जीवन पथ

जीवन पथ की क्या बात करें

कुछ कंकड़, कुछ पत्थर,

कुछ फूल बिछे, कुछ कांटे उलझे।

पग-पग पर थी बाधाएॅं

पग-पग पर द्वार उन्मुक्त मिले।

वादों की, बातों की धूम रही,

कुछ निभ गये, कुछ छूट गये।

अपनों की अपनों से बात हुई

कभी मन मिला, कभी बिखर गये।

जीवन तो चलता ही रहता है

कभी रुकते-रुकते, कभी भाग लिये।

कब कौन मिला, कितने छूट गये

याद नहीं अब, कितना तो भूल गये।

कितने कागज़ रंगीन हुए

कितनों पर स्याही बिखर गई,

कभी कुछ भी न लिख पाने की पीर हुई।

उलझी, बिखरी, खट्टी-मीठी

जैसी भी हैं

सब अपनी हैं,

टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गईं।

कहते हैं

हाथों की रेखाओं में

भाग्य लिखा रहता है

मुट्ठियां खोलीं

तो उलझी-उलझी सी महसूस हुईं।

कितने दिन बाकी हैं,

कितने बीत गये

सोच-सोचकर नहीं सोचती,

 पर मन पर हावी हो गये।