सपने अपने - अपने सपने

रेत के घर बनाने की एक कोशिश तो ज़रूर करना।

आकाश पर कसीदे काढ़ने की एक कोशिश तो ज़रूर करना।

जितनी चादर हो उतने पैर फैलाकर तो सभी सो लेते हैं,

आकाश पैरों पर थाम एक बार सोने की कोशिश ज़रूर करना।

 

वक्त की करवटें

 

जिन्दगी अब गुनगुनाने से डरने लगी है।

सुबह अब रात-सी देखो ढलने लगी है।

वक्त की करवटें अब समझ नहीं आतीं,

उम्र भी तो ढलान पर चलने लगी है।

 

 

 

 

 

धरा और आकाश के बीच उलझे स्वप्न

कुछ स्वप्न आकाश में टंगे हैं, कुछ धरा पर पड़े हैं,

किसे छोड़ें, किसे थामें, हम बीच में अड़े खड़े हैं।

असमंजस में उलझे, कोई तो मिले, हाथ थामे,

यहां नीचे कंकड़-पत्थर, उपर से ओले बरस रहे हैं।

 

किसी को नहीं चिन्ता किसी की

कर्त्ता-धर्ता बन बैठे हैं आज निराले लोग

जीवित लोगों का देखो यहां मनाते सोग

इसकी-उसकी-किसको, कहां पड़ी है आज

श्मशान घाट में उत्सव मनाते देखे हमने लोग

जीवन पथ पर

बिन नाविक मैं बहती जाती

अपनी छाया से कहती जाती

तुम साथ चलो या न हो कोई

जीवन पथ पर बढ़ती जाती

 

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति

हिन्‍दी को वे नाम दे गये, हिन्‍दी को पहचान दे गये

अटल वाणी से वे जग में अपनी अलग पहचान दे गये

शत्रु से हाथ मिलाकर भी ताकत अपनी दिखलाई थी ,

विश्‍व-पटल पर अपनी वाणी से भारत को पहचान दे गये

कहलाने को ये सन्त हैं

साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,

भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,

कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,

हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते

झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते

नाम नहीं, पहचान नहीं, करने दो मुझको काम

क्यों मेरी फ़ोटो खींच रहे, मिलते हैं कितने दाम।

कहीं की बात कहीं करें और झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते

समझो तुम, मिल-जुलकर चलता है घर का काम

सफ़लता की कुंजी

कुछ घोटाले कर गये होते, हम भी अमर हो गये होते

संसद में बैठे, गाड़ी-बंगला-पैंशन ले, विदेश बस गये होते

फिसड्डी बनकर रह गये, इस ईमानदारी से जीते जीते,

बुद्धिमानी की होती, जीते-जी मूर्ति पर हार चढ़ गये होते

मन की बातें न बताएं

पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं

जो दुनिया तो  जाने थी पर मन था छुपाए

पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें

न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं

सम्बन्धों की डोर

विशाल वृक्षों की जड़ों से जब मिट्टी दरकने लगती है

जिन्दगी की सांसें भी तब कुछ यूं ही रिसने लगती हैं

विशाल वृक्षों की छाया तले ही पनपने हैं छोटे पेड़ पौधे,

बड़ों की छत्रछाया के बिना सम्बन्धों की डोर टूटने लगती है

हम सजग प्रहरी

द्वार के दोनों ओर  खड़े हैं हम सजग प्रहरी

परस्पर हमारी शत्रुता, कोई भागीदारी

मध्य में एक रेखा खींचकर हमें किया विलग

इसी विभाजन के समक्ष हमारी मित्रता हारी

काम की कर लें अदला-बदली

धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।

छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।

झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,

हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।

प्रेम-प्यार के मधुर गीत

मौसम बदला, फूल खिले, भंवरे गुनगुनाते हैं।

सूरज ने धूप बिखेरी, पंछी मधुर राग सुनाते हैं।

जी चाहता है भूल जायें दुनियादारी के किस्से,

चलो मिलकर प्रेम-प्यार के मधुर गीत गाते हैं।

जब नर या कुंजर कहा गया

महाभारत का युद्ध पलट गया जब नर या कुंजर कहा गया।

गज-गामिनी, मदमस्त चाल कहने वाला कवि आज कहां गया।

नहीं भाते इसे मानव-निर्मित वन-अभयारण्य, जल-स्त्रोत यहां।

मुक्त जीव, जब मूड बना, तब मनमौजी हर की पौड़ी नहा गया।

छोटे-छोटे घर हैं छोटे-छोटे सपने

छोटे-छोटे घर हैं, छोटे-छोटे सपने

घर के भीतर रहते हैं यहां सब अपने

न ताला-चाबी, न द्वार, न चोर यहां

फूलों से सज्जित, ये घर सुन्दर कितने

मौसम के रूप समझ न  आयें

कोहरा है या बादलों का घेरा, हम बनते पागल।

कब रिमझिम, कब खिलती धूप, हम बनते पागल।

मौसम हरदम नये-नये रंग दिखाता, हमें भरमाता,

मौसम के रूप समझ न  आयें, हम बनते पागल।

सच्चाई से भाग रहे

मुख देखें बात करें।

सुख देखें बात करें।

सच्चाई से भाग रहे,

धन देखें बात करें।

किसे अपना समझें किसे पराया

किसे अपना समझें किसे पराया 

मन के द्वार पर पहरे लगाकर बैठे हैं आज।

कोई भाव पढ़ न ले, गांठ बांध कर बैठे हैं आज।

किसे अपना समझें, किसे पराया, समझ नहीं,

अपनों को ही पराया समझ कर बैठे हैं आज।

स्वर्गिक सौन्दर्य रूप

रूईं के फ़ाहे गिरते थे  हम हाथों से सहलाते थे।

वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।

रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,

स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।

कामधेनु कुर्सी बनी

 

समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,

राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,

गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,

कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।

इंसान को न धिक्कारो यारो

 

आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो

इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो

यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा

अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।

कहां गये वे दिन  बारिश के

 

कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,

मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने  की बातें होती थीं

अब तो बारिश के नाम से ही  बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,

कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।

जब तक जीवन है मस्ती से जिये जाते हैं

कितना अद्भुत है यह गंगा में पाप धोने, डुबकी लगाने जाते हैं।

कितना अद्भुत है यह मृत्योपरान्त वहीं राख बनकर बह जाते हैं।

कितने सत्कर्म किये, कितने दुष्कर्म, कहां कर पाता गणना कोई।

पाप-पुण्य की चिन्ता छोड़, जब तक जीवन है, मस्ती से जिये जाते हैं।

मैंने तो बस यूं बात की

न मिलन की आस की , न विरह की बात की

जब भी मिले बस यूं ही ज़रा-सी बात ही बात की

ये अच्‍छा रहा, न चिन्‍ता बनी, न मन रमा कहीं

कुछ और न समझ लेना मैंने तो बस यूं बात की

हंस-हंसकर बीते जीवन क्‍या घट जायेगा

 

यह मन अद्भुत है, छोटी-छोटी बातों पर रोता है

ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही शोकाकुल होता है

हंस-हंसकर बीते जीवन तो तेरा क्‍या घट जायेगा

गाल फुलाकर जीने से जीवन न बेहतर होता है

बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं

मन के मौसम ने करवट सी-ली है

बासन्ती रंगों ने आहट सी-ली है

बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं

उनकी नज़रों ने एक चाहत सी-ली है

प्रलोभनों के पीछे भागता मन

सर्वाधिकार की चाह में बहुत कुछ खो बैठते हैं

और-और की चाह में हर सीमा तोड़ बैठते हैं

प्रलोभनों के पीछे भागता मन, वश कहां रहा

अच्‍छे-बुरे की पहचान भूल, अपकर्म कर बैठते हैं

मन भटकता है यहां-वहां

अपने मन पर भी एकाधिकार कहां

हर पल भटकता है देखो यहां-वहां

दिशाहीन हो, इसकी-उसकी सुनता

लेखन में बिखराव है तभी तो यहां

ठिठुरी ठिठुरी धूप है कुहासे से है लड़ रही

ठिठुरी ठिठुरी धूप है, कुहासे से है लड़ रही

भाव भी हैं सो रहे, कलम हाथ से खिसक रही

दिन-रात का भाव एकमेक हो रहा यहां देखो

कौन करे अब काम, इस बात पर चर्चा हो रही