ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक

वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया

शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया

जब बजता था डमरू

कहलाते शिव भोले-भाले थे 
पर गरल उन्होंने पिया था
नरमुण्डों की माला पहने,
विषधर उनके आभूषण थे 
भूत-प्रेत-पिशाच संगी-साथी
त्रिशूल हाथ में लिया था
त्रिनेत्र खोल जब बजता था डमरू 
तीनों लोकों के दुष्टों का 
संहार उन्होंने किया था
चन्द्र विराज जटा पर,
भागीरथी को जटा में रोक
विश्व को गंगामयी किया था। 
भांग-धतूरा सेवन करते
भभूत लगाये रहते थे।
जग से क्‍या लेना-देना
सुदूर पर्वत पर रहते थे।
 *     *     *     *
अद्भुत थे तुम शिव
नहीं जानती 
कितनी कथाएं सत्य हैं
और कितनी कपोल-कल्पित 
किन्तु जो भी हैं बांधती हैं मुझे। 
*      *     *     *     *
तुम्हारी कथाओं से
बस 
तुम्हारा त्रिनेत्र, डमरू 
और त्रिशूल चाहिए मुझे
शेष मैं देख लूंगी ।

एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में

एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में

मेरे दिमाग में।

आपसे आज साझा करना चाहती हूं।

असमंजस में रहती हूं।

बात कुछ और चल रही होती है

और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।

अब आज की ही बात लीजिए।

नवरात्रों में

मां की चुनरी की बात हो रही थी

और मुझे होलिका की याद हो आई।

अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।

लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।

जब भी चुनरी की बात उठती है

मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,

और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।

कथाओं में पढ़ा है

उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।

शायद वैसी ही कोई चुनरी

जो हम कन्याओं का पूजन करके

उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।

किन्तु कभी देखा है आपने

कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां

और कैसे कैसे उड़ जाती है।

शायद नहीं।

क्योंकि ये सब किस्से कहानियां

इतने आम हो चुके हैं

कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

बात तो माता की चुनरी और

होलिका की चुनरी की कर रही थी

और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।

फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,

पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।

किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही

और एक कन्या

जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।

उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।

और था एक अत्याचारी भाई।

शायद वह जानती भी नहीं थी

भाई के अत्याचारों, अन्याय को

अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।

और अपने वरदान या श्राप को।

लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर

बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।

अग्नि देवता आगे आये थे

प्रह्लाद की रक्षा के लिए।

किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,

और होलिका जल मरी।

वैसे भी चुनरी की आेर

किसी का ध्यान ही कहां जाता है

हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।

और हम !

हमारे लिए एक पर्व हो जाता है

एक औरत जलती है

उसकी चुनरी उड़ती है और हम

आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

अब आग तो बस आग होती है

जलाती है

और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।

अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे

सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,

पवित्र बताया था उसे।

और राम ने अपनाया था।

किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी

घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर

फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।

और वह समा गई थी धरा में

एक आग लिए।

कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।

आग मेरे भीतर भी धधकती है।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

पाप-पुण्य के लेखे में फंसे

इहलोक-परलोक यहीं,स्वर्ग-नरकलोक यहीं,जीवन-मरण भी यहीं

ज़िन्दगी से पहले और बाद कौन जाने कोई लोक है भी या नहीं

पाप-पुण्य के लेखे में फंसे, गणनाएं करते रहे, मरते रहे हर दिन

कल के,काल के डर से,आज ही तो मर-मर कर जी रहे हैं हम यहीं

 

कहते हैं कोई ऊपरवाला है

कहते हैं कोई ऊपरवाला है, सब कुछ वो ही तो दिया करता है

पर हमने देखा है, जब चाहे सब कुछ ले भी तो लिया करता है

लोग मांगते हाथ जोड़-जोड़कर, हरदम गिड़गिड़ाया करते हैं

पर देने की बारी सबसे ज़्यादा टाल-मटोल वही किया करता है

मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं

मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं,नव-नव मन्दिर गढ़ते हैं

अरबों-खरबों की बारिश है,धर्म के गढ़ फिर सजते हैं

आज नहीं तो कल होगा धर्मों का कोई नाम नया होगा

आयुधों पर बैठे हम, कैसी मानवता की बातें करते हैं

 

किस युग में जी रहे हो तुम

मेरा रूप तुमने रचा,

सौन्दर्य, श्रृंगार

सब तुमने ही तो दिया।

मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व

मेरे गुण, या मेरी चमत्कारिता

सब तुम्हारी ही तो देन है।

मुझे तो ठीक से स्मरण भी नहीं

किस युग में, कब-कब

अवतरित हुआ था मैं।

क्यों आया था मैं।

क्या रचा था मैंने इतिहास।

कौन सी कथा, कौन सा युद्ध

और कौन सी लीला।

हां, इतना अवश्य स्मरण है

कि मैंने रचा था एक युग

किन्‍तु समाप्त भी किया था एक युग।

तब से अब तक

हज़ारों-लाखों वर्ष बीत गये।

चकित हूं, यह देखकर

कि तुम अभी भी

उसी युग में जी रहे हो।

वही कल्पनाएं, कपोल-कथाएं

वही माटी, वही बाल-गोपाल

राधा और गोपियां, यशोदा और माखन,

लीला और रास-लीलाएं।

सोचा कभी तुमने

मैंने जब भी

पुन:-पुन: अवतार लिया है

एक नये रूप में, एक नये भाव में

एक नये अर्थ में लिया है।

काल के साथ बदला हूं मैं।

हर बार नये रूप में, नये भाव में

या तुम्हारे शब्दों में कहूं तो

युगानुरूप

नये अवतार में ढाला है मैंने

अपने-आपको।

किन्तु, तुम

आज भी, वहीं के वहीं खड़े हो।

तो इतना जान लो

कि तुम

मेरी आराधना तो करते हो

किन्तु मेरे साथ नहीं हो।

अंधविश्वासों में जीते

कौओं की पंगत लगी

बैठे करें विचार

क्यों न हम सब मिलकर करें

इस मानव का बहिष्कार

किसी पक्ष में हमको पूजे

कभी उड़ायें पत्थर मार।

यूं कहते मुझको काला-काला,

मेरी कां-कां चुभती तुमको

मनहूस नाम दिया है मुझको

और अब मैं तुमको लगता प्यारा।

मुझको रोटी तब डाले हैं

जब तुम पर शामत आन पड़ी,

बासी रोटी, तैलीय रोटी

तुम मुझको खिलाते हो।

अपने कष्ट-निवारण के लिए

मुझे ढूंढते भागे हो।

किसी-किसी के नाम पर

हमें लगाते भोग

अंधविश्वासों में जीते

बाबाओं  के चाटें तलवे

मिट्टी में होते हैं लोट-पोट।

जब ज़िन्दा होता है मानव

तब क्या करते हैं ये लोग।

न चाहिए मुझको तेरी

दान-दक्षिणा, न पूजी रोटी।

मुंडेर तेरी पर कां-कां करता

बच्चों का मन बहलाता हूं।

अपनी मेहनत की खाता हूं।

यह कलियु‍ग है रे कृष्ण

देखने में तो

कृष्ण ही लगते हो

कलियुग में आये हो

तो पीसो चक्की।

न मिलेगी

यहां यशोदा, गोपियां

जो बहायेंगी

तुम्हारे लिए

माखन-दहीं की धार

वेरका का दूध-घी

बहुत मंहगा मिलता है रे!

और पतंजलि का

है तो तुम्हारी गैया-मैया का

पर अपने बजट से बाहर है भई।

तुम्हारे इस मोहिनी रूप से

अब राधा नहीं आयेगी

वह भी

कहीं पीसती होगी

जीवन की चक्की।

बस एक ही

प्रार्थना है तुमसे

किसी युग में तो

आम इंसान बनकर

अवतार लो।

अच्छा जा अब,

उतार यह अपना ताम-झाम

और रात की रोटी खानी है तो

जाकर अन्दर से

अनाज की बोरी ला ।