जब जैसी आन पड़े वैसी होती है मां

मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें, 
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।

चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।

कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।

मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।

कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।

स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।

कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित, 
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती, 
दुर्गा, काली, चंडी,

सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी, 
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।

विचलित करती है यह बात

मां को जब भी लाड़ आता है

तो कहती है

तू तो मेरा कमाउ पूत है।

 

पिता के हाथ में जब

अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं

तो एक बार तो शर्म और संकोच से

उनकी आंखें डबडबा जाती हैं

फिर सिर पर हाथ फेरकर

दुलारते हुए कहते हैं

मुझे बड़ा नाज़ है

अपने इस होनहार बेटे पर।

 

किन्तु

मुझे विचलित करती है यह बात

कि मेरे माता पिता को जब भी

मुझ पर गर्व होता है

तो वे मुझे

बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं

बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।

दो घूंट

छोड़ के देख

एक बार

बस एक बार

दो घूंट

छोड़ के देख

दो घूंट का लालच।

 

शाम ढले घर लौट

पर छोड़ के

दो घूंट का लालच।

फिर देख,

पहली बार देख

महकते हैं

तेरी बगिया में फूल।

 

पर एक बार

 

 

बस एक बार

छोड़ के देख

दो घूंट का लालच।

 

देख

फिर देख

जिन्दगी उदास है।

द्वार पर टिकी

एक मूरत।

निहारती है

सूनी सड़क।

रोज़

दो आंखें पीती हैं।

जिन्हें, देख नहीं पाता तू।

क्योंकि

पी के आता है

तू

दो घूंट।

डरते हैं,

रोते भी हैं

फूल।

और सहमकर

बेमौसम ही

मुरझा भी जाते हैं ये फूल।

कैसे जान पायेगा तू ये सब

पी के जो लौटता है

दो घूंट।

 

एक बार, बस एक बार

छोड़ के देख दो घूंट।

 

चेहरे पर उतर आयेगी

सुबह की सुहानी धूप।

बस उसी रोज़, बस उसी रोज़

जान पायेगा

कि महकते ही नहीं

चहकते भी हैं फूल।

 

जिन्दगी सुहानी है

हाथ की तेरे बात है

बस छोड़ दे, बस छोड़ दे

दो घूंट।

 

बस एक बार, छोड़ के देख

दो घूंट का लालच ।

कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये

हम रह-रहकर मरम्मत करवाते रहे

लोग टूटी छतें आजमाते रहे।

दरारों से झांकने में

ज़माने को बड़ा मज़ा आता है

मौका मिलते ही दीवारें तुड़वाते रहे।

छत  तक जाने के लिए

सीढ़ियां चिन दी

पर तरपाल डालने से कतराते रहे।

कब आयेगी बरसात, कब उड़ेंगी आंधियां

ज़िन्दगी कभी बताती नहीं है

हम यूं ही लोगों को समझाते रहे।

कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये

उलझते रहे हम यूं ही इन बातों में

पतंग के उलझे मांझे सुलझाते रहे

अपनी उंगलियां यूं ही कटवाते रहे।

अजीब शख्स है अपना भी है और पराया भी

अजीब शख्स है

अपना भी है

और पराया भी।

 

डांटता भी है

मनुहार भी करता है।

 

राहें भी रोकता है

और

राहों में पड़े पत्थर भी संवारता है।

 

कभी फूल-सा बरसता है

तो कभी

चट्टान-सा अडिग बन जाता है।

 

जब बरसता है

मन भीग-भीग जाता है,

कभी बिजली की कड़क-सा

डराकर चला जाता है।

 

कभी रोज़ मिलता है,

कभी चांद-सा गायब हो जाता है।

 

कभी पूर्णिमा-सा दमकता है

कभी अमावस का भास देता है।

कभी दोस्त-सा लगता है

कभी दुश्मन-सा चुभता है।

 

अजीब शख्स है

अपना भी है

और पराया भी।

 

ऐसे शख्स के बिना

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी नहीं।

मानसिकता कहां बदली है

मांग भर कर रखना बेटी, सास ससुर की सब सहना बेटी
शिक्षा, स्वाबलम्बन भूलकर बस चक्की चूल्हा देखना बेटी
इस घर से डोली उठे, उस घर से अर्थी, मुड़कर न देखना कभी
कहने को इक्कीसवीं सदी है, पर मानसिकता कहां बदली है बेटी

प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां

बेवजह व्याकुल रहने की आदत सी हो गई है

बेवजह बुराईयां जताने की आदत सी हो गई है

प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां

बेवजह इनको नकारने की आदत सी हो गई है।

जिन्दगी में दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं

उपर वाला

बहुत रिश्ते बांधकर देता है

लेकिन कहता है

कुछ तो अपने लिए

आप भी मेहनत कर

इसलिए जिन्दगी में

दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं

लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी

दया दिखाता है

और एक अच्छा दोस्त झोली में

डालकर चला जाता है

लेकिन उसे समझना

और पहचानना आप ही पड़ता है।

 

कब क्या कह बैठती हूं

और क्या कहना चाहती हूं

अपने-आप ही समझ नहीं पाती

शब्द खिसकते है

कुछ अर्थ बनते हैं

भाव संवरते हैं

और कभी-कभी लापरवाही

अर्थ को अनर्थ बना देती है

 

सब कहते हैं मुझे

कम बोला कर, कम बोला कर

 

पर न जाने कितने दिन रह गये हैं

जीवन के बोलने के लिए

 

मन करता है

जी भर कर बोलूं

बस बोलती रहूं , बस बोलती रहूं

 

लेकिन ज्यादा बोलने की आदत

बहुत बार कुछ का कुछ

कहला देती है

जो मेरा अभिप्राय नहीं होता

लेकिन

जब मैं आप ही नहीं समझ पाती

तो किसी और को

कैसे समझा सकती हूं

 

किन्तु सोचती हूं

मेरे मित्र

मेरे भाव को समझोगे

हास-परिहास को समझोगे

न कि

शब्दों का बुरा मान जाओगे

उलझन को सुलझा दोगे

कान खींचोंगे मेरे

आंख तरेरोगे

न कोई

लकीर बनने दोगे अनबन की।

 

कई बार यूं ही

खिंची लकीर भी

गहरी होती चली जाती है

फिर दरार बनती है

उस पर दीवार चिनती है

इतना होने से पहले ही

सुलझा लेने चाहिए

बेमतलब मामले

तुम मेरे कान खींचो

और मै तुम्हारे

फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं

अपनी संतान के कंधों पर

हमने लाद दिये हैं

अपने अधूरे सपने,

अपनी आशाएं –आकांक्षाएं,

उनके मन-मस्तिष्क पर

ठोंक कर बैठे हैं

अपनी महत्वाकांक्षाओं की कीलें,

उनकी इच्छाओं-अनच्छिाओं पर

बनकर बैठे हैं हम प्रहरी।

आगे, आगे और आगे

निकल लें।

जितनी दूर निकल सकें,

निकल लें।

सबसे आगे, और  आगे, और आगे।

धरा को छोड़

आकाश को निगल ले।

और वे भागने लगे हैं

हमसे दूर, बहुत दूर ।

हम स्वयं ही नहीं जानते

उनके कंधों पर कितना बोझ डालकर

किस राह पर उन्हें ढकेल रहे हैं हम ।

धरा के रास्‍ते बन्‍द कर दिये हैं

उनके लिए।

बस पकड़ना है तो

आकाश ही आकाश है।

फिर शिकायत करते हैं

कुछ नहीं कर रही नई पीढ़ी

हमारे लिए ।

फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं !!!
 

कमाल है !!!!

मां के आंचल की छांव

प्रकृति का नियम है

विशाल वट वृक्ष तले

नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।

नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।

और यदि कुछ पनप भी जाये

तो उसे नाम नहीं मिलता।

पहचान नहीं मिलती।

बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने

खो जाते हैं सब।

लेकिन, एक सा वट वृक्ष भी है

जिसका अपना कोई नाम नहीं होता

कोई पहचान नहीं होती।

बस एक दीर्घ आंचल होता है

जिसके साये तले, पलती बढ़ती है

एक पूरी की पूरी पीढ़ी,

एक पूरा का पूरा युग।

अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।

नये पौधों का रोपण करती है

अपने आपको खोकर।

उन्हें नाम देती है, पहचान देती है

आंचल की छांव देती है।

पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।

युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती

नहीं छूटती आंचल की छांव।

कुछ छूट गया जीवन में

गांव तक कौन सी राह जाती है कभी देखी नहीं मैंने

वह तरूवर, कुंआ, बाग-बगीचे, पनघट, देखे नहीं मैंने

पीपल की छाया, चौपालों का जमघट, नानी-दादी के किस्से

लगता है कुछ छूट गया जीवन में, जो पाया नहीं मैंने

नाम लिखा है तुम्हारा

रोज़ एक फूल छुपाती थी किताबों में

तुम्हारे चेहरे का अक्स बनाती थी किताबों में

दिल की बात बताती थी किताबों में

फिर एक दिन किताब पुरानी हो गई

पन्ने खुलने लगे, फूल झरने लगे

सूखे फूलों को समेटा, पत्ती पत्ती को सहेजा

कोई देख न ले

इसलिए बंद मुठ्ठी में सहेजा

पर मुठ्ठी की दरारों से, चाहत झरने लगी

फूल फिर रूप लेने लगे,

रंग फिर बहकने लगे

नाम तुम्हारा लिखने लगे

दिल में बाग खिलने लगे

उपहार  भेजती हूं तुम्हें

तुम्हारा ही दिल

नाम लिखा है तुम्हारा

फूलों में, कलियों में

इन उलझी लड़ियों में

सलमे सितारों में

तारों में , हारों में ।।।।।।

घर की पूरी खुशियां बसती थी

आंगन में चूल्हा जलता था, आंगन में रोटी पकती थी,

आंगन में सब्ज़ी उगती थी, आंगन में बैठक होती थी

आंगन में कपड़े धुलते थे, आंगन में बर्तन मंजते थे

गज़ भर के आंगन में घर की पूरी खुशियां बसती थी

आनन्द है प्यार में और हार में

जीवन की नैया बार-बार अटकती है मझधार में

पुकारती हूं नाम तुम्हारा बहती जाती हूं जलधार में

कभी मिलते,कभी बिछड़ते,कभी रूठते,कभी भूलते

यही तो आनन्द है हर बार प्यार में और हार में

 

बुढ़िया सठिया गई है

प्रेम मनुहार की बात करती हूं वो मुझे दवाईयों का बक्सा दिखाता है।

तीज त्योहार पर सोलह श्रृंगार करती हूं वो मुझे आईना दिखाता है।

याद दिलाती हूं वो यौवन के दिन,छिप छिप कर मिलना,रूठना-मनाना ।

कहता है बुढ़िया सठिया गई है, पागलखाने का रास्ता दिखाता है।

सबके सपनों की गठरी बांधे

परदे में रहती थी पर परदे से बाहर की दुनिया समझाती थी मां

अक्षर ज्ञान नहीं था पर पढ़े-लिखों से ज्यादा ज्ञान रखती थी मां

सबके सपनों की गठरी बांधे,  जाने कब सोती थी कब उठती थी

घर भर में फिरकी सी घूमती पल भर में सब निपटा लेती थी मां

भीड़ का हिस्सा बन

अकेलेपन की समस्या से हम अक्सर परेशान रहते हैं

किन्तु भीड़ का हिस्सा बनने से भी तो कतराते हैं

कभी अपनी पहचान खोकर सबके बीच समाकर देखिए

किस तरह चारों ओर अपने ही अपने नज़र आते हैं

छोड़ के देख घूंट

कभी शाम ढले घर लौट, पर छोड़ के लालच के दो घूंट

द्वार पर टिकी निहारती दो आंखें हर पल पीती हैं दो घूंट

डरते हैं, रोते भी हैं पर  महकते भी हैं तेरी बगिया में फूल।

जिन्दगी सुहानी है हाथ की तेरे बात है बस छोड़ के देख घूंट।

 

विश्वास का एहसास

र दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

मन में बस सम्बल रखना

चिड़िया के बच्चे सी

उतरी थी मेरे आंगन में।

दुबकी, सहमी सी रहती थी

मेरे आंचल में।

चिड़िया सी चीं-चीं करती

दिन भर

घर-भर में रौनक भरती।

फिर कब पंख उगे

उड़ना सिखलाया तुझको।

धीरे धीरे भरना पग

समझाया तुझको।

दुर्गम हैं राहें,

तपती धरती है,

कंकड़ पत्थर बिखरे हैं,

कदम सम्हलकर रखना

बतलाया तुझको।

हाथ छोड़कर तेरा

पीछे हटती हूं।

अब तुझको

अपने ही दम पर

है आगे बढ़ना।

हिम्मत रखना।

डरना मत ।

जब मन में कुछ भ्रम हो

तो आंखें बन्द कर

करना याद मुझे।

कहीं नहीं जाती हूं

बस तेरे पीछे आती हूं।

मन में बस इतना ही

सम्बल रखना।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां

बहुत याद आती हैं

मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां

आम की फांक के साथ

अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी

स्कूल के लिए।

और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से

हम दिन भर मस्त रहते थे।

आम की फांक को तब तक चूसते थे

जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।

चूल्हे की आग में तपी रोटियां

एक बेनामी सी दाल-सब्जी

अजब-गजब स्वाद वाली

कटोरियां भर-भर पी जाते थे

आग में भुने आलू-कचालू

नमक के साथ निगल जाते थे।

चूल्हे को घेरकर बैठे

बतियाते, हंसते, लड़ते,

झीना-झपटी करते।

अपनी थाली से ज्यादा स्वाद

दूसरे की थाली में आता था।

रात की बची रोटियों का करारापन

चाय के प्याले के साथ।

और तड़का भात नाश्ते में

खट्टी-मीठी चटनियां

गुड़-शक्कर का मीठा

चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।

जिन्दगी की आग में सिंकी मां,

और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली

संघर्ष की पौष्टिकता

आज भी भीतर ज्वलन्त है।

छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी

तरसती हूं इस स्वाद के लिए।

बनाने की कोशिश करती हूं

पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।

अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद

तो मुझे ज़रूर न्यौता देना

रिश्तों की अकुलाहट

बस कहने की ही तो  बातें हैं कि अगला-पिछला छोड़ो रे

किरचों से चुभते हैं टूटे रिश्ते, कितना भी मन को मोड़ो रे

पत्थरों से बांध कर जल में तिरोहित करती रहती हूं बार-बार

फिर मन में क्यों तर आते हैं, क्यों कहते हैं, फिर से जोड़ो रे

तुम मेरी छाया हो

तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो

पर तुम्हें

अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।

हर छपक-छपाक के साथ

मिट जाते हैं पिछले निशान

और नये बनते हैं

जो आप ही सिमट जाते हैं

जल की गहराईयों में।

इस छपाछप-छपाछप से देखो तो

बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।

फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच

कहीं छूट जाती हैं,

सतरंगी आभा बिखेरकर

अन्तर्मन को छू जाती हैं।

यह जीवन का आनन्द है।

पर याद रखना

गगन की नीलाभा में

पवन के वेग में

और जल की लहरों पर

कभी कोई छाप नहीं छूटती।

इसके लिए कठोर तपती धरा पर

छोड़ने पड़ते हैं

अपने कदमों के निशान

जो सदियों-सदियों तक

ध्वनित होते हैं

गगन की उंचाईयों में

पवन के वेग में

और जल की लहरों में।

पर यह भी याद रखना

छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप

जीवन का उतना ही हिस्सा है

जितना गगन, पवन और जल में

नाम अंकित कर सकना।

एक अपनापन यूं ही

सुबह-शाम मिलते रहिए

दुआ-सलाम करते रहिए

बुलाते रहिए अपने  घर

काफ़ी-चाय पिलाते रहिए

वे पिता ही थे

वे पिता ही थे

जिन्‍होंने थामा था हाथ मेरा।

राह दिखाई थी मुझे

अंधेरे से रोशनी तक

बिखेरी थी रंगीनियां मेरे जीवन में।

और समझाया था मुझे

एक दिन छूट जायेगा मेरा हाथ

और आगे की राह

मुझे स्‍वयं ही चुननी होगी।

मुझे स्‍वयं जूझना होगा

रोशनी और अंधेरों से।

और कहा था

प्रतीक्षा करूंगा तुम्‍हारी

तुम लौटकर आओगी

और थामोगी मेरा हाथ

मेरी लाठी छीनकर।

तब

फिर घूमेंगे हम

साथ-साथ

यूं ही हाथ पकड़कर।

भाईयों को भारी पड़ती थी मां।

भाईयों को भारी पड़ती थी मां।

पता नहीं क्यों

भाईयों से डरती थी मां।

मरने पर कौन देगा कंधा

बस यही सोचा करती थी मां।

जीते-जी रोटी दी

या कभी पिलाया पानी

बात होती तो टाल जाती थी मां।

जो कुछ है घर में

चाहे टूटा-फूटा या उखड़ा-बिखरा

सब भाइयों का है,

कहती थी मां।

बेटा-बेटा कहती फ़िरती थी

पर आस बस

बेटियों से ही करती थी मां।

 

राखी-टीके बोझ लगते थे

लगते थे नौटंकी

क्या रखा है इसमें

कहते थे भाई ।

क्या देगी, क्या लाई

बस यही पूछा करते थे भाई।

पर दुनिया कहती थी

बेचारे होते हैं वे भाई

जिनके सिर पर होता है

अविवाहित बहनों का बोझा

इसी कारण शादी करने

से डरती थी मैं।

मां-बाप की सेवा करना

लड़कियों का भी दायित्व होता है

यह बात समझाते थे भाई

लेकिन घर पर कोई अधिकार नहीं

ये भी बतलाते थे भाईA

एक दूर देश में चला गया

एक रहकर भी तो कहां रहा।

 

सोचा करती थी मैं अक्सर

क्या ऐसे ही होते हैं भाई।