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मन में चिन्ताएँ सघन
मानों कानन में अगन
करें किससे आशाएँ
कैसे बुझाएँ ये तपन
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औकात दिखा दी
ऐसा थोड़े ही होता है कि एक दिन में ही तुमने मेरी औकात गिरा दी
जो कल था आज भी वही, वहीं हूं मैं, बस तुमने अपनी समझ हटा दी
आज गया हूं बस कुछ रूप बदलने, कल लौटूंगा फिर आओगे गले लगाने
एक दिन क्या रोका मुझको,देखा मैंने कैसे तुम्हें,तुम्हारी औकात दिखा द
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झूठे रिश्तों की आड़ में
नदियाँ सूख जाती हैं सागर उफ़नते रहते हैं
मन कुंठित होता है, हम फिर भी हंसते रहते हैं
सूखे पत्ते उड़ते हैं, गिरते हैं, ठौर नहीं मिलता
झूठे रिश्तों की आड़ में हम मन बहलाये रहते हैं।
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पांच-सात क्या पी ली
जगती हूं,उठती हूं, फिर सोती हूं,मनमस्त हूं
घड़ी की सूईयों को रोक दिया है, अलमस्त हूं
पूरा दिन पड़ा है कर लेंगे सारे काम देर-सबेर
बस पांच-सात क्या पी ली,(चाय),मदमस्त हूं
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विश्व चाय दिवस
सुबह से भूली-भटकी अभी मंच पर आगमन हुआ तो ज्ञात हुआ कि आज तो अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस अथवा विश्व चाय दिवस है।
ऐसा कैसे सम्भव है। चाय का और केवल एक दिवस! नहीं, नहीं, यह तो चाय का और चाय के नशेड़ियों का घोर अपमान है।
शिमला में हम परिवार में आठ सदस्य थे, दिन-भर में 80-90 चाय तो बनती ही होगी और वह भी लार्ज पटियाला साईज़, पीतल के बड़े गिलास। मेरी दादी मेरी माँ से कहती थी पानी की टंकी में ही चीनी-पत्ती डाल दे, अपने-आप सब दिन-भर पीते रहेंगे।
दिन भर में पाँच-छः चाय तो अब भी पी ही लेती हूँ। कुछ वर्ष पहले तक दस-बारह हो ही जाती थी। उससे पहले 12-15। गज़ब की पाचन-क्षमता रही है मेरी। प्रातः घर से 7.30 निकल जाती थी किन्तु आम बात थी कि चार से पांच चाय पी लेती थी। काम करते-करते एक कप खाली हुआ, दूसरा तैयार। एक नाश्ते के साथ और दूसरा नाश्ते के बाद। फिर कार्यालय पहुँचकर टेबल पर सबसे पहले चाय। चाय देने वाले को भी पता था कि मैडम को कितनी चाय चाहिए होती है। वैसे भी छोटे-छोटे गिलास में आती चाय वैसे ही मूड खराब कर देती है इस कारण मुझे हर जगह अपना ही कप या गिलास रखना पड़ता था। जब मेरा स्थानान्तरण हुआ तो मज़ाक किया जाता था कि कंटीन तो अब बन्द हो जायेगी, कविता तो जा रही है।
मेरे लिए चाय का अर्थ है शुद्ध चाय। अर्थात पानी, ठीक-सा दूध, चीनी और पत्ती। कुछ लोग चाय के नाम पर काढ़ा पीना पसन्द करते हैं। हाय! अदरक नहीं डाला, छोटी इलायची के बिना तो स्वाद ही नहीं आता, दालचीनी वाली चाय बड़ी स्वाद होती है। दूध वाली गाढ़ी चाय होनी चाहिए। अरे तो दूध ही पी लीजिए, चाय के बहाने दूध क्यों पी रहे हैं, सीधे-सीधे कहिए कि दूध पीना है। कुछ लोग चाय का मसाला बनाकर रखते हैं। अरे ! ऐसी ही चाय पीनी है तो गर्म मसाला ही पी लीजिए, चाय को क्यों बदनाम कर रहे हैं।
लोग कहते हैं चाय से गैस हो जाती है, नींद नहीं आती है अथवा नींद आ जाती है। पता नहीं कैसे हैं यह लोग।
आह! किसी समय, कितनी बार, कहीं भी, बस चाय, चाय और चाय।
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कच्चे घड़े-सी युवतियां
कच्चे घड़े-सी होती हैं
ये युवतियां।
घड़ों पर रचती कलाकृति
न जाने क्या सोचती हैं
ये युवतियां।
रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित
श्रृंगार का रूप होती हैं
ये युवतियां।
रंग सदा रंगीन नहीं होते
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
हाट सजता है,
बाट लगता है,
ठोक-बजाकर बिकता है,
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कला-संस्कृति के नाम पर
बैठक की सजावट बनते हैं]
सजते हैं घट
और चाहिए एक ओढ़नी
जानती हैं सब
केवल, ये युवतियां।
बातें आसमां की करते हैं
पर इनके जीवन में तो
ठीक से धरा भी नहीं है
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कच्चे घड़ों की ज़िन्दगी
होती है छोटी
इस बात को
सबसे ज़्यादा जानती हैं
ये युवतियां।
चाहिए जल की तरलता, शीतलता
किन्तु आग पर सिंक कर
पकते हैं घट
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
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सम्मान से जीना है रूपसी
आंखों की भाषा समझे न, निष्ठुर है यह जग रूपसी
आवरण हटा कर बोल, मन की बात खोल रूपसी
तेरी इस साज-सज्जा से यूं ही भ्रमित हैं सब देख तो
न डर, हो निडर, गर” सम्मान से जीना है रूपसी
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जब मन में कांटे उगते हैं
हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।
पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दाेनों की अक्सर
साथ साथ होती है।
बस इतना ही याद रखते हैं हम
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।
आैर कभी छीलकर देखा है कांटे को
भीतर से होता है रसपूर्ण।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।
और
जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।
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सजावट रह गईं हैं पुस्तकें
दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।
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बोध
बोध
खण्डित दर्पण में चेहरा देखना
अपशकुन होता है
इसलिए तुम्हें चाहिए
कि तुम
अपने इस खण्डित दर्पण को
खण्ड-खण्ड कर लो
और हर टुकड़े में
अपना अलग चेहरा देखो।
फिर पहचानकर
अपना सही चेहरा अलग कर लो
इससे पहले
कि वह फिर से
किन्हीं गलत चेहरों में खो जाये।
असलियत तो यह
कि हर टुकड़े का
अपना एक चेहरा है
जो हर दूसरे से अलग है
हर चेहरा एक टुकड़ा है
जो दर्पण में बना करता है
और तुम, उस दर्पण में
अपना सही चेहरा
कहीं खो देते हो
इसलिए तुम्हें चाहिए
कि दर्पण मत संवरने दो।
पर अपना सही चेहरा अलगाते समय
यह भी देखना
कि कभी-कभी, एक छोटा-टुकड़ा
अपने में
अनेक चेहरे आेढ़ लिया करता है
इसलिए
अपना सही अलगाते समय
इतना ज़रूर देखना
कि कहीं तुम
गलत चेहरा न उठा डालो।
आश्चर्य तो यह
कि हर चेहरे का टुकड़ा
तुम्हारा अपना है
और विडम्बना यह
कि इन सबके बीच
तुम्हारा सही चेहरा
कहीं खो चुका है।
ढू्ंढ सको तो अभी ढूंढ लो
क्योंकि दर्पण बार-बार नहीं टूटा करते
और हर खण्डित दर्पण
हर बार
अपने टुकड़ों में
हर बार चेहरे लेकर नहीं आया करता
टूटने की प्रक्रिया में
अक्सर खरोंच भी पड़ जाया करती है
तब वह केवल
एक शीशे का टुकड़ा होकर रह जाता है
जिसकी चुभन
तुम्हारे अलग-अलग चेहरों की पहचान से
कहीं ज़्यादा घातक हो सकती है।
जानती हूं,
कि टूटा हुआ दर्पण कभी जुड़ा नहीं करता
किन्तु जब भी कोई दर्पण टूटता है
तो मैं भीतर ही भीतर
एक नये सिरे से जुड़ने लगती हूं
और उस टूटे दर्पण के
छोटे-छोटे, कण-कण टुकड़ों में बंटी
अपने-आपको
कई टुकड़ों में पाने लगती हूं।
समझने लगती हूं
टूटना
और टूटकर, भीतर ही भीतर
एक नये सिरे से जुड़ना।
टूटने का बोध मुझे
सदा ही जोड़ता आया है।
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मन का ज्वार भाटा
सरित-सागर का ज्वार
आज
मन में क्यों उतर आया है
नीलाभ आकाश
व्यथित हो
धरा पर उतर आया है
चांद लौट जायेगा
अपने पथ पर।
समय के साथ
मन का ज्वार भी
उतर जायेगा।