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कभी-कभी ठहरी-सी लगती है, भागती-दौड़ती ज़िन्दगी ।
कभी-कभी हवाएँ महकी-सी लगती हैं, सुहानी ज़िन्दगी।
गरजते हैं बादल, कड़कती हैं बिजलियाँ, मन यूँ ही डरता है,
कभी-कभी पतझड़-सी लगती है, मायूस डराती ज़िन्दगी।
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कुछ नया
मैं,
निरन्तर
टूट टूटकर,
फिर फिर जुड़ने वाली,
वह चट्टान हूं
जो जितनी बार टूटती है
जुड़ने से पहले,
उतनी ही बार
अपने भीतर
कुछ नया समेट लेती है।
मैं चाहती हूं
कि तुम मुझे
बार बार तोड़ते रहो
और मैं
फिर फिर जुड़ती रहूं।
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काजल पोत रहे अंधे
अंधे के हाथ बटेर लगना,
अंधों में काना राजा,
आंख के अंधे नाम नयनसुख,
सुने थे कुछ ऐसे ही मुहावरे।
पर आज ज्ञात हुआ
यहां तो
काजल पोत रहे अंधे।
बड़ी असमंजस की स्थिति बन आई है।
क्यों काजल पोत रहे अंधे।
किसके चेहरे पर हाथ
साफ़ कर रहे ये बंदे।
काजल लगवाने के लिए
उजले मुख लेकर
कौन घूम रहे बंदे।
अंधे तो पहले ही हैं
और कालिमा लेकर
अब कर रहे कौन ये धंधे।
कालिमा लग जाने के बाद
कौन बतलायेगा,
कौन समझायेगा,
कैसे लगी, किसने लगाई।
किसके लगी, कहां से आई।
काजल की है, या कोयले की,
या कर्मोa की,
करेगा कौन निर्णय।
कहीं ऐसा तो नहीं
जो पोत रहे काजल,
सब हैं आंख से चंगे,
और हम ही बन रहे अंधे।
क्योंकि हम देखने से डरने लगे हैं।
समझने से कतराने लगे हैं।
सच बोलने से हटने लगे हैं।
अधिकार की बात करने से बचने लगे हैं।
किसी का साथ देने से कटने लगे हैं।
और
गांधी के तीन बन्दर बनने में लगे हैं ।
न देखो, न सुनो, न बोलो।
‘‘बुरा’’ तो गांधी जी के साथ ही चला गया।
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वर्षा ऋतु पर हाईकू
पानी बरसा
चांद-सितारे डूबे
गगन हंसा
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पानी बरसा
धरती भीगी-भीगी
मिट्टी महकी
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पानी बरसा
अंकुरण हैं फूटे
पुष्प महके
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पानी बरसा
बूंद-बूंद टपकती
मन हरषा
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पानी बरसा
अंधेरा घिर आया
चिड़िया फुर्र
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पानी बरसा
मन है आनन्दित
तुम ठिठुरे
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ज़रा-ज़रा-सी बात पर
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही विश्वास चला गया
फूलों को रौंदते, कांटों को सहेजते चला गया
काश, कुछ ठहर कर कही-अनकही सुनी होती
हम रूके नहीं,सिखाते-सिखाते ज़माना चला गया
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तीर खोज रही मैं
गहरे सागर के अंतस में
तीर खोज रही मैं।
ठहरा-ठहरा-सा सागर है,
ठिठका-ठिठका-सा जल।
कुछ परछाईयां झलक रहीं,
नीरवता में डूबा हर पल।
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चकित हूं मैं,
कैसे द्युतिमान जल है,
लहरें आलोकित हो रहीं,
तुम संग हो मेरे
क्या यह तुम्हारा अक्स है?
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खुशियां अर्जित कर ले
परेशानियों की गठरी बांध गंगा में विसर्जित कर दे
व्याकुलताओं को कांट छांट गंगा में विसर्जित कर दे
कुछ देर के लिए छोड़ कर तो देख जिन्दगी के पचड़े
जो मन में आये कर, छोटी छोटी खुशियां अर्जित कर ले।
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न कुछ बदला है न बदलेगा
कांटा डाले देखो बैठे नेताजी
वोट का तोल लगाने बैठे नेताजी
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नेताजी के रंग बदल गये
खाने-पीने के ढंग बदल गये
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नोट दिखाकर ललचा रहे हैं
वोट हमसे मांग रहे हैं।
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इसको ऐसे समझो जी,
नोटों का चारा बनता
वोटों का झांसा डलता
मछली को दाना डलता
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पहले मछली को दाना डालेंगे
उससे अपने काम निकलवा लेंगे
होगी मछली ज्यों ही मोटी
होगी किस्मत उसकी खोटी
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दाना-पानी सब बन्द होगा
नदिया का पानी सूखेगा
फिर कांटे से इनको बाहर लायेंगे
काट-काटकर खायेंगे
प्रीत-भोज में मिलते हैं
पांच साल किसने देखे
आना-जाना लगा रहेगा
न कुछ बदला है, न बदलेगा।
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फहराता है तिरंगा
प्रकृति के प्रांगण में लहराता है तिरंगा
धरा से गगन तक फहराता है तिरंगा
हरीतिमा भी गौरवान्वित है यहां देखो
भारत का मानचित्र सजाता है तिरंगा
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अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश
मेरा एक रूप है, शायद !
मेरा एक स्वरूप है, शायद !
एक व्यक्तित्व है, शायद !
अपने-आपको,
अपने से बाहर,
अपनी नज़र से
देखने की,
एक कोशिश की मैंने।
आवरण हटाकर।
अपने आपको जानने की
कोशिश की मैंने।
मेरी आंखों के सामने
एक धुंधला चित्र
उभरकर आया,
मेरा ही था।
पर था
अनजाना, अनपहचाना।
जिसने मुझे समझाया,
तू ऐसी ही है,
ऐसी ही रहेगी,
और मुझे डराते हुए,
प्रवेश कर गया मेरे भीतर।
कभी-कभी
कितनी भी चाहत कर लें
कभी कुछ नहीं बदलता।
बदल भी नहीं सकता
जब इरादे ही कमज़ोर हों।
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आजकल मेरी कृतियां
आजकल
मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।
लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।
दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।
हाथ से कलम फिसलने लगी है।
मैं बांधती हूं इक आस में,
वे चौखट लांघकर
बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां,
मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।
कभी आकार का उलाहना मिलता है,
कभी रूप-रंग का,
कभी शब्दों का अभाव खलता है।
अक्सर भावों की
उथल-पुथल हो जाया करती है।
भाव और होते हैं,
आकार और ले लेती हैं,
अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां
पटल पर मनमानी करने लगती हैं।
टूटती हैं, बिखरती हैं,
बनती हैं, मिटती हैं,
रंग बदरंग होने लगते हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां
मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।
मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।