बेवजह जागने की आदत नहीं हमारी
झूठ, छल-कपट, मिथ्या-आचरण, भ्रष्टाचार में जीते हैं हम किसी को क्या
बेवजह जागने की आदत नहीं हमारी, जो भी हो रहा, होता रहे हमें क्या
आराम से खाते-पीते हैं, मज़े से जीते हैं, दुनिया लड़-मर रही, मरती रहे
लहर है तो, सत्य, अहिंसा, प्रेम पर लिखने को जी चाहता है तुम्हें क्या
वितंडावाद में चतुर
घात प्रतिघात आघात की बात हम करते रहे है
अपनी नाकामियों का दोष दूसरों पर मढ़ते रहे हैं
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे कुछ करने का दम नहीं है
वितंडावाद में चतुर जनता को भ्रमित करते रहे हैं
बस स्नेह की वाणी बोल रे
बस दो मीठे बोल बोल ले
जीवन में मधुरस घोल ले
सहज-सहज बीतेगा जीवन
बस स्नेह की वाणी बोल रे
हाथ पर रखें लौ को
रोशनी के लिए दीप प्रज्वलित करते हैं
फिर दीप तले अंधेरे की बात करते हैं
तो हिम्मत करें, हाथ पर रखें लौ को
जो जग से तम मिटाने की बात करते है
क्यों अनकही बातें नासूर बनकर रहें
मन में कटु भाव रहें, मुख पर हास रहे
इस छल-कपट को कौन कब तक सहे
जो मन में है, खुलकर बोल दिया कर
क्यों अनकही बातें नासूर बनकर रहें
अफ़वाहों से दूरी कीजिए
थोड़ा धीरज कीजिए, घर के भीतर रह लीजिए
समय की मांग है अब अपनों से दूरी कीजिए
विश्वव्यापी समस्याओं से उलझे हुए हैं हम
सब ठीक हो जायेगा, अफ़वाहों से दूरी कीजिए
डरे हुए हैं हम
तनिक विचार कीजिए कहां खड़े हैं हम
न आयुध, न सेना, फिर भी लड़ रहे हैं हम
परस्पर दूरियां बनाकर जीने को विवश हैं
मौत किस ओर से आयेगी डरे हुए हैं हम
फंसते हैं मंझधार में हम
सत्य बोलें तो मधुर नहीं
असत्य वचन उचित नहीं
फंसते हैं मंझधार में हम
मौन भी तो समाधान नहीं
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
बोली मायके से भाई आया था कितने दिन
क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई
मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन
चिड़-चिड़ करती गौरैया
चिड़-चिड़ करती गौरैया
उड़-उड़ फिरती गौरैया
दाना चुगती, कुछ फैलाती
झट से उड़ जाती गौरैया
कभी फुहार तो कभी बहार
चल सावन की घटाओं को हेर फेर घेर लें हम
जैसा मन आये वैसे ही मन की बात टेर लें हम
कभी हरा, कभी सूखा कभी फुहार तो कभी बहार
प्यार, मनुहार, इकरार, जैसे भी उनको घेर लें हम
कहते हैं सावन जलता है
कहते हैं सावन जलता है, यहां तो गली-गली पानी बहता है
प्यार की पींगे चढ़ती हैं, यहां सड़कों पर सैलाब बहता है
जो घर से निकला पता नहीं किस राह लौटेगा बहते-बहते
इश्क-मुहब्बत कहने की बातें, छत से पानी टपका रहता है
बारिश के मौसम में
बारिश के मौसम में मन देखो, है भीग रहा
तरल-तरल-सा मन-भाव यूं कुछ पूछ रहा
क्यों मन चंचल है आज यहां कौन आया है
कैसे कह दूं किसकी यादों में मन सीज रहा
उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन
तितलियों संग देखो उड़ता फिरता है मन
चांद-तारो संग देखो मुस्कुराता है गगन
चल कहीं आज किसी के संग बैठें यूं ही
उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन
रिश्तों को तो बचाना है
समय ने दूरियां खड़ी कर दी हैं, न जाने कैसा ये ज़माना है
मिलना-जुलना बन्द हुआ, मोबाईल,वाट्स-एप का ज़माना है
अपनी-अपनी व्यस्तताओं में डूबे,कुछ तो समय निकालो यारो
कभी मेरे घर आओ,कभी मुझे बुलाओ,रिश्तों को तो बचाना है
बलिदान, त्याग, समर्पण की बात
बलिदान, त्याग, समर्पण की बात बहुत करते हैं, बस सैनिकों के लिए
अपने पर दायित्व आता है जब, रास्ते बहुत हैं हमारे पास बचने के लिए
बस दूसरों से अपेक्षाएं करें और आप चाहिए हमें चैन की नींद हर पल
सीमा पर वे ठहरे हैं, हम भी सजग रहें सदा, कर्त्तव्य निभाने के लिए
सजग रहना हमारा कर्त्तव्य है
केवल दोषारोपण करके अपनी कमज़ोरियों से हम मुंह मोड़ नहीं सकते
सजग रहना हमारा कर्त्तव्य है, अपने दायित्वों को हम छोड़ नहीं सकते
देश की सुरक्षा हेतु सैनिकों के बलिदान को कैसे व्यर्थ हो जाने दें हम
कुछ ठोस हो अब, विश्वव्यापी आतंकवाद से हम मुंह मोड़ नहीं सकते
अस्त होते सूर्य को नमन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है
चलो आज हम अस्त होते सूर्य को नमन करें
घूमकर आयेगा, तब रोशनी देगा ही, मनन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है यह जान लें,
न डर, बस लक्ष्य साध कर, मन से यत्न करें
अब वक्त चला गया
सहज-सहज करने का युग अब चला गया
हर काम अब आनन-फ़ानन में करना आ गया
आज बीज बोया कल ही फ़सल चाहिए हमें
कच्चा-पक्का यह सोचने का वक्त चला गया
बात कहो खरी-खरी
बात कहो खरी-खरी, पर न कहना जली-कटी
बात-बात में उलझो न, सह लेना कभी जली-कटी
झूठी लाग-लपेट से कभी रिश्ते नहीं संवरते
देखना तब रिश्तों की दूरियां कब कैसे मिटीं
भाग-दौड़ में बीतती ज़िन्दगी
कभी अपने भी यहां क्यों अनजाने लगे
जीवन में अकारण बदलाव आने लगे
भाग-दौड़ में कैसे बीतती रही ज़िन्दगी
जी चाहता है अब तो ठहराव आने लगे
संसार है घर-द्वार
अपनेपन, सम्बन्धों का आधार है घर-द्वार
रिश्तों का, विश्वास का संसार है घर-द्वार
जीवन बीत जाता है संवारने-सजाने में
सुख-दुख के सामंजस्य का आधार है घर-द्वार
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
जि़न्दगी बिना जोड़-जोड़ के कहां चली है
करता सब उपर वाला हमारी कहां चली है
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
इसी मैं-मैं के चक्कर में सबकी अड़ी पड़ी है
न लिख पाने की पीड़ा
भावों का बवंडर उठता है मन में, कुछ लिख ले, कहता है
कलम उठती है, भाव सजते हैं, मन में एक लावा बहता है
कहीं से एक लहर आती है, सब छिन्न-भिन्न कर जाती है
न लिख पाने की पीड़ा कभी कभी यहां मन बहुत सहता है
ऐसे ही तो चलती दुनिया
सूझबूझ से चले न दुनिया
हेरा-फ़ेरी कर ले मुनिया
इसका लेके उसको दे दे
ऐसे ही तो चलती दुनिया
सोचते हैं दिल बदल लें
मायूस दिल को मनाने अब किसे, क्यों यहां आना है
दिल की दर्दे-दवा लगाने अब किसे, क्यों यहां आना है
ज़माना बहुत निष्ठुर हो गया है, बस तमाशा देख रहा
सोचते हैं दिल बदल लें, देखें किसे यहां घर बसाने आना है।
द्वार पर सांकल लगने लगी है
उत्सवों की चहल-पहल अब भीड़ लगने लगी है
अपनों की आहट अब गमगीन करने लगी है
हवाओं को घोटकर बैठते हैं सिकुड़कर हम
कोई हमें बुला न ले, द्वार पर सांकल लगने लगी है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही विश्वास चला गया
फूलों को रौंदते, कांटों को सहेजते चला गया
काश, कुछ ठहर कर कही-अनकही सुनी होती
हम रूके नहीं,सिखाते-सिखाते ज़माना चला गया
ठेस लगती है कभी
ठेस लगती है कभी, टूटता है कुछ, बता पाते नहीं।
आंख में आंसू आते हैं, किससे कहें, बह पाते नहीं।
कभी किसी को दिखावा लगे, कोई कहे निर्बलता ।
बार-बार का यह टकराव कई बार सह पाते नहीं।
अकारण क्यों हारें
राहों में आते हैं कंकड़-पत्थर, मार ठोकर कर किनारे।
न डर किसी से, बोल दे सबको, मेरी मर्ज़ी, हटो सारे।
जो मन चाहेगा, करें हम, कौन, क्यों रोके हमें यहां।
कर्म का पथ कभी छोड़ा नहीं, फिर अकारण क्यों हारें।