मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों

हम एक-दूसरे को नहीं जानते

नहीं जानते

किस देश, धर्म के हैं सामने वाले

शायद हम अपनी

या उनकी

धरती को भी नहीं पहचानते।

जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,

एक देश से

दूसरे देश में आती-जाती हैं।

पंछी बिना पूछे, बिना जाने

देश-दुनिया बदल लेते हैं।

किसने हमारा क्या लूट लिया

क्या बिगाड़ दिया,

नहीं जानते हम।

जानते हैं तो बस इतना

कि कभी दो देश बसे थे

कुछ जातियां बंटी थीं

कुछ धर्म जन्मे थे

किसी को सत्ता चाहिये थी

किसी को अधिकार।

और वे सब तमाशबीन बनकर

उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं

शायद एक साथ,

जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।

वे अपने घरों में

बारूद की खेती करते हैं

और उसकी फ़सल

हमारे हाथों में थमा देते हैं।

हमारे घर, खेत, शहर

जंगल बन रहे हैं।

जाने-अनजाने

हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई

अपने घर-आंगन में करने लगे हैं

अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं

मर रहा है आम आदमी

कहीं अपनों से

और कहीं अपने ही हाथों

कहीं भी, किसी भी रूप में।