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गगन पर बिखरी रंगीनिया
सूरज की किरणें देखो नित नया कुछ लाती है
भोर की आभा देखो नित नये रूप सजाती है
पत्ते-पत्ते पर खेल रही ओस की बूंदे झिलमिल
गगन पर बिखरी रंगीनिया देखो नित लुभाती है।
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लीक पीटना छोड़ दें
युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं।
राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं।
कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]
लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं।
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नश्वर जीवन का संदेश
देखिए, दीप की लौ सहज-सहज मुस्काती है
सतरंगी आभा से मन मुदित कर जाती है
दीपदान रह जायेगा लौ रूप बदलती रहती है
मिटकर भी पलभर में कितनी खुशियां बांट जाती है
लहराकर नश्वर जीवन का संदेश हमें दे जाती है
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कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर
जीवन एक बहती धारा है, जब चाहे, नित नई राहें बदले
कभी दुख की घनघोर घटाएं, कभी सरस-सरस घन बरसें
पल-पल साथी बदले, कोई छूटा, कभी नया मीत मिला
कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर यही जीवन है, पगले
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मन का ज्वार भाटा
सरित-सागर का ज्वार
आज
मन में क्यों उतर आया है
नीलाभ आकाश
व्यथित हो
धरा पर उतर आया है
चांद लौट जायेगा
अपने पथ पर।
समय के साथ
मन का ज्वार भी
उतर जायेगा।
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मानव का बन्दरपना
बहुत सुना और पढ़ा है मैंने
मानव के पूर्वज
बन्दर हुआ करते थे।
अब क्या बताएं आपको,
यह भी पढ़ा है मैंने,
कि कुछ भी कर लें
आनुवंशिक गुण तो
रह ही जाते हैं।
वैसे तो बहुत बदल लिया
हमने अपने-आपको,
बहुत विकास कर लिया,
पर कभी-कभी
बन्दरपना आ ही जाता है।
ताड़ते रहते हैं हम
किसके पेड़ पर ज़्यादा फ़ल लगे हैं,
किसके घर के दरवाजे़ खुले हैं,
बात ज़रूरत की नहीa]
आदत की है,
बस लूटने चले हैं।
कहलाते तो मानव हैं
लेकिन जंगलीपन में मज़ा आता है
दूसरों को नोचकर खाने में
अपने पूर्वजों को भी मात देते हैं।
बेचारे बन्दरों को तो यूं ही
नकलची कहा जाता है,
मानव को औरों के काम
अपने नाम हथियाने में
ज़्यादा मज़ा आता है।
कहने को तो आज
आदमी बन्दर को डमरु पर नचाता है,
पर अपना नाच कहां देख पाता है।
बन्दर तो आज भी बन्दर है
और अपने बन्दरपने में मस्त है
लेकिन मानव
न बना मानव , न छोड़ पाया
बन्दरपना
बस एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर
कूदता-फांदता दिखाई देता है।
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ठकोसले बहुत हैं
न मन थका-हारा, न तन थका-हारा
किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा
यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं
किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा
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काश! कह सकूं याद नहीं अब
मैंने कब चलना सीखा
किसने सिखलाया था मुझको,
किसने थामी थी अंगुली
किसने गिरते से उठाया था मुझको,
याद नहीं अब।
कब छूटा था हाथ मेरा,
कब नया हाथ थामा था,
संगी-साथी थे मेरे
या फ़िर चली
अकेली जीवन-पथ पर
किसने समझाया था मुझको,
याद नहीं अब।
कहीं सरल-सुगम राहें थीं
कहीं अनगढ़ दीवारें थीं।
कहीं कंकड़ -पत्थर थे
कहीं पर्वत-सी बाधाएं थीं
क्या चुना था मैंने
याद नहीं अब।
राहों से राहें निकली थीं,
इधर-उधर भटक रही थी
कब लौट-लौटकर
नई शुरूआत कर रही थी,
याद नहीं अब।
क्या पाना चाहा था मैंने,
क्या खोया मैंने ,
बहुत बड़ी गठरी है।
काश!
कह सकूं,
याद नहीं अब।
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आंसुओं का क्या
भीग जाने दो आज
चेहरे को आंसुओं से,
भीतर जमी गर्द
धुल जायेगी।
नहीं चाहती मैं
कोई
उस गर्द को
छूने की कोशिश करे,
कोई पढ़े
उसके धुंधले हो चुके शब्द।
नहीं चाहती मैं
कोई कहानियां लिखे।
आंसुओं का क्या
वे तो
सुख-दुख दोनों में
बहते हैं
कौन समझता है
उनका अर्थ यहां।
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अन्तर्द्वन्द
हर औरत के भीतर
एक औरत है
और उसके भीतर
एक और औरत।
यह बात
स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है
इन औरतों की।
धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी
औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं
कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।
लेकिन
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।
औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर
लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।
इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है
समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।
जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।