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क्यों हम
भूलना ही नहीं चाहते
रावण को।
हर वर्ष
कितनी तन्मयता से
स्मरण करते हैं
पुतले बनाते हैं
सजाते हैं
और उनके साथ
कुम्भकरण और मेघनाथ भी
आते हैं
अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित।
नवरात्रों और दशमी पर्व पर
सबसे पहले
रावण को ही
स्मरण करते हैं।
कितना बड़ा मैदान
कैसा मेला
कितने पटाखे
और कितने भव्य हों पुतले।
उस समय
स्मरण ही नहीं आता
कि इस पुतले को
बुराई के प्रतीक के रूप में
बना रहे हैं
जलाने के लिए।
राम और दुर्गा
सब पीछे छूट जाते हैं
और हम
दिनों-दिनों तक याद करते हैं
रावण को,
अह! कितना भव्य था इस बार।
कितनी रौनक थी
और कितना आनन्द आया।
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रिश्तों में
माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।
नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।
इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,
बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।
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हमारा बायोडेटा
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक,
मुक्तक को चतुष्पदी बनाना जानते हैं और ज़रूरत पड़े तो इन सब को गद्य की सभी विधाओं में भी
परिवर्तित करना जानते हैं।
जैसे कृष्ण ने गीता में लिखा है कि वे ही सब कुछ हैं, वैसे ही मैं ही लेखक हूँ ,
मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य पद्य की रचयिता,
कहानी लेखक, प्रकाशक , मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक,
समीक्षक भी मैं ही हूँ ,मैं ही संचालक हूँ , मैं ही प्रशासक हूँ ।
अहं सर्वत्र रचयिते
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दर्दे दिल के निशान
काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।
सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।
दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,
सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।
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सखियाँ झूला झूलें
हिलमिल सखियाँ झूला झूलें
कभी धरा, कभी गगन छू लें
फुहारें मन मुदित कर रहीं
खुशियों के भर-भर घूंट पी लें
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कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि
बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं
पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं
कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी
स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं
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कन्यादान -परम्परा या रूढ़ि
न तो मैं कोई वस्तु थी
न ही अन्न वस्त्र,
और न ही
घर के किसी कोने में पड़ा
कोई अवांछित, उपेक्षित पात्र
तो फिर हे पिता !
दान क्यों किया तुमने मेरा ?
धर्म, संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज़
सब बदल लिए तुमने अपने हित में।
किन्तु मेरे नाम पर
युगों युगों की परम्परा निभाते रहे हो तुम।
मुझे व्यक्तित्व से वस्तु बनाते रहे हो तुम।
दान करके
सभी दायित्वों से मुक्ति पाते रहे थे तुम।
और इस तरह, मुझे
किसी की निजी सम्पत्ति बनाते रहे तुम।
मेरे नाम से पुण्य कमाते रहे थे तुम ।
अपने लिए स्वर्गारोहण का मार्ग बनाते रहे तुम।
तभी तो मेरे लिए पहले से ही
सृजित कर लिये कुछ मुहावरे
“इस घर से डोली उठेगी उस घर से अर्थी”।
पढ़ा है पुस्तकों में मैंने
बड़े वीर हुआ करते थे हमारे पूर्वज
बड़े बड़े युद्ध जीते उन्होंनें
बस बेटियों की ही रक्षा नहीं कर पाते थे।
जौहर करना पड़ता था उन्हें
और तुम उनके उत्तराधिकारी।
युग बदल गये, तुम बदल गये
लेकिन नहीं बदला तो बस
मुझे देखने का तुम्हारा नज़रिया।
कभी बेटी मानकर तो देखो,
मुझे पहचानकर तो देखो।
खुला आकाश दो, स्वाधीनता का भास दो।
अपनेपन का एहसास दो,
विश्वास का आभास दो।
अधिकार का सन्मार्ग दो,
कर्त्तव्य का भार दो ।
सौंपों मत किसी को।
किसी का मेरे हाथ में हाथ दो,
जीवन भर का साथ दो।
अपनेपन का भान दो।
बस थोड़ा सा मान दो
बस दान मत दो। दान मत दो।
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जीवन संवर जायेगा
जब हृदय की वादियों में
ग्रीष्म ऋतु हो
या हो पतझड़,
या उलझे बैठे हों
सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,
तब
प्रकृति के
अपरिमित सौन्दर्य से
आंखें दो-चार करना,
फिर देखना
बसन्त की मादक हवाएँ
सावन की झड़ी
भावों की लड़ी
मन भीग-भीग जायेगा
अनायास
बेमौसम फूल खिलेंगे
बहारें छायेंगी
जीवन संवर जायेगा।
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चाहिए अब एक शंखनाद
हमें स्मरण हैं
कृष्ण की अनेक कथाएं
उनकी बाल लीलाएं
माखन चुराना, वन में गैया घुमाना
बाल-गोपाल संग हंसना-बतियाना
गोपियों संग ठिठोलियां
रासलीला की अठखेलियां
और यशोदा मैया को सताना।
और कभी बस पूतना-वध,
कंस-वध, नाग-मर्दन
अथवा गोवर्धन धारण को स्मरण करके
हम वंदन कर लेते हैं।
लेकिन क्यों नहीं स्मरण करते हम
कि कृष्ण ने पांचजन्य से
उद्घोष किया था
एक युद्ध के आह्वान का
बुराई के विरूद्ध अच्छाई का।
अन्याय के विरूद्ध न्याय का।
विश्व की मंगल कामना का।
एक अन्यायमुक्त समाज की स्थापना का।
हमें तो बस आदत हो गई है
पर्वों में डूबे रहने की
उत्सव ही उत्सव मनाने की
बस कोई एक बहाना चाहिए।
और यही संस्कार हम
अपनी अगली पीढ़ी को दे रहे हैं
हां, यह और बात है कि
उनके उत्सव मनाने के तरीके बदल गये हैं।
फिर हम किस अधिकार से
दोषारोपण कर सकते हैं किसी पर
अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण
या अधिकारों के दुरूपयोग का।
अब शंख एक संग्रहणीय वस्तु बन कर रह गये हैं।
वैसे भी हम मुंह सिले और कान बन्द किये बैठे हैं
कि कहीं किसी पांचजन्य के उद्घोष
का आह्वान न हो
और किसी अन्य के शंखनाद की ध्वनि भी
हमारे कानों तक न पहुंचे
और कहीं हमारे उत्सवों में बाधा न आये।
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जीवन के रंग
द्वार पर आहट हुई,
कुछ रंग खड़े थे
कुछ रंग उदास-से पड़े थे।
मैंने पूछा
कहां रहे पूरे साल ?
बोले,
हम तो यहीं थे
तुम्हारे आस-पास।
बस तुम ही
तारीखें गिनते हो,
दिन परखते हो,
तब खुशियां मनाते हो
मानों प्रायोजित-सी
हर दिन होली-सा देखो
हर रात दीपावली जगमगाओ
जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।
हां, जीवन के रंग बहुत हैं
कभी ग़म, कभी खुशी
के संग बहुत हैं,
पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा
बस जीवन में
रंगों की हर आहट पकड़ो।
हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा
हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।
बस
मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।