शोर भीतर की आहटों को

बाहर का शोर

भीतर की आहटों को

अक्सर चुप करवा देता है

और हम

अपने भीतर की आवाज़ों-आहटों को

अनसुना कर

आगे निकल जाते हैं,

अक्सर, गलत राहों पर।

मन के भीतर भी एक शोर है,

खलबली है, द्वंद्व है,

वाद-विवाद, वितंडावाद है

जिसकी हम अक्सर

उपेक्षा कर जाते हैं।

अपने-आप को सुनना ही नहीं चाहते।

कहीं डरते हैं

क्योंकि सच तो वहीं है

और हम

सच का सामना करने से

डरते हैं।

अपने-आप से डरते हैं

क्योंकि

जब भीतर की आवाज़ें

सन्नाटें का चीरती हुई

बाहर निकलेंगी

तब कुछ तो अनघट घटेगा

और हम

उससे ही बचना चाहते हैं

इसीलिए  से डरते हैं।