धरा बिना आकाश नहीं

पंख पसारे चिड़िया को देखा

मन विस्तारित आकाश हुआ

मन तो करता है

पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले

किन्तु

लौट धरा पर उतरूं कैसे,

कौन सिखलाएगा मुझको।

उंचा उड़ना बड़ा सरल है

पर कैसे जानूंगी फिर

धरा पर लौटूं कैसे मैं।

दूरी तो शायद पल भर की है

पर मन जब ऊंचा उड़ता है

दूर-दूर सब दिखता है

सब छोटे-छोटे-से लगते हैं

और अपना रूप नहीं दिखता

धरा बिना आकाश नहीं

पंछी तो जाने यह बात

बस हम ही भूले बैठें हैं यह।