मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है

मतदान मेरा अधिकार है

पर किसने कह दिया

कि ज़िम्मेदारी भी है।

हांअधिकार है मेरा मतदान।

पर कौन समझायेगा

कि अधिकार ही नहीं

कर्त्तव्य भी है।

जिस दिन दोनों के बीच की

समानान्तर रेखा मिट जायेगी

उस दिन मतदान सार्थक होगा।

किन्तु

इतना तो आप भी जानते ही होंगें

कि समानान्तर रेखाएं

कभी मिला नहीं करतीं।

सम्मान उन्हें देना है

आपको नहीं लगता

इधर हम कुछ ज़्यादा ही

आंसू बहाने लगे हैं,

उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा पर

प्रश्नचिन्ह लगाने लगे हैं।

उनके समर्पण, देशप्रेम को

भुनाने में लगे हैं,

उन्होंने चुना है यह पथ,

इसलिए नहीं

कि आप उनके लिए

जार-जार रोंयें

उनके कृत्यों को

महिमामण्डित करें

और अपने कर्त्तव्यों से

हाथ धोयें,

कुछ शब्दों को घोल-घोलकर

तब तक निचोड़ते रहें

जब तक वे घाव बनकर

रिसने न लगें।

वे अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं

और हमें समझा रहे हैं।

देश के दुश्मन

केवल सीमा पर ही नहीं होते,

देश के भीतर,

हमारे भीतर भी बसे हैं।

हम उनसे लड़ें,

कुछ अपने-आप से भी करें

न करें दया, न छिछली भावुकता परोसें

अपने भीतर छिपे शत्रुओं को पहचानें

देश-हित में क्या करना चाहिए

बस इतना जानें।

बस यही सम्मान उन्हें देना है,

यही अभिमान उन्हें देना है।

आज मुझे देश की याद सता गई

सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।


 

लाठी का अब ज़ोर चले

रंग फीके पड़ गये

सत्य अहिंसा

और आदर्शों के

पंछी देखो उड़ गये

कालिमा  गहरी छा गई।

आज़ादी तो मिली बापू

पर लगता है

फिर रात अंधेरी आ गई।

निकल पड़े थे तुम अकेले,

साथ लोग आये थे।

समय बहुत बदल गया

लहर तुम्हारी छूट गई।

चित्र तुम्हारे बिक रहे,

ले-देकर उनको बात बने

लाठी का अब ज़ोर चले

चित्रों पर हैं फूल चढ़े

राहें बहुत बदल गईं

सब अपनी-अपनी राह चले

अर्थ-अनर्थ यहां हुआ

समझ तुम्हारे आये न।

वन्दे मातरम् कहें

चलो

आज कुछ नया-सा करें

न करें दुआ-सलाम

न प्रणाम

बस, वन्दे मातरम् कहें।

देश-भक्ति के गीत गायें

पर सत्य का मार्ग भी अपनाएं।

शहीदों की याद में

स्मारक बनाएं

किन्तु उनसे मिली

धरोहर का मान बढ़ाएं।

न जाति पूछें, न धर्म बताएं

बस केवल

इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।

झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता

नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता

बदलना है अगर देश को

तो चलो यारो

आज अपने-आप को परखें

अपनी गद्दारी,

अपनी ईमानदारी को परखें

अपनी जेब टटोलें

पड़ी रेज़गारी को खोलें

और अलग करें

वे सारे सिक्के

जो खोटे हैं।

घर में कुछ दर्पण लगवा लें

प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा

भली-भांति परखें

फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।

उनकी तरह बोलना ना सीख जायें

कभी गांधी जी के

तीन बन्दरों ने संदेश दिया था

बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।

सुना है मैंने

ऐसा ही कुछ संदेश

जैन, बौद्ध, सिक्ख, हिन्दू

मतावलम्बियों ने भी दिये थे,

कुछ मर्यादाओं, नैतिकता, गरिमा

की बात करते थे वे।

पुस्तकों में भी छपता था यही सब।

बच्चों को आज भी पढ़ाते हैं हम यह पाठ।

किन्तु अब ज्ञात हुआ

कि यह सब कथन

आम आदमी के लिए होते हैं

बड़े लोग इन सबसे उपर होते हैं।

वे जो आज देश के कर्णधार

कहलाते हैं

भारत के महिमामयी गणतन्त्र को

आजमाने बैठे हैं

राजनीति के मोर्चे पर हाथ

चलाने बैठे हैं

उनको मत सुनना, उनको मत देखना

उनसे मत बोलना

क्योंकि

भारत का महिमामयी लोकतन्त्र,

अब राजनीति का

अखाड़ा हो गया

दल अब दलदल में धंसे

मर्यादाओं की बस्ती

उजड़ गई

भाषा की नेकी बिखर गई

शब्दों की महिमा

गलित हुई

संसद की गरिमा भंग हुई

किसने किसको क्या कह डाला

सुनने में डर लगता है

प्रेम-प्यार-अपनापन कहीं छिटक गया

घृणा, विद्वेष, विभाजन की आंधी

सब निगल गई

कभी इनके पदचिन्हों के

अनुसरण की बात करते थे,

अब हम बस इतनी चिन्ता करते हैं

हम अपनी मर्यादा में रह पायें

सब देखें, सब सुनें,

मगर,उनकी तरह
बोलना ना सीख जायें

गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी

पिछले बहत्तर साल से

देश में

योजनाओं की भरमार है

धन अपार है।

मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में

धन की भरमार है।

चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये

वादों की, इरादों की ,

किस्से-कहानियों की दरकार है।

खेलों के मैदान पर

अरबों-खरबों का खिलवाड़ है।

रोज़ पढ़ती हूं अखबार

देर-देर तक सुनती हूं समाचार।

गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी

सुनते-सुनते सालों निकल गये।

सुना है देश

विकासशील से विकसित देश

बनने जा रहा है।

किन्तु अब भी

गरीब और गरीबी के नाम पर

खूब बिकते हैं वादे।

वातानूकूलित भवनों में

बन्द बोतलों का पानी पीकर

काजू-मूंगफ़ली टूंगकर

गरीबी की बात करते हैं।

किसकी गरीबी,

किसके लिए योजनाएं

और किसे घर

आज तक पता नहीं लग पाया।

किसके खुले खाते

और किसे मिली सहायता

आज तक कोई बता नहीं पाया।

फिर  वे

अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।

हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित

बस उनकी ही बात करते हैं।

और इस चित्र को देखकर

आहें भरते हैं।

क्योंकि न वे कुछ करते हैं।

और न हम कुछ करते हैं।