार।
कामना मेरी
और सुन्दर हो संसार।
कौन जाने सूरज उदित हुआ या अस्त
उस दिन जैसे ही सूरज डूबा,
अंधेरा होते ही
सामने के सारे पहाड़ समतल हो गये।
वैसे भी हर अंधेरा
समतल हुआ करता है,
और प्रकाश सतरंगा।
अंधेरा सुविधा हुआ करता है,
औेर प्रकाश सच्चाई।
-
तुम चाहो तो अपने लिए
कोई भी रंग चुन लो।
हर रंग एक आकाश हुआ करता है,
एक अवकाश हुआ करता है।
मैं तो
बस इतना जानती हूं
कि सफ़ेद रंग
सात रंगों का मिश्रण।
यह एकता, शांति
और समझौते का प्रतीक,
-आधार सात रंग।
अतः बस इतना ध्यान रखना
कि सफे़द रंग तक पहुंचने के लिए
तुम्हें सभी रंगों से गुज़रना होगा।
-
पता नहीं सबने कैसे मान लिया
कि सूरज उगा करता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को डूबते ही देखा।
हर ओर पश्चिम ही पश्चिम है,
और हर कदम
अंधेरे की ओर बढ़ता कदम।
-
मैं अक्सर चाहती हूं
कि कभी दिन रहते सूरज डूब जाये,
और दुनिया के लिए
खतरा उठ खड़ा हो।
-
सच कहना
क्या कभी तुमने सूरज उगता देखा है?
-
अगर तुमने कभी
सूरज को
उपर की ओर
आकाश की ओर बढ़ता देख लिया,
आग, तपिश और रोशनी थी उसमें
बस !
इतने से ही तुमने मान लिया
कि सूरजा उग आया।
-
हर चढ़ता सूरज
मंजिल नहीं हुआ करता।
पता नहीं कब दिन ढल जाये।
और कभी-कभी तो सूरज चढ़ता ही नहीं,
और दिन ढल जाता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को ढलते ही देखा।
-
डूबते सूरज की पहचान,
अंधेरे से रोशनी की ओर,
अतल से उपर की ओर।
इसीलिए
मैंने तो जब भी देखा,
सूरज को डूबते ही देखा।
-
हर डूबता दिन,
उगते तारे,
एक नये आने वाले दिन का,
एक नयी जिंदगी का,
संदेश दे जाते हैं।
जाने वाले क्षण
आने वाले क्षणों के पोषक,
बता जाते हैं कि शाम केवल डूबती नहीं,
हर डूबने के पीछे
नया उदय ज़रूरी है।
हर शाम के पीछे
एक सुबह है,
और चांद के पीछे सूरज -
सूरज को तो डूबना ही है,
पर एक उदय का सपना लेकर ।
पतझड़
हरे पत्ते अचानक
लाल-पीले होने लगते हैं।
नारंगी, भूरे,
और गाढ़े लाल रंग के।
हवाएं डालियों के साथ
मदमस्त खेलती हैं,
झुलाती हैं।
पत्ते आनन्द-मग्न
लहराते हैं अपने ही अंदाज़ में।
हवाओं के संग
उड़ते-फ़िरते, लहराते,
रंग बदलते,
छूटते सम्बन्ध डालियों से।
शुष्कता उन्हें धरा पर
ले आती है।
यहां भी खेलते हैं
हवाओं संग,
बच्चों की तरह उछलते-कूदते
उड़ते फिरते,
मानों छुपन-छुपाई खेलते।
लोग कहते हैं
पतझड़ आया।
लेकिन मुझे लगता है
यही जीवन है।
और डालियों पर
हरे पत्ते पुनः अंकुरण लेने लगते हैं।
अन्त होता है ज़िन्दगी की चालों का
स्याह-सफ़ेद
प्यादों की चालें
छोटी-छोटी होती हैं।
कदम-दर-कदम बढ़ते,
राजा और वज़ीर को
अपने पीछे छुपाये,
बढ़ते रहते हैं,
कदम-दर-कदम,
मानों सहमे-सहमे।
राजा और वज़ीर
रहते हैं सदा पीछे,
लेकिन सब कहते हैं,
बलशाली, शक्तिशाली
होता है राजा,
और वजीर होता है
सबसे ज़्यादा चालबाज़।
फिर भी ये दोनों,
प्यादों में घिरे
घूमते, बचते रहते हैं।
किन्तु, एक समय आता है
प्यादे चुक जाते हैं,
तब दो-रंगे,
राजा और वज़ीर,
आ खड़े होते हैं
आमने-सामने।
ऐसे ही अन्त होता है
किसी खेल का,
किसी युद्ध का,
या किसी राजनीति का।
मन में बसन्त खिलता है
जीवन में कुछ खुशियां
बसन्त-सी लगती हैं।
और कुछ बरसात के बाद
मिट्टी से उठती
भीनी-भीनी खुशबू-सी।
बसन्त के आगमन की
सूचना देतीं,
आती-जाती सर्द हवाएं,
झरते पत्तों संग खेलती हैं,
और नव-पल्ल्वों को
सहलाकर दुलारती हैं।
पत्तों पर झूमते हैं
तुषार-कण,
धरती भीगी-भीगी-सी
महकने लगती है।
फूलों का खिलना
मुरझाना और झड़ जाना,
और पुनः कलियों का लौट आना,
तितलियों, भंवरों का गुनगुनाना,
मन में यूं ही
बसन्त खिलता है।
मन उदास क्यों है
कभी-कभी
हम जान ही नहीं पाते
कि मन उदास क्यों है।
और जब
उदास होती हूं,
तो चुप हो जाती हूं अक्सर।
अपने-आप से
भीतर ही भीतर
तर्क-वितर्क करने लगती हूं।
तुम इसे, मेरी
बेबात की नाराज़गी
समझ बैठते हो।
न जाने कब के रूके आंसू
आंखों की कोरों पर आ बैठते हैं।
मन चाहता है
किसी का हाथ
सहला जाये इस अनजाने दर्द को।
लेकिन तुम इसे
मेरा नाराज़गी जताने का
एहसास कराने का
नारीनुमा तरीका मान लेते हो।
.
पढ़ लेती हूं
तुम्हारी आंखों में
तुम्हारा नज़रिया,
तुम्हारे चेहरे पर खिंचती रेखाएं,
और तुम्हारी नाराज़गी।
और मैं तुम्हें मनाने लगती हूं।
मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द
सुना है मैंने,
रेत पर घरौंदे नहीं बनते।
धंसते हैं पैर,
कदम नहीं उठते।
.
वैसे ऐसा भी नहीं
कि नामुमकिन हो यह।
सीखते-सीखते
सब सीख जाता है इंसान,
‘गर मज़बूरी हो
या जिद्द।
.
मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द,
और जब जिद्द हो,
तो रेत क्या
और पानी क्या,
घरौंदे भी बनते हैं ,
पैर भी चलते हैं,
और ऐसे ही कारवां भी बनते हैं।
कभी कुछ नहीं बदलता
एक वर्ष
और गया मेरे जीवन से।
.
अथवा
यह कहना शायद
ज़्यादा अच्छा लगेगा,
कि
एक वर्ष
और मिला जीने के लिए।
.
जीवन एक रेखा है,
जिस पर हम
बढ़ते हैं,
चलते तो आगे हैं,
पर पता नहीं क्यों,
पीछे मुड़कर
देखने लगते हैं।
.
समस्याओं,
उलझनों से जूझते,
बीत रहा था 2020।
जैसे रोज़, हर रोज़
प्रतीक्षा करते थे
एक नये वर्ष की,
खटखटाएगा द्वार।
भीतर आकर
सहलायेगा माथा।
न निराश हो,
आ गया हूं अब मैं
सब बदल दूंगा।
.
पर मुझे अक्सर लगता है,
कभी कुछ नहीं बदलता।
कुछ हेर-फ़ेर के साथ
ज़िन्दगी, दोहराती है,
बस हमारी समझ का फ़ेर है।
नहीं छूटता अतीत
मैं बागवानी तो नहीं जानती।
किन्तु सुना है
कि कुछ पौधे
सीधे नहीं लगते,
उनकी पौध लगाई जाती है।
नर्सरी से उखाड़कर
समूहों में लाये जाते हैं,
और बिखेरकर,
क्यारियों में
रोप दिये जाते हैं।
अपनी मिट्टी,
अपनी जड़ों से उखड़कर,
कुछ सम्हल जाते हैं,
कुछ मर जाते हैं,
और कुछ अधूरे-से
ज़िन्दगी की
लड़ाई लड़ते नज़र आते हैं।
-
हम,
जहां अपने अतीत से,
विगत से,
भागने का प्रयास करते हैं,
ऐसा ही होता है हमारे साथ।
छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी
बस हम समझ ही नहीं पाते
कितनी ही छोटी छोटी खुशियां
हर समय
हमारे आस पास
मंडराती रहती हैं
हमारा द्वार खटखटाती हैं
हंसाती हैं रूलाती हैं
जीवन में रस बस जाती हैं
पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।
आैर इधर
एक आदत सी हो गई है
एक नाराज़गी पसरी रहती है
हमारे चारों ओर
छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन
रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।
उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों
उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।
गर्मी में गर्मी क्यों और शीत ऋतु में ठंडक क्यों
पानी क्यों बरसा
मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी
बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला
ये मंहगाई
गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता
खुशियों को पहचानते नहीं
नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।
चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं
अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।
और अगली सुबह
फिर वही राग अलापते हैं।
मंजी दे जा मेरे भाई
भाई मेरे
मंजी दे जा।
बड़े काम की है यह मंजी।
-
सर्दी के मौसम में,
प्रात होते ही
यह मंजी
धूप में जगह बना लेती है।
सारा दिन
धीरे-धीरे खिसकती रहती है
सूरज के साथ-साथ।
यहीं से
हमारे दिन की शुरूआत होती है,
और यहीं शाम ढलती है।
पूरा परिवार समा जाता है
इस मंजी पर।
कोई पायताने, कोई मुहाने,
कोई बाण पर, कोई तान पर,
कोई नवार पर,
एक-दूसरे की जगह छीनते।
बतंगड़बाजी करते ]
निकलता है पूरा दिन
इसी मंजी पर।
सुबह का नाश्ता
दोपहर की रोटी,
दिन की झपकी,
शाम की चाय,
स्वेटर की बुनाई,
रजाईयों की तरपाई,
कुछ बातचीत, कुछ चुगलाई,
पापड़-बड़ियों की बनाई,
मटर की छिलकाई,
साग की छंटाई,
बच्चों की पढ़ाई,
आस-पड़ोस की सुनवाई।
सब इसी मंजी पर।
-
भाई मेरे, मंजी दे जा।
दे जा मंजी मेरे भाई।
मेरे मन की चांदनी
सुना है मैंने
शरद पूर्णिमा के
चांद की चांदनी से
खीर दिव्य हो जाती है।
तभी तो मैं सोचता था
तुम्हें चांद कह देने से
तुम्हारी सुन्दरता
क्यों द्विगुणित हो जाती है,
मेरे मन की चांदनी
खिल-खिल जाती है।
चंदा की किरणें
धरा पर जब
रज-कण बरसाती हैं,
रूप निखरता है तुम्हारा,
मोतियों-सा दमकता है,
मानों चांदनी की दमक
तुम्हारे चेहरे पर
देदीप्यमान हो जाती है।
कभी-कभी सोचता हूं,
तुम्हारा रूप चमकता है
चांद की चांदनी से,
या चांद
तुम्हारे रूप से रूप चुराकर
चांदनी बिखेरता है।
हवाओं के रंग नहीं होते
हवाओं के रंग नहीं होते,
हवाओं में रंग होते हैं।
भाव होते हैं,
कभी गर्म , कभी सर्द
तो कभी नम होते हैं।
फूलों संग
हवाएं महकती हैं,
मन को दुलारती, सहलाती हैं।
खुली हवाएं
जीना सिखलाती हैं।
कभी हवाओं के संग
बह-बह जाते हैं भाव,
आकांक्षाएं बहकती हैं,
मन उदास हो तो
सर पर हाथ फेर जाती हैं,
आंसुओं को सोखकर
मुस्कान बना जाती हैं।
चेहरे को छूकर
शर्मा कर बिखर-बिखर जाती हैं।
कानों में सन-सन गूंजती
न जाने कितने संदेश दे जाती हैं।
कभी शरारती-सी,
लटें बिखेरती,
कभी उलझाकर चली जाती हैं।
मन की तरह
बदलते हैं हवाओं के रूख,
कभी-कभी
अपना प्रचण्ड रूप भी दिखलाती हैं।
सुना है,
हवाओं के रूख को
अपने हित में मोड़ना भी एक कला है,
कैसे, यही नहीं समझ पाती हूं।
ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
यादों के पृष्ठ सिलती रही
ज़िन्दगी,
मेरे लिए
यादों के पृष्ठ लिखती रही।
और मैं उन्हें
सबसे छुपाकर,
एक धागे में सिलती रही।
कुछ अनुभव थे,
कुछ उपदेश,
कुछ दिशा-निर्देश,
सालों का हिसाब-बेहिसाब,
कभी पढ़ती,
कभी बिखरती रही।
समय की आंधियों में
लिखावट मिट गई,
पृष्ठ जर्जर हुए,
यादें मिट गईं।
तब कहीं जाकर
मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।
ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं
बहुत कही जाती है एक बात
कि जब
रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,
नहीं आसान होता
उन्हें खोलना, सुलझाना।
कुछ न कुछ निशान तो
छोड़ ही जाती हैं।
लेकिन सच कहूं
मुझे अक्सर लगता है,
जीवन में
कुछ बातों में
गांठ बांधना भी
ज़रूरी होता है।
टूटी डोर को भी
हम यूं ही नहीं जाने देते
गांठे मार-मारकर
सम्हालते हैं,
जब तक सम्हल सके।
ज़िन्दगी कहीं
उससे सस्ती तो नहीं,
फिर क्यों नहीं कोशिश करते,
यहां भी कभी-कभार,
या बार-बार।
छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं
छोटी-सी है अर्चना,
छोटा-सा है भाव।
छोटी-सी है रोशनी।
अर्पित हैं कुछ फूल।
नेह-घृत का दीप समर्पित,
अपनी छाया को निहारे।
तिरते-तिरते जल में
भावों का गहरा सागर।
हाथ जोड़े, आंख मूंदे,
क्या खोया, क्या पाया,
कौन जाने।
छोटी रोशनियां
सदैव आकाश बड़ा देती हैं,
हवाओं से जूझकर
आभास बड़ा देती हैं।
सहज-सहज
जीवन का भास बड़ा देती हैं।
एक वृक्ष बरगद का सपना
मेरे आस-पास
एक बंजर है - रेगिस्तान।
मैंने अक्सर बीज बोये हैं।
पर वर्षा नहीं होती।
पर पानी के बिना भी
पता नहीं
कहां से नमी पाकर
अक्सर
हरी-हरी, विनम्र, कोमल-सी
कांेपल उग आया करती है
एक वृक्ष बरगद का सपना लेकर।
लेकिन वज्रपात !
इस बेमौसम
ओलावृष्टि का क्या करूं
जो सब-कुछ
छिन्न-भिन्न कर देती है।
पर मैं
चुप बैठने वाली नहीं हूं।
निरन्तर बीज बोये जा रही हूं।
यह निमन्त्रण है।
प्यार इकरार की बात होती है
सुना है
चांदनी रात में
इश्क-मुहब्बत की
बहुत बात होती है।
प्यार भरे दिलों के
इज़हार की बात होती है।
पर हमारे साथ तो
सदा ही बहुत बेइंसाफ़ी होती है।
क्या करें,
जब भी अपने मन में
प्यार-इकरार की बात होती है,
आकाश पर न जाने कहां से
बादलों के
गड़गड़ाने की आवाज़ होती है।
हमारी हर
चांदनी रात, सदा ही
यूं ही बरबाद होती है।
कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर
जीवन एक बहती धारा है, जब चाहे, नित नई राहें बदले
कभी दुख की घनघोर घटाएं, कभी सरस-सरस घन बरसें
पल-पल साथी बदले, कोई छूटा, कभी नया मीत मिला
कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर यही जीवन है, पगले
जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं
एक बार हमारा आतिथेय स्वीकार करके तो देखो
आनन्दित होकर ही जायेंगे, विश्वास करके तो देखो
मन-उपवन में रंग-बिरंगे भावों की बगिया महकी है
जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं संग-संग गाकर तो देखो
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,
जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी
भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
गत-आगत के मोह से जुड़ी है ज़िन्दगी
स्मृतियों के जोड़ पर खड़ी है ज़िन्दगी
मीठी-खट्टी जो भी हैं, हैं तो सब अपनी
जाने किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
जमाना जले तो जलने दो
मौसम आशिकाना है मुहब्बत की बात करो न
जमाना जले तो जलने दो इकरार से डरो न
उम्र की बात न करना मेरे साथ, जी जलता है
नहीं समझ आती मेरी बात तो बाबा बन के मरो न
राहें जिन्दगी की खूबसरत हैं
जिन्दगी कोई शतरंज नहीं कि चाल चलकर मात हो
जिन्दगी कोई ख्वाब नहीं कि सपनों में हर बात हो
राहें जिन्दगी की खूबसरत हैं साथ साथ चलते रहें
जिन्दगी कोई रण नहीं कि बात बात पर प्रतिघात हो
नदिया की धार-सी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है ज़िन्दगी
जीवन का आनन्द है कुछ लाड़ में, कुछ तकरार में
अपनों से कभी न कोई गिला, न जीत में न हार में
नदिया की धार-सी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है ज़िन्दगी
रूठेंगे अगर कभी तो मना ही लेंगे हम प्यार से
कहीं हम अपने को ही छलते हैं
ज़िन्दगी की गठजोड़ में अनगिनत सपने पलते हैं
कुछ देखे-अनदेखे पल जीवन-भर साथ चलते हैं
समझ नहीं पाते क्या खोया, क्या पाया, कहां गया
इस नासमझी में कहीं हम अपने को ही छलते हैं
गीत नेह के गुनगुनाएं
सम्बन्धों को संवारने के लिए बस छोटे-छोटे गठजोड़ कीजिए
कुछ हम झुकें कुछ तुम झुको, इतनी-सी पुरज़ोर कोशिश कीजिए
हाथ थामें, गीत नेह के गुनगुनाएं, मधुर तान छेड़, स्वर मिलाएं,
मिलने-मिलाने की प्रथा बना लें, चाहे जैसे भी जोड़-तोड़ कीजिए
जीवन के प्रश्नपत्र में
जीवन के प्रश्नपत्र में कोई प्रश्न वैकल्पिक नहीं होते
जीवन के प्रश्नपत्र के सारे प्रश्न कभी हल नहीं होते
किसी भाषा में क्या लिख डाला, अनजाने से बैठे हम
इस परीक्षा में तो नकल के भी कोई आसार नहीं होते