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मत विश्वास कर परछाईयों पर
कौन कहता है दर्पण सदैव सच बताता है
हम जो देखना चाहें अक्सर वही दिखाता है
मत विश्वास कर इन परछाईयों-अक्सों पर
बायें को दायां और दायें को बायां बताता है
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सच्चाई से भाग रहे
मुख देखें बात करें।
सुख देखें बात करें।
सच्चाई से भाग रहे,
धन देखें बात करें।
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मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं
अब
मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।
डर नहीं रह गया अब,
कोई खींच के उतार न दे मुखौटा
और कोई देख न ले असली चेहरा
तो, कहां छिपते फिरेंगे।
मुखौटों की कीमत पहले भी थी
अब भी है।
फ़र्क बस इतना है
कि अब खुलेआम
बोली लगाये घूमते हैं।
मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।
बेचते ही नहीं,
खरीदते भी हैं ।
और ज़रूरत आन पड़े
तो बड़ों बड़ों के मुखौटे
अपने चेहरे पर चढ़ाए
बेधड़क घूमते हैं।
किसी का भी चेहरा नोचकर
उसका मुखौटा बना
अपने चेहरे पर
चढ़ाए घूमते हैं।
जो इन मुखौटों से मिल सकता है
वह असली चेहरा कहां दे पाता कीमत
इसलिए
अपना असली चेहरा
बगल में दबाये घूमते हैं।
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काश ! होता कोई ऐसा !!!
कोई है क्या ऐसा
जीवन में
जिसे हम भूलना चाहें
किन्तु भूल नहीं पाते।
.
कोई है क्या ऐसा
जिसकी याद तो आती है
किन्तु आधी-अधूरी।
स्मृतियों के पृष्ठ पलटते हैं
किन्तु तस्वीर नज़र नहीं आती।
.
कोई है क्या ऐसा
जो मन की दीवारों से टकराता है
रोज़ द्वार खटखटाता है
किन्तु नाम याद नहीं आता।
.
कोई है क्या ऐसा
जिसे रोज़ पीटने को मन करता है
किन्तु जब दिखता है
तो प्यार हो आता है।
.
कोई है क्या ऐसा
जो बार-बार रास्ता काटता है
किन्तु नज़र नहीं आता।
.
कोई है क्या ऐसा
जो अच्छा भी है बुरा भी
सांस भी है, आस भी
विरक्ति भी है , आसक्ति भी,
आवाज़ भी है, शून्यता भी
आंसू भी है और हास भी।
.
काश ! होता कोई ऐसा !!!
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जीवन संवर-संवर जाता है
बादलों की ओट से
निरखता है सूरज।
बदलियों को
रँगों से भरता
ताक-झाँक
करता है सूरज।
सूरज से रँग बरसें
हाथों में थामकर
जीवन को रंगीन बनायें।
लहरें रंग-बिरँगी
मानों कोई स्वर-लहरी
जीवन-संगीत संवार लें।
जब मिलकर हाथ बंधते हैं
तब आकाश
हाथों में ठहर-ठहर जाता है।
अंधेरे से निपटते हैं
जीवन संवर-संवर जाता है।
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जब एक तिनका फंसता है
दांत में
जब एक तिनका फंस जाता है
हम लगे रहते हैं
जिह्वा से, सूई से,
एक और तिनके से
उसे निकालने में।
किन्तु , इधर
कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में
जिसे, आज हम
देख तो नहीं पा रहे हैं,
जो धीरे-धीरे, अदृश्य,
एक अभेद्य दीवार बनकर
घेर रहा है हमें चारों आेर से।
और हम नादान
उसे दांत का–सा तिनका समझकर
कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर
आनन्दित हो रहे हैं।
किन्तु बस
इतना ही समझना बाकी रह गया है
कि जो कृत्य हम कर रहे हैं
न तो तिनके से काम चलने वाला है
न सूई से और न ही जिह्वा से।
सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा
हमारे जीवन के रंगों पर।
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ठिठुरी ठिठुरी धूप है कुहासे से है लड़ रही
ठिठुरी ठिठुरी धूप है, कुहासे से है लड़ रही
भाव भी हैं सो रहे, कलम हाथ से खिसक रही
दिन-रात का भाव एकमेक हो रहा यहां देखो
कौन करे अब काम, इस बात पर चर्चा हो रही
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अच्छा ही हुआ
अच्छा ही हुआ
कोई समझा नहीं।
कुछ शब्द थे
जो मैं यूॅं ही कह बैठी,
मन का गुबार निकाल बैठी।
कहना कुछ था
कह कुछ बैठी।
न नाराज़गी थी
न थी कोई खुशी।
पर कुछ तो था
जो मैं कह बैठी।
बहुत कुछ होता है
जो नहीं कहना चाहिए
बस मन ही मन में
कुढ़ते रहना चाहिए
अन्तर्मन जले तो जले
पर दुनिया को
कुछ भी पता न चले।
वैसे भी मेरी बातें
कहाॅं समझ आती हैं
किसी को।
पर
ऐसा कुछ तो था
जो नहीं कहना चाहिए था
मैं यूॅं ही कह बैठी।
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पूछती है मुझसे मेरी कलम
राष्ट्र भक्ति के गीत लिखने के लिए कलम उठाती हूं जब जब
पूछती है मुझसे मेरी कलम, देश हित में तूने क्या किया अब तक
भ्रष्ट्राचार, झूठ, रिश्वतखोरी,अनैतकिता के विरूद्ध क्या लड़ी कभी
गीत लिखकर महान बनने की कोशिश करोगे कवि तुम कब तक
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कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।