स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार

नित परखें हम आचार-विचार

औरों की सोच पर करते प्रहार

अपने भाव परखते नहीं हम कभी

स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार

 

 

ज़मीन से उठते पांव थे

आकाश को छूते अरमान थे

ज़मीन से उठते पांव थे

आंखों पर अहं का परदा था

उल्टे पड़े सब दांव थे

पैसों से यह दुनिया चलती

पैसों पर यह दुनिया ठहरी, पैसों से यह दुनिया चलती , सब जाने हैं

जीवन का आधार,रोटी का संसार, सामाजिक-व्यवहार, सब माने हैं

छल है, मोह-माया है, चाह नहीं है हमको, कहने को सब कहते हैं पर,

नहीं हाथ की मैल, मेहनत से आयेगी तो फल देगी, इतना तो सब माने हैं

अधिकार और कर्तव्य

अधिकार यूं ही नहीं मिल जाते,कुछ कर्त्तव्य निभाने पड़ते हैं

मार्ग सदैव समतल नहीं होते,कुछ तो अवरोध हटाने पड़ते हैं

लक्ष्य तक पहुंचना सरल नहीं,पर इतना कठिन भी नहीं होता

बस कर्त्तव्य और अधिकार में कुछ संतुलन बनाने पड़ते हैं

सजावट रह गईं हैं पुस्तकें

दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।

 

ये गर्मी और ये उमस

ये गर्मी और ये उमस हर वर्ष यूं ही तपाती है
बिजली देती धोखा तर पसीने में काम करवाती है
फिर नखरे सहो सबके ये या वो क्यों नहीं बनाया
ज़रा आग के आगे खड़े तो हो,नानी याद करवाती है

 

खुशियां अर्जित कर ले

परेशानियों की गठरी बांध गंगा में विसर्जित कर दे

व्याकुलताओं को कांट छांट गंगा में विसर्जित कर दे

कुछ देर के लिए छोड़ कर तो देख जिन्दगी के पचड़े

जो मन में आये कर, छोटी छोटी खुशियां अर्जित कर ले।

 

अपने कदम बढ़ाना

किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना

अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना

शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है

अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना

खैरात में मिले, नाम बाप के मिले

शिक्षा की मांग कीजिए, प्रशिक्षण की मांग कीजिए, तभी बात बन पायेगी

खैरात में मिले, नाम  बाप के मिले, कोई नौकरी, न बात कभी बन पायेगी

मन-मन्दिर में न अपनेपन की, न प्रेम-प्यार की, न मधुर भाव की रचना है

द्वेष-कलह,वैर-भाव,मार-काट,लाठी-बल्लम से कभी,कहीं न बात बन पायेगी

पर प्यास तो बुझानी है

झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है

न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है

इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये

और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है

अभिलाषाओं के कसीदे

आकाश पर अभिलाषाओं के कसीदे कढ़े थे
भावनाओं के ज्वार से माणिक-मोती जड़े थे
न जाने कब एक धागा छूटा हाथ से मेरे
समय से पहले ही सारे ख्वाब ज़मीन पर पड़े थे

चंदा को जब देखो मनमर्ज़ी करता है

चंदा को मैंने थाम लिया, जब देखो अपनी मनमर्ज़ी करता है

रोज़ रूप बदलता अपने, जब देखो इधर-उधर घूमा करता है

जब मन हो गायब हो जाता है, कभी पूरा, कभी आधा भी

यूं तो दिन में भी आ जायेगा, ईद-चौथ पर तरसाया करता है

 

इंसान की फ़ितरत

देखो रोशनी से कतराने लगे हैं हम

देखो बत्तियां बुझाने में लगे हैं हम

जलती तीली देखकर भ्रमित न होना

देखो सीढ़ियां गिराने में लगे हैं हम

निद्रा पर एक झलकी

जब खरीखरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है

ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है

हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं

हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है

जीवन यूं ही करवट लेता है

गुब्बारों में अरमानों की हवा भरी है कुछ खाली बन्द पड़े हैं

कुछ में रंग-बिरंगी आशाएं हैं, कुछ में रंगीन जल भरे हैं

कब हवा का रूख बदलेगा, हाथों से छूटेंगे फूटेंगे, पिचकेंगे

जीवन यूं ही करवट लेता है, ये क्यों न हम समझ सके हैं

शब्दों से जलाने वाले

आग लगाने वाले यहां बहुत हैं

बिना आग सुलगाने वाले बहुत हैं

बुझाने की बात तो करना ही मत

शब्दों से जलाने वाले यहां बहुत हैं

कैसे होगा तारण

आज डूबने का मन है कहां डूबें बता रे मन

सागर-दरिया में जल है किन्तु वहां है मीन

जो कर्म किये बैठे हैं इस जहां में हम लोग

चुल्लू-भर पानी में डूब मरें तभी तो होगा तारण

कदम रखना सम्भल कर

इन राहों पर कदम रखना सम्भल कर, फ़िसलन है बहुत

मन को कौन समझाये इधर-उधर तांक-झांक करे है बहुत

इस श्वेताभ नि:स्तब्धता के भीतर जीवन की चंचलता है

छूकर देखना, है तो शीतल, किन्तु जलन देता है बहुत

धरा पर पांव टिकते नहीं

और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर

धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर

यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़

क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

बोले तो हम बड़बोले बन जायें

यूं ही क्यों चिन्तन करता रे मन !

जिसको जो कहना है कहते जायें

ढोल की थाप पर

संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं

मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं

ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया

हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।