तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं

तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं

उदास बैठी तुम भाती नहीं

कभी तुम्हें यूं देखा नहीं

एकान्‍तवासी

मौन, गम्भीर, चिन्तित।

लौट आओ

ज़रा अपने अंदाज़ में

तुम्हारी किटकिटकुटकुट

डाल डाल फांदती

छुप्पनछुपाई खेलती

कूदती भागती,

पेड़ों के कोटर से झांकती,

यही अंदाज़ भाता है तुम्हारा।

गुनगुनाती हो

हंसती खिलखिलाती हो मेरे भीतर

जीवन को राग रंग देती हो।

कैसे समझाउं तुम्हें

न तुम मेरी बोली समझती हो

न मैं तुम्हारी।

क्या था, क्या हो गया, क्या होगा

कहां वश रह गया हमारा

चलो, लौट आओ तो ज़रा अपने रंग में।