पुतले बनकर रह गये हैं हम

हां , जी हां

पुतले बनकर रह गये हैं हम।

मतदाता तो कभी थे ही नहीं,

कल भी कठपुतलियां थे

आज भी हैं

और शायद कल भी रहेंगे।

कौन नचा रहा है

और कौन भुना रहा है

सब जानते हैं।

स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।

बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है

जिह्वा को लकवा मार गया है

और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।

फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक

लम्बी सूची है

और यहां जिह्वा खूब चलती है।

किन्तु जब

निर्णय की बात आती है

तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।