इतना भी क्या गुस्सा
ठीक है
जीवन में सब कुछ सम्भव नहीं
किन्तु कोशिश करने में
क्या जाता है।
हर काम में
सदैव जीत-हार नहीं होती
कुछ बातें बस
प्रतीकार्थ, ध्वन्यार्थ भी होती हैं।
जानते हैं हम
बादलों को
बांध नहीं सकते
किन्तु उनकी
इतनी अव्यवस्थाओं पर
रोष तो जता ही सकते हैं।
जब बरसते हैं
तो रुकने का नाम ही नहीं लेते,
और जब बरसना चाहिए
तब हवाओं से अठखेलियाँ करते
उड़-उड़ जाते हैं।
बरसने की बात तक नहीं
आजकल तो
जहाँ-तहाँ फटने भी लगे हैं
भई, इतना भी क्या गुस्सा !