माफ़ करना आप मुझे

मित्रो,

चाहकर भी आज मैं

कोई मधुर गीत ला न सकी।

माफ़ करना आप मुझे

देशप्रेम, एकता, सौहार्द पर

कोई नई रचना बना न सकी।

-

मेरी कलम ने मुझे  दे दिया धोखा,

अकेली पड़ गई मैं,

सुनिए मेरी व्यथा।

-

भाईचारे, देशप्रेम, आज़ादी

और अपनेपन की बात सोचकर,

छुआ कागज़ को मेरी कलम ने,

पर यह कैसा हादसा हो गया

स्याही खून बन गई,

सन गया कागज़,

मैं अवाक् ! देखती रह गई।

-

प्रेम, साम्प्रदायिक सौहार्द

और एकता की बात सोचते ही,

मेरी कलम बन्दूक की गोली बनी

हाथ से फिसली

बन्दूकों, गनों, तोपों और

मिसाईलों के नाम

कागज़ों को रंगने लगे।

आदमी मरने लगा।

मैं विवश ! कुछ न कर सकी।

-

धार्मिक एकता के नाम पर

कागज़ पर उभर आये

मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारे।

न पूजा थी न अर्चना।

अरदास थी न नमाज़ थी।

दीवारें भरभराती थीं

चेहरे मिट्टी से सने।

और इन सबके बीच उभरी एक चर्च

और सब गड़बड़ा गया।

-

हार मत ! एक कोशिश और कर।

मेरे मन ने कहा।

साहस जुटाए  फिर कलम उठाई।

नया कागज़ लाईए नई जगह बैठी।

सोचने लगी

नैतिकता, बंधुत्व, सच्चाई

और ईमानदारी की बातें।

 

पर क्या जानती थी

कलमए जिसे मैं अपना मानती थी,

मुझे देगी दगा फिर।

मैं काव्य रचना चाहती थी,

वह गणना करने लगी।

हज़ारों नहीं, लाखों नहीं

अरबों-खरबों के सौदे पटाने लगी।

इसी में उसको, अपनी जीत नज़र आने लगी।

-

हारकर मैंने भारत-माता को पुकारा।

-

नमन किया,

और भारत-माता के सम्मान में

लिखने के लिए बस एक गीत

अपने कागज़-कलम को नये सिरे से संवारा।

-

पर, भूल गई थी मैं,

कि भारत तो कब का इंडिया हो गया

और माता का सम्मान तो कब का खो गया।

कलम की नोक तीखे नाखून हो गई।

विवस्त्र करते अंग-अंग,

दैत्य-सी चीखती कलम,

कागज़ पर घिसटने लगी,

मानों कोई नवयौवना सरेआम लुटती,

कागज़ उसके वस्त्र का-सा

तार-तार हो गया।

आज की माता का यही सत्कार हो गया।

-

किस्सा रोज़ का था।

कहां तक रोती या चीखती

किससे शिकायत करती।

धरती बंजर हो गई।

मैं लिख न सकी।

कलम की स्याही चुक गई।

कलम की नोक मुड़ गई ! !

-

मित्रो ! चाहकर भी आज मै

कोई मधुर गीत ल न सकी

माफ़ करना आप मुझे

देशप्रेम, एकता, सौहार्द पर

कोईए नई रचना बना न सकी!!

 

 

मेरा भारत महान

ऐसे चित्र देखकर

मन द्रवित, भावुक होता है,

या क्रोधित,

अपनी ही समझ नहीं आता।

.

कुछ कर नहीं सकते,

या करना नहीं चाहते,

किंतु बनावट की कहानियां,

इस तरह की बानियां,

गले नहीं उतरतीं।

मेरा भारत महान है।

महान ही रहेगा।

पर रोटी, कपड़ा, मकान

की बात कौन करेगा?

सोचती हूं

बच्चे के हाथ में

किसने दी

स्लेट और चाॅक,

और कौन सिखा रहा

इसे लिखना

मेरा भारत महान?

स्लेट की जगह दो रोटी दे देते,

और देते पिता को कोई काम।

बच्चे के तन पर कपड़े होते,

तब शायद मुझे लगता,

मेरा भारत और भी ज़्यादा महान।

 

कहलाने को ये सन्त हैं

साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,

भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,

कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,

हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते

इसे राजनीति कहते हैं

आजकल हम

एक अंगुली से

एक मशीन पर

टीका करते हैं,

किसी की

कुर्सी खिसक जाती है,

किसी की टिक जाती है।

कभी सरकारें गिर जाती हैं,

कभी खड़ी हो जाती हैं।

हम हतप्रभ से

देखते रह जाते हैं,

हमने तो किसी और को

टीका किया था,

अभिषेक

किसी और का चल रहा है।

 

अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं

शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ

व्यर्थ हो गये हैं।

हर शब्द 

एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।

जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है

तो मन डरता है

कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।

और जब समाचार गूंजता है

पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है

तो स्पष्ट जान जाते हैं हम

कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं

कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर  घायल पड़े हैं।

शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा

और हमें अब अपने आपको

घर में बन्द करना होगा ।

अहिंसा के उद्घोष से

घटित हिंसा का बोध होता है।

26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन

और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर

मात्र एक अवकाश का एहसास होता है

न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।

धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,

सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह

जैसे शब्द डराते हैं अब।

वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,

स्कैम, घोटाले जैसे शब्द

अब बेमानी हो गये हैं

जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।

“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”

के उद्घोष से हमारे भीतर

देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती

अपितु अपने आस-पास

किसी दल का एहसास खटकता है

और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर

हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता

अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े

घनी दाढ़ी और बालों के साथ

कूदता-फांदता दिखाई देता है

जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर

पलायन किया था।

कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है

तो मायावती होने का एहसास होता है

और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।

 

कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।

कहीं आप उब तो नहीं गये

चलो आज यहीं समाप्त करती हूं

बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर

फिर कभी आउंगी

अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें

और अन्त में, मैं अब

बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और

सम्मान शब्‍दों   के

नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।

ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी

या फिर उनमें जा मिलूंगी

फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।

 

वास्तविकता में नहीं जीते हम

मैं जानती हूं

मेरी सोच कुछ टेढ़ी है।

पर जैसी है

वैसा ही तो लिखूंगी।

* *  *  * 

नारी के

इस तरह के चित्र देखकर

आप सब

नारीत्व के गुण गायेंगे,

ममता, त्याग, तपस्या

की मूर्ति बतायेंगे।

महानता की

सीढ़ी पर चढ़ायेंगे।

बच्चों को गोद में

उठाये चल रही है,

बच्चों को

कष्ट नहीं देना चाहती,

नमन है तेरे साहस को।

 

अब पीछे

भारत का मानचित्र दिखता है,

तब हम समझायेंगे

कि पूरे भारत की नारियां

ऐसी ही हुआ करती हैं।

अपना सर्वस्व खोकर

बच्चों का पालन-पोषण करती हैं।

फिर हमें याद आ जायेंगी

दुर्गा, सती-सीता, सावित्री,

पद्मिनी, लक्ष्मी बाई।

हमें नहीं याद आयेंगी

कोई महिला वैज्ञानिक, खिलाड़ी

प्रधानमंत्री, राष्ट््रपति,

अथवा कोई न्यायिक अधिकारी

पुलिस, सेना अधिकारी।

समय मिला

तो मीडिया वाले

साक्षात्कार लेकर बतायेंगे

यह नारी

न न, नारी नहीं,

मां है मां ! भारत की मां !

मेहनत-मज़दूरी करके

बच्चों को पाल रही है।

डाक्टर-इंजीनियर बनाना चाहती है।

चाहती है वे पुलिस अफ़सर बनें,

बड़े होकर मां का नाम रोशन करें,

वगैरह, वगैरह।

 

* *  *  * 

लेकिन इस चित्र में

बस एक बात खलती है।

आंसुओं की धार

और अच्छी बहती,

गर‘ मां के साथ

लड़कियां दिखाते,

तो कविता लिखने में

और ज़्यादा आनन्द पाते।

* *  *  * 

वास्तव में

जीवन की

वास्तविकता में नहीं जीते हम,

बस थोथी भावुकता परोसने में

टसुए बहाने में

आंसू टपकाने में,

मज़ा लेते हैं हम।

* *  *  * 

ओहो !

एक बात तो रह ही गई,

इसके पति, बच्चों के पिता की

कोई ख़बर मिले तो बताना।

 

आज का रावण

 

हमारे शास्त्रों में, ग्रंथों में जो कथाएं सिद्ध हैं, आम जन तक पहुंचते-पहुंचते बहुत बदल जाती हैं। सत्य-असत्य से अलग हो जाती हैं। हमारी अधिकांश कथाओं के आधार और परिणाम वरदान और श्राप पर आधारित हैं।

प्राचीन ग्रंथों एवं रामायण में वर्णित कथानक के अनुसार रावण एक परम शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी योद्धा, अत्यन्त बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकाण्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका कहा जाता है।

हिन्दू ज्योतिषशास्त्र में रावण संहिता को एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है और इसकी रचना रावण ने की थी।

   रावण ने राम के लिए उस पुल के लिए यज्ञ किया, जिसे पारकर राम की सेना लंका पहुंच सकती थी, यह जानते हुए भी रावण ने राम के निमन्त्रण को स्वीकार किया और अपना कर्म किया।

 

 रावण अपने समय का सबसे बड़ा विद्वान माना जाता है और रामायण के अनुसार जब रावण मृत्यु शय्या पर था तब राम ने लक्ष्मण को रावण से शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया था और रावण ने यहां भी अपना कर्म किया था।

   निःसंदेह हमारी धार्मिकता, आस्था, विश्वास, चरित्र आदि विविध गुणों के कारण राम का चरित्र सर्वोपरि है। रावण रामायण का एक केंद्रीय प्रतिचरित्र है। रावण लंका का राजा था। रामकथा में रावण ऐसा पात्र है, जो राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने का काम करता है।

रावण राक्षस कुल का था, अतः उसकी वृत्ति भी राक्षसी ही थी। यही स्थिति शूर्पनखा की भी थी। उसने प्रेम निवेदन किया, विवाह-प्रस्ताव किया जिसे   राम एवं लक्ष्मण ने अस्वीकार किया। इस अस्वीकार का कारण सीता को मानते हुए शूर्पनखा ने सीता को हानि पहुंचाने का प्रयास किया, इस कारण लक्ष्मण ने शूर्पनखा को आहत किया, उसकी नाक काट दी।

रावण ने घटना को जानकर अपनी बहन का प्रतिशोध लेने के लिए सीता का अपहरण किया, किन्तु उसे किसी भी तरह की कोई हानि नहीं पहुंचाई। रावण अपनी पराजय भी जानता था किन्तु फिर भी उसने बहन के सम्मान के लिए अपने हठ को नहीं छोड़ा।

   समय के साथ एवं साहित्येतिहास में कुछ प्रतीक रूढ़ हो जाते हैं, और फिर वे ही उसकी अर्थाभिव्यक्ति बन कर रह जाते हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में यह कथा रूढ़ हुई और रावण के गुणों पर उसका  कृत्य हावी हुआ। किसी भी समाज के उत्थान के लिए इससे अच्छी बात कोई नहीं कि अच्छाई का प्रचार हो, हमारे भीतर उसका समावेश हो, और हम उस परम्परा को आगे बढ़ाएं। राम-कथा हमें यही सिखाती है। किन्तु गुण-अवगुण दोनों में एक संतुलन बना रहे, यह हमारा कर्तव्य है।

बात करते हैं आज के रावण की।

आज के दुराचारियों अथवा कहें दुष्कर्मियों को रावण कह कर सम्बोधित किया जा रहा है। वर्तमान समाज के अपराधियों को, महिलाओं पर अत्याचार करने वाले युवकों को रावण कहने का औचित्य। क्या सत्य में ही दोनों के अपराध समान हैं । यदि अपराध समान हैं तो परिणाम क्यों नहीं समान हैं?

किन्तु आज कहां है रावण ?

आज रावण नहीं है। यदि रावण है तो राम भी होने चाहिए। किन्तु राम भी तो नहीं है।

 

आज वे उच्छृंखल युवक हैं जो निडर भाव से अपराधों में लिप्त हैं। वे जानते हैं वे अपने हर अपकृत्य से बच निकलेंगे। समाज एवं परम्पराओं के भय से पीड़ित अपनी व्यथा प्रकट नहीं करेगा, और यदि कर भी देगा तब भी परिवार से तो संरक्षण मिलेगा ही, अपने दांव-पेंच से कानून से भी बच निकलेंगे।

रावण शब्द का प्रयोग बुराई के प्रतीक के रूप में किया जाता है। उस युग में तो राम थे, रावण रूपी बुराई का अन्त करने के लिए। आज हम उस रावण का पुतला जलाने के लिए तो तैयार बैठे रहते हैं वर्ष भर। आज हमने बुराई का प्रतीक रावण तो बना लिया किन्तु उसके समापन के लिए राम कौन-कौन बनेगा?

 

   यदि हम रावण शब्द का प्रयोग बुराई के प्रतीक के रूप में करते हैं तो इस बुराई को दूर करने के उपाय अथवा साधन भी सोचने चाहिए। बेरोजगारी, अशिक्षा, पिछड़ापन, रूढ़ियों के रावण विशाल हैं। लड़कियों में डर का रावण और युवकों में छूट का रावण हावी है।

जिस दिन हम इससे विपरीत मानसिकता का विकास करने में सफल हो गये, उस दिन हम रावण की बात करना छोड़ देंगे। अर्थात् किसी के भी मन में अपराध का इतना बड़ा डर हो कि वह इस राह पर कदम ही न बढ़ा पाये और जिसके प्रति अपराध होते हैं वे इतने निडर हों कि अपराधी वृत्ति का व्यक्ति आंख उठाकर देख भी न पाये।

यदि फिर भी अपराध हों,  तो हम जिस प्रकार आज राम को स्मरण कर अच्छाई की बात करते हैं, वैसे ही सत्य का समर्थन करने का साहस करें और जैसे आज रावण को एक दुराचारी के रूप में स्मरण करते हैं वैसे ही अपराधी के प्रति व्यवहार करें, तब सम्भव है कोई परिवर्तन दिखाई दे, और आज का रावण लुप्त हो।

 

कौन है अपना कौन पराया कैसे जानें हम

अधिकार भी व्यापार हो गये हैं

तंग गलियों में हथियार हो गये हैं।

किसको मारें किसको काटें

कौन जलेगा, कहां मरेगा

अब क्या जानें हम।

अंधेरी राहों में भटक रहे हैं

अपने ही चेहरों से अनजाने हम।

दिन की भटकन छूट गई

रातें भीतर बिखर गईं

कौन है अपना कौन पराया

कैसे जानें हम।

अनजानी राहों पर

किसके पीछे

क्यों निकल पड़े हैं

 

इतना भी न जाने हम।

अपना ही घर फूंक रहे हैं,

राख में मोती ढूंढ रहे हैं,

श्मशानों में न घर बनते

इतना कब जानेंगे हम।

 

कौन है राजा, कौन है रंक

जीत हार की बात न करना

गाड़ी यहां अड़ी हुई है।

कितने आगे कितने पीछे,

किसकी आगे, किसकी पीछे,

जांच अभी चली हुई है।

दोपहिए पर बैठे पांच,

चौपहिए में दस-दस बैठें,

फिर दौड़ रहे बाजी लेकर,

कानून तोड़ना हक है मेरा

देखें, किसकी दाल यहां गली हुई है।

गली-गली में शोर मचा है

मार-काट यहां मची हुई है।

कौन है राजा, कौन है रंक

जांच अभी चली हुई है।

राजा कहता मैं हूं रंक,

रंक पूछ रहा तो मैं हूं कौन

बात-बात में ठनी हुई है।

सड़कों पर सैलाब उमड़ता

कौन सही है कौन नहीं है,

आज यहां हैं कल वहां थे,

क्यों सोचे हम,

हमको क्या पड़ी हुई है।

कल हम थे, कल भी होंगे,

यही समझकर

अपनी जेब भरी हुई है।

 

अभी तो चल रही दाल-रोटी

जिस दिन अटकेगी

उस दिन हम देखेंगे

कहां-कहां गड़बड़ी हुई है।

अभी क्या जल्दी पड़ी हुई है।

 

पुरानी कथाओं से सीख नहीं लेते

 

पता नहीं

कब हम इन

कथा-कहानियों से

बाहर निकलेंगे।

पता नहीं

कब हम वर्तमान की

कड़वी सच्चाईयों से

अपना नाता जोड़ेंगे।

पुरानी कथा-कहानियों को

चबा-चबाकर,

चबा-चबाकर खाते हैं,

और आज की समस्याओं से

नाता तोड़ जाते हैं।

प्रभु से प्रेम की धार बहाईये,

किन्तु उनके मोह के साथ

मानवता का नाता भी जोड़िए।

पुस्तकों में दबी,

कहानियों को ढूंढ लेते हैं,

क्यों उनके बल पर

जाति और गरीबी की

बात उठाते हैं।

राम हों या कृष्ण

सबको  पूजिए,

पर उनके नाम से आज

बेमतलब की बातें मत जोड़िए।

उनकी कहानियों से

सीख नहीं लेते,

किसी के लिए कुछ

नया नहीं सोचते,

बस, चबा-चबाकर,

चबा-चबाकर,

आज की समस्याओं से

मुंह मोड़ जाते हैं।

कहां है तबाही कौन सी आपदा

कहां है आपदा,

कहां हुई तबाही,

कोई विपदा नहीं कहीं।

 

कुछ मर गये,

कुछ भूखे रह गये।

किसी को चिकित्सा नहीं  मिल पाई।

आग लगी या

भवन ढहा,

कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा।

करोड़ों-अरबों में

अब किस-किस को देखेंगे?

घर-घर जाकर

किस-किसको पूछेंगे।

आसमान से तो

कह नहीं कर सकते,

बरसना मत।

सूरज को तो रोक नहीं सकते,

ज़्यादा चमकना मत।

सड़कों पर सागर है,

सागर में उफ़ान,

घरों में तैरती मछलियां देखीं आज,

और नदियों में बहते घर

तो कहां है विपदा,

कहां है तबाही,

कौन सी आपदा।

बड़े-बड़े शहरों में

छोटी-छोटी बातें

तो होती रहती हैं सैटोरीना।

ज़्यादा मत सोचा कर।

 

 

कानून तोड़ना हक है मेरा

जीत हार की बात न करना

गाड़ी यहां अड़ी हुई है।

कितने आगे कितने पीछे,

किसकी आगे, किसकी पीछे,

जांच अभी चली हुई है।

दोपहिए पर बैठे पांच,

चौपहिए में दस-दस बैठें,

फिर दौड़ रहे बाजी लेकर,

कानून तोड़ना हक है मेरा

देखें, किसकी दाल यहां गली हुई है।

गली-गली में शोर मचा है

मार-काट यहां मची हुई है।

कौन है राजा, कौन है रंक

जांच अभी चली हुई है।

राजा कहता मैं हूं रंक,

रंक पूछ रहा तो मैं हूं कौन

बात-बात में ठनी हुई है।

सड़कों पर सैलाब उमड़ता

कौन सही है कौन नहीं है,

आज यहां हैं कल वहां थे,

क्यों सोचे हम,

हमको क्या पड़ी हुई है।

कल हम थे, कल भी होंगे,

यही समझकर

अपनी जेब भरी हुई है।


 

अभी तो चल रही दाल-रोटी

जिस दिन अटकेगी

उस दिन हम देखेंगे

कहां-कहां गड़बड़ी हुई है।

अभी क्या जल्दी पड़ी हुई है।

रोज़ की ही कहानी है

जब जब कोई घटना घटती है,

हमारी क्रोधाग्नि जगती है।

हमारी कलम

एक नये विषय को पाकर

लिखने के लिए

उतावली होने लगती है।

समाचारों से हम

रचनाएं रचाते हैं।

आंसू शब्द तो सम्मानजनक है,

लिखना चाहिए

टसुए बहाते हैं।

दर्द बिखेरते हैं।

आधी-अधूरी जानकारियों को

राजनीतिज्ञों की तरह

भुनाते हैं।

वे ही चुने शब्द

वे ही मुहावरे

देवी-देवताओं का आख्यान

नारी की महानता का गुणगान।

नारी की बेचारगी,

या फिर

उसकी शक्तियों का आख्यान।

 

पूछती हूं आप सबसे,

कभी अपने आस-पास देखा है,

एक नज़र,

कितना करते हैं हम नारी का सम्मान।

कितना दिया है उसे खुला आसमान।

उसकी वाणी की धार को तराशते हैं,

उसकी आन-बान-शान को संवारते हैं,

या फिर

ऐसे किस्सों से बाहर निकलने के बाद

कुछ अच्छे उपहासात्मक

चुटकुले लिख डालते हैं।

आपसे क्या कहूं,

मैं भी शायद

यहीं कहीं खड़ी हूं।

काजल पोत रहे अंधे

अंधे के हाथ बटेर लगना,

अंधों में काना राजा, 

आंख के अंधे नाम नयनसुख,

सुने थे कुछ ऐसे ही मुहावरे।

पर आज ज्ञात हुआ

यहां तो

काजल पोत रहे अंधे।

बड़ी असमंजस की स्थिति बन आई है।

क्यों काजल पोत रहे अंधे।

किसके चेहरे पर हाथ

साफ़ कर रहे ये बंदे।

काजल लगवाने के लिए

उजले मुख लेकर

कौन घूम रहे बंदे।

अंधे तो पहले ही हैं

और कालिमा लेकर

अब कर रहे कौन ये धंधे।

 

कालिमा लग जाने के बाद

कौन बतलायेगा,

कौन समझायेगा,

कैसे लगी, किसने लगाई।

किसके लगी, कहां से आई।

काजल की है, या कोयले की,

या कर्मोa की,

करेगा कौन निर्णय।

कहीं ऐसा तो नहीं

जो पोत रहे काजल,

सब हैं आंख से चंगे,

और हम ही बन रहे अंधे।

 

क्योंकि हम देखने से डरने लगे हैं।

समझने से कतराने लगे हैं।

सच बोलने से हटने लगे हैं।

अधिकार की बात करने से बचने लगे हैं।

किसी का साथ देने से कटने लगे हैं।

और

गांधी के तीन बन्दर बनने में लगे हैं ।

न देखो, न सुनो, न बोलो।

‘‘बुरा’’ तो गांधी जी के साथ ही चला गया।

 

भीड़-तन्त्र

आज दो किस्से हुए।

एक भीड़-तन्त्र स्वतन्त्र हुआ।

मीनारों पर चढ़ा आदमी

आज मस्त हुआ।

28 वर्ष में घुटनों पर चलता बच्चा

युवा हो जाता है,

अपने निर्णय आप लेने वाला।

लेकिन उस भीड़-तन्त्र को

कैसे समझें हम

जो 28 वर्ष पहले दोषी करार दी गई थी।

और आज पता लगा

कितनी निर्दोष थी वह।

हम हतप्रभ से

अभी समझने की कोशिश कर ही रहे थे,

कि ज्ञात हुआ

किसी खेत में

एक मीनार और तोड़ दी

किसी भीड़-तन्त्र ने।

जो एक लाश बनकर लौटी

और आधी रात को जला दी गई।

किसी और भीड़-तन्त्र से बचने के लिए।

28 वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

यह जानने के लिए

कि अपराधी कौन था,

भीड़-तन्त्र तो आते-जाते रहते हैं,

परिणाम कहां दे पाते हैं।

दूध की तरह उफ़नते हैं ,

और बह जाते हैं।

लेकिन  कभी-कभी

रौंद भी दिये जाते हैं।

 

कामधेनु कुर्सी बनी

 

समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,

राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,

गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,

कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।

बस आपको गरीबी हटाने की बात नहीं करनी चाहिए।

कितना मुश्किल है

गरीबी पर कुछ लिखना।

डर लगता है

कोई अमीर पढ़ न ले,

और रूष्ट हो जाये मुझसे।

मेरे देश के कितने अमीर

आज भी भीतर से

गरीबी से उलझे-दबे बैठै हैं।

गरीबी की रोटियां निचोड़ रहे हैं।

सोने-चांदी के वर्कों में लिपटा आदमी

अपनी गरीबी की कहानी

बताता है हमें,

रटाता है हमें,

बार-बार सुनाता है हमें,

तब कहीं जाकर

गरीबी की महिमा समझ आती है।

तब कहीं जान पाते हैं,

कौन सड़क पर सोया था,

किसने रातें बिताईं थीं

फुटपाथ पर,

किसने क्या बेचा था

और माफ़ करना,

आज भी बेच रहा है।

और कौन रहा था भूखा

दिनों-दिनों तक।

अभी जब यह आदमी

अपनी गरीबी से ही नहीं

निकल पाया

तो देश की गरीबी को क्या जानेगा।

 

बस आपको

गरीबी हटाने की बात करनी आनी चाहिए।

गरीबी हटाने की बात नहीं करनी चाहिए।


 

कृष्ण एक अवतार बचा है ले लो

अपने जन्मदिवस पर,

आनन्द पूर्वक,

परिवार के साथ,

आनन्दमय वातावरण में,

आनन्द मना रही थी।

पता नहीं कहां से

कृष्ण जी पधारे,

बोले, परसों मेरा भी जन्मदिन था।

करोड़ों लोगों ने मनाया।
मैं बोली

 तो मेरे पास क्या करने आये हो?

मैंने तो नहीं मनाया।

बोले,

 इसी लिए तो तुम्हें ही

अपना आशीष देने आया हूं,

बोले] जुग-जुग जीओ बेटा।

पहले तो मैंने उन्हें डांट दिया,

अपना उच्चारण तो ठीक करो,

जुग नहीं होता, युग होता है।

इससे पहले कि वह

डर कर चले जाते,

मैंने रोक लिया और पूछा,

हे कृष्ण! यह तो बताओ

कौन से युग में जीउं ?

मेरे इस प्रश्न पर कृष्ण जी

तांक-झांक करने लगे।

मैंने कहा, केक खाओ,

और मेरे प्रश्न सुलझाओ।

 

हर युग में आये तुम।

हर युग में छाये तुम।

 

पर मेरी समझ कुछ छोटी है

बुद्धि ज़रा मोटी है।

कुछ समझाओ मुझे तुम।

पढ़ा है मैंने

24 अवतार लिए तुमने।

कहते हैं

सतयुग सबसे अच्छा था,

फिर भी पांच अवतार लिये तुमने।

दुष्टों का संहार किया

अच्छों को वरदान दिया।

त्रेता युग में तीन रूप लिये

और द्वापर में अकेले ही चले आये।

 

कहते हैं,

यह कलियुग है,

घोर पाप-अपराध का युग है।

मुझे क्या लेना

किस युग में तुमने क्या किया।

किसे दण्ड दिया,

और किसे अपराध मुक्त किया।

एक अवतार बचा है

ले लो, ले लो,

नयी दुनिया देखो

इस युग में जीओ,

केक खाओ और मौज करो।

 

खास नहीं आम ही होता है आदमी

खास कहां होता है आदमी

आम ही होता है आदमी।

 

जो आम नहीं होता

वह नहीं होता है आदमी।

वह होता है

कोई बड़ा पद,

कोई उंची कुर्सी,

कोई नाम,

मीडिया में चमकता,

अखबारों में दमकता,

करोड़ों में खेलता,

किसी सौदे में उलझा,

कहीं झंडे गाढ़ता,

लम्बी-लम्बी हांकता

विमान से नीचे झांकता

योजनाओं पर रोटियां सेंकता,

कुर्सियों की

अदला-बदली का खेल खेलता,

अक्सर पूछता है

कहां रहता है आम आदमी,

कैसा दिखता है आम आदमी।

क्यों राहों में आता है आम आदमी।

कैसा है ये अद्भुत दरबार

 

आर-पार मेरी सरकार।

दे दे दो वोट मेरे यार।

कौन है सच्चा, कौन है झूठा,

बस इनकी जीत, हमारी हार।

इसको छोड़ें उसको पकड़ें,

इसको पकड़ें, उसको छोड़ें,

करें यही हम बारम्बार।

कौन है मंत्री, कौन है सन्तरी,

कैसे समझें हम हर बार।

वोट दिया था किसी को हमने,

सत्ता पर बैठा कोई और।

इस उलट-फेर को

कोई तो समझाओ यार।

कहां पहचान है

किसका सिर और किसका द्वार,

दांत मेरे उखड़ रहे]

टोपी तेरी सरक रही]

कैसा है ये अद्भुत दरबार।

हम गिनते हैं सिक्के,

भूखे मरते हैं लाचार।

कोरोना में झूलें हम,

बाढ़ों में डूबे हम।

करोड़ों में ये बिक रहे,

हम फिर भी वोटों में है सिक रहे।

सारा दिन किसी चलचित्र-सा

इनका मजमा चल रहा

हाथ पर हाथ धरे बैठे हम लाचार।

अपना सिर फोड़ सकें,

लाओ ऐसी कोई दीवार।

कोल्हू के बैल सरकारी मेहमान हो गये हैं

कोल्हू के बैलों की

आजकल

नियुक्ति बदल गई है,

कुछ कार्यविधि भी।

गांवों से शहरों में

विस्थापित होकर

सरकारी मेहमान हो गये हैं।

अब वे पिसते नहीं

पीसते हैं तेल।

वे किस-किसका तेल निकालते हैं

पता नहीं।

यह भी पता नहीं लग पा रहा

कि कौन-सा तेल निकालते हैं।

वैसे तो पिछले 18 दिन से

चर्चा में है कोई तेल,

वही निकाल रहे हैं

या कोई और।

एक समिति का गठन

कर लिया गया है जांच के लिए।

पर कोई भी तेल निकालें

अन्ततः

निकलना तो हमारा ही है।

किन्तु ध्यान रहे

पीपा लेकर मत आ जाना

भरने के लिए।

इस तेल से रोटी न बना डालना,

क्योंकि, अभी सरकारी जांच जारी है,

कोई विदेशी सामान न लगा हो कोल्हू में।

 

प्रकृति जब तेवर दिखाती है

जीवन-अंकुरण

प्रकृति का स्व-नियम है।

नई राहें

आप ढूंढती है प्रकृति।

जिजीविषा, न जाने

किसके भीतर कहां तक है,

इंसान कहां समझ पाया।

 

जीवन में हम

बनाते रह जाते हैं

नियम कानून,

बांधते हैं सरहदें,

कहां किसका अधिकार,

कौन अनधिकार।

प्रकृति

जब तेवर दिखाती है,

सब उलट-पुलट कर जाती है।

हालात तो यही कहते हैं,

किसी दिन रात में उगेगा सूरज

और दिन में दिखेंगें तारे।

सरकार यहां पर सोती है

पत्थरों को पूजते हैं, इंसानियत सड़कों पर रोती है।

बस मन्दिर खुलवा दो, मौत सड़कों पर होती है।

मेहनतकश मज़दूरों को देख-देखकर दिल दहला है।

चुप रहना, शोर न करना, सरकार यहां पर सोती है।

नहीं समझ पाते स्याह सफ़ेद में अन्तर

गिरगिट की तरह

यहां रंग बदलते हैं लोग।

बस,

बात इतनी सी

कि रंग

कोई और चढ़ा होता है

दिखाई और देता है।

समय पर

हम कहां समझ पाते हैं

स्याह-सफ़ेद में अन्तर।

कब कौन

किस रंग से पुता है

हम देख ही नहीं पाते।

कब कौन

किस रंग में आ जाये

हम जान ही नहीं पाते।

अक्सर काले चश्मे चढ़ाकर

सफ़ेदी ढूंढने निकलते हैं।

रंगों से पुती है दुनिया,

कब किसका रंग उतरे,

और किस रंग का परदा चढ़ जाये

हम कहां जान पाते हैं।

नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे

कहीं नोट पर चित्र छपेगा, कहीं सड़क, पुल पर नाम होगा

कोई कहेगा अवकाश कीजिए, कहीं पुस्तकों में एक पाठ होगा

नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे, दुर्घटना घटे

कहीं झण्डे उठेंगे,डण्डें भिड़ेगें, कहीं बन्द का आह्वान होगा

नहीं जानें कौन अपराधी कौन महान

बहन के मान के लिए रावण ने लगाया था दांव पर सिंहासन

पर-आरोपों के घेरे में राम ने त्यागा पत्नी को बचाया सिंहासन

युग बदला, रावण को हम अपराधी मानें, दुर्गा का करें विसर्जन

विभीषण की न बात करें जिसने कपट कर पाया था सिंहासन

जब चाहिए वरदान तब शीश नवाएं

जब-जब चाहिए वरदान तब तब करते पूजा का विधान

दुर्गा, चण्डी, गौरी सबके आगे शीश नवाएं करते सम्मान

पर्व बीते, भूले अब सब, उठ गई चौकी, चल अब चौके में

तुलसी जी कह गये,नारी ताड़न की अधिकारी यह ले मान।।

कितने बन्दर झूम रहे हैं

शेर की खाल ओढ़कर शहर में देखो गीदड़ घूम रहे हैं

टूटे ढोल-पोल की ताल पर देखो कितने बन्दर झूम रहे हैं

कौन दहाड़ रहा पता नहीं, और कौन कर रहा हुआं-हुंआ

कौन है असली, कौन है नकली, गली-गली में ढूंढ रहे है।

इंसानियत गमगीन हुई है

जबसे मुट्ठी रंगीन हुई हैं,

तब से भावना क्षीण हुई हैं।

बात करते इंसानियत की

पर इंसानियत

अब कहां मीत हुई है।

रंगों से पहचान रहे,

हम अपनों को  

और परख रहे परायों को,

देखो यहां

इंसानियत गमगीन हुई है।

रंगों को बांधे  मुट्ठी में

इनसे ही अब पहचान हुई है।

बाहर से कुछ और दिखें

भीतर रंगों में तकरार हुई है।

रंगों से मिलती रंगीनियां

ये  पुरानी बात हुई है।

बन्द मुट्ठियों से अब मन डरता है

न जाने कहां क्या बात हुई है।

 

चल मुट्ठियों को खोलें

रंग बिखेरें,

तू मेरा रंग ले ले,

मैं तेरा रंग ले लूं

तब लगेगा, कोई बात हुई है।

कहते हैं हाथ की है मैल रूपया

जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया

जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया

मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया

देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया

कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया

छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया

टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई

मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई

जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई

सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं

मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं

किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया

इससे बेहतर योग चला लें, चल  मुफ्त की रोटी खाएं भैया