नदिया से मैंने पूछा

नदिया से मैंने पूछा

कल-कल कर क्‍यों बहती हो।

बहते-बहते

कभी सिमट-सिमट कर

कभी बिखर-बिखर जाती हो।

कभी मधुर संगीत छेड़ती

कभी विकराल रूप दिखाती हो।

कभी सूखी,

कभी लहर-लहर लहराती हो।

नदिया बोली,

मुझसे क्‍या पूछ रहे

तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।   

पर मैं आज तुम्‍हें चेताती हूं। 

इसीलिए,

कल-कल की बातें कहती हूं।

समझ सको तो, सम्‍हल सको तो

रूक कर, ठहर-ठहर कर

सोचो तुम।

बहते-बहते, सिमट-सिमट कर

अक्‍सर क्‍यों बिखर-बिखर जाती हूं ।

मधुर संगीत छेड़ती

क्‍यों विकराल रूप दिखाती हूं।

जब सूखी,

फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।

मैं आज तुम्‍हें चेताती हूं।