ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं

इस चित्र को देखकर सोचा था,

 

आज मैं भी

कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।

मां-बेटी की बात करूंगी।

लड़कियों की शिक्षा,

प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी

बात करूंगी।

पर क्या करूं अपनी इस सोच का,

अपनी इस नज़र का,

मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,

किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के

सपने बुनती हुई ,

और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।

मुझे दिखाई दे रही है,

एक तख्ती परे सरकती हुई,

कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,

और एक छोटी-सी बालिका।

यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।

कहां कुछ सिखाने की बात है।

नहीं है कोई सपना।

नहीं है कोई आस।

जीवन की दोहरी चालों में उलझे,

तख्ती, चाक और लिखावट

तो बस दिखावे की बात है।

एक ओर  तो पढ़ ले,पढ़ ले,

का राग गा रहे हैं,

दूसरी ओर

इस छोटी सी बालिका को

सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।

कोई मां नहीं बुनती

ऐसे हवाई सपने

अपनी बेटियों के लिए।

जानती है गहरे से,

ककहरा जान लेने से

ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,

भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।

.

आज ही देख रही है ,

उसमें अपना प्रतिरूप।

.

सच कड़वा होता है

किन्तु यही सच है।

 

टांके लगा नहीं रही हूं काट रही हूं

अपनी उलझनों को सिलते-सिलते

निहारती हूं अपना जीवन।

मिट्टी लिपा चूल्हा,

इस लोटे, गागर, थाली

गिलास-सा,

किसी पुरातन युग के

संग्रहालय की वस्तुएं हों मानों

हम सब।

और मैं वही पचास वर्ष पुरानी

आेढ़नी लिये,

बैठी रहती हूं

तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में।

कभी भी आ सकते हो तुम।

चांद से उतरते हुए,

देश-विदेश घूमकर लौटे,

पंचतारा सुविधाएं भोगकर,

अपने सुशिक्षित,

देशी-विदेशी मित्रों के साथ।

मेरे माध्यम से

भारतीय संस्कृति-परम्पराओं का प्रदर्शन करने।

कैसा होता था हमारा देश।

कैसे रहते थे हम लोग,

किसी प्राचीन युग में।

कैसे हमारे देश की नारी

आज भी निभा रही है वही परम्परा,

सिर पर आेढ़नी लिये।

सिलती है अपने भीतर के टांके

जो दिखते नहीं किसी को।

 

लेकिन, ध्यान से देखो ज़रा।

आज टांके लगा नहीं रही हूं,

काट रही हूं।

 

न समझना हाथ चलते नहीं हैं

हाथों में मेंहदी लगी,

यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं

केवल बेलन ही नहीं

छुरियां और कांटे भी

इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं

नमक-मिर्च लगाना भी आता है

और यदि किसी की दाल न गलती हो,

तो बड़ों-बड़ों की

दाल गलाना भी हमें आता है।

बिना गैस-तीली

आग लगाना भी हमें आता है।

अब आपसे क्या छुपाना

दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,

और  न जाने

कितने दिलजले तो  आज भी

आगे-पीछे घूम रहे हैं ,

और जलने वाले

आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,

बड़े-बड़े महारथी

हमारे आगे पानी भरते हैं।

मेंहदी तो इक बहाना है

आज घर का सारा काम

उनसे जो करवाना है।

 

 

नये सिरे से

मां कहती थी

किसी जाते हुए को

पीठ पीछे पुकारना अपशगुन होता है।

और यदि कोई तुम्हें पुकार भी ले

तो अनसुना करके चले जाना,

पलटकर मत देखना, उत्तर मत देना।

लेकिन, मैं क्या करूं इन आवाजों का

जो मेरी पीठ पीछे

मुझे निरन्तर पुकारती हैं,

मैं मुड़कर नहीं देखती

अनसुना कर आगे बढ़ जाती हूं।

तब वे आवाजें

मेरे पीछे दौड़ने लगती हैं,

उनके कदमों की धमक

मुझे डराने लगती है।

मैं और तेज दौडने लगती हूं।

तब वे आवाजें

एक शोर का रूप लेकर

मेरे भीतर तक उतर जाती हैं,

मेरे दिल-दिमाग को झिंझोड़ते हुये।

मैं फिर भी नहीं रूकती।

किन्तु इन आवाजों की गति

मुझसे कहीं तेज है।

वे आकर

मेरी पीठ से टकराने लगती हैं,

भीतर तक गहराती हैं

बेधड़क मेरे शरीर में।

सामने आकर राह रोक लेती हैं मेरा।

पूछने लगती हैं मुझसे

वे सारे प्रश्न,

जिन्हें हल न कर पाई मैं जीवन-भर,

इसीलिए नकारती आई थी उन्हें,

छोड़ आई थी कहीं अनुत्तरित।

जीवन के इस मोड़ पर ,

अब क्या करूंगी इनका समाधान,

और क्या उपलब्धि प्राप्त कर लूंगी,

पूछती हूं अपने-आपसे ही।

किन्तु इन आवाजों को

मेरा यह पलायन का स्वर भाता नहीं।

अंधायुग में कृष्ण ने कहा था

“समय अब भी है, अब भी समय है

हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है”।

किन्तु

उस महाभारत में तो

कुरूक्षेत्र के रणक्षेत्र में

अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी।

 

और यहां अकेली मैं।

मेरे भीतर ही हैं सब कौरव-पांडव,

सारे चक्र-कुचक्र और चक्रव्यूह,

अट्ठारह दिन का युद्ध,

अकेली ही लड़ रही हूं।

 

तो क्या मुझे

मां की सीख को अनसुना कर,

पीछे मुड़कर

इन आवाजों को,

फिर से,

नये सिरे से भोगना होगा,

अपने जीवन का वह हर पल,

जिससे भाग रही थी मैं

जिन्हें मैंने इतिहास की वस्तु समझकर

अपने जीवन का गुमशुदा हिस्सा मान लिया था।

मां ! तू अब है नहीं

कौन बतायेगा मुझे !!!

 

एहसास

किसी के भूलने के

एहसास की वह तीखी गंध,

उतरती चली जाती है,

गहरी, कहीं,अंदर ही अंदर,

और कचोटता रहता है मन,

कि वह भूल

सचमुच ही एक भूल थी,

या केवल एक अदा।

फिर

उस एक एहसास के साथ

जुड़ जाती हैं,

न जाने, कितनी

पुरानी यादें भी,

जो सभी मिलकर,

मन-मस्तिष्क पर ,

बुन जाती हैं,

नासमझी का

एक मोटा ताना-बाना,

जो गलत और ठीक को

समझने नहीं देता।

ये सब एहसास मिलकर

मन पर,

उदासी का,

एक पर्दा डाल जाते हैं,

जो आक्रोश, झुंझलाहट

और निरुत्साह की हवा लगते ही

नम हो उठता है ,

और यह नमी,

न चाहते हुए भी

आंखों में उतर आती है।

न जाने क्या है ये सब,

पर लोग, अक्सर इसे

भावुकता का नाम दे जाते हैं।

 

 

 

 

कैसा बिखराव है यह

 

मन घुटता है ,बेवजह।

कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।

उधेड़ नहीं पाती

पुरानी तरपाई।

स्‍वयं ही टूटकर

बिखरती है ।

समेटती लगती हूं

पुराने धागों को,

जो किसी काम के नहीं।

कितनी भी सलवटें निकाल लूं

किन्‍तु ,तहों के निशान

अक्‍सर जाते नहीं।

क्‍यों होता है मेरे साथ ऐसा,

कहना कुछ और चाहती हूं

कह कुछ और जाती हूं।

बात आज की है,

और कल की बात कहकर

कहानी को पलट जाती हूं,

कि कहीं कोई

समझ न ले मेरे मन को,

मेरे आज को

या मेरे बीते कल को ।

शायद इसीलिए

उलट-पलट जाती हूं।

कहना कुछ और चाहती हूं,

कह कुछ और जाती हूं।

यह सिलसिला

‘गर ज़िन्दगी भर  चलेगा,

तो कहां तक, और कब तक ।

 

 

एक आदमी मरा

एक आदमी मरा।

अक्सर एक आदमी मरता है।

जब तक वह जिंदा  था

वह बहुत कुछ था।

उसके बार में बहुत सारे लोग

बहुत-सी बातें जानते थे।

वह समझदार, उत्तरदायी

प्यारा इंसान था।

उसके फूल-से कोमल दो बच्चे थे।

या फिर वह शराबी, आवारा बदमाश था।

पत्नी को पीटता था।

उसकी कमाई पर ऐश करता था।

बच्चे पैदा करता था।

पर बच्चों के दायित्व के नाम पर

उन्हें हरामी के पिल्ले कहता था।

वह आदमी एक औरत का पति था।

वह औरत रोज़ उसके लिए रोटी बनाती थीं,

उसका बिस्तर बिछाती थी,

और बिछ जाती थी।

उस आदमी के मरने पर

पांच सौ आदमी

उसकी लाश के आस-पास एकत्र थे।

वे सब थे, जो उसके बारे में

कुछ भी जानते थे।

वे सब भी थे

जो उसके बारे में तो नहीं जानते थे

किन्तु उसकी पत्नी और बच्चों के बारे

में कुछ जानते थे।

कुछ ऐसे भी थे जो कुछ भी नहीं जानते थे

लेकिन फिर भी वहां थे।

उन पांच सौ   लोगों में

एक भी ऐसा आदमी नहीं था,

जिसे उसके मरने का

अफ़सोस न हो रहा हो।

लेकिन अफ़सोस का कारण

कोई नहीं बता पा रहा था।

अब उसकी लाश ले जाने का

समय आ गया था।

पांच सौ आदमी छंटने लगे थे।

श्‍मशान घाट तक पहुंचते-पहुंचते

बस कुछ ही लोग बचे थे।

लाश   जल रही थी,भीड़ छंट रही थी ।

एक आदमी मरा। एक औरत बची।

 

पता नहीं वह कैसी औरत थी।

अच्छी थी या बुरी

गुणी थी या कुलच्छनी।  

पर एक औरत बची।

एक आदमी से

पहचानी जाने वाली औरत।

अच्छे या बुरे आदमी की एक औरत।

दो अच्छे बच्चों की

या फिर हरामी पिल्लों की मां।

अभी तक उस औरत के पास

एक आदमी का नाम था।

वह कौन था, क्या था,

अच्छा था या बुरा,

इससे किसी को क्या लेना।

बस हर औरत के पीछे

एक अदद आदमी का नाम होने से ही

कोई भी औरत

एक औेरत हो जाती है।

और आदमी के मरते ही

औरत औरत न रहकर

पता नहीं क्या-क्या बन जाती है।

-

अब उस औरत को

एक नया आदमी मिला।

क्या फर्क पड़ता है कि वह

चालीस साल का है

अथवा चार साल का।

आदमी तो आदमी ही होता है।

 

उस दिन  हज़ार से भी ज़्यादा

आदमी एकत्र थे।

एक चार साल के आदमी को

पगड़ी पहना दी गई।

सत्ता दी गई उस आदमी की

जो मरा था।

अब वह उस मरे हुए आदमी का

उत्तरााधिकारी था ,

और उस औरत का भी।

उस नये आदमी की सत्ता की सुरक्षा के लिए

औरत का रंगीन दुपट्टा

और कांच की चूड़ियां उतार दी गईं।

-

एक आदमी मरा।

-

नहीं ! एक औरत मरी।

 

अपनी इच्छाओं के कसीदे

चोरी-चोरी, चुपके-चुपके

अपनी इच्छाओं के

कसीदे बुना करती थी।

पहले-पहल गुड्डे-गुड़िया

कुछ खेल-खिलौने, कंचे-गोटी

छुपन-छुपाई, कट्टी-मिट्टा,

इमली खट्टी, सब बुनती थी।

फिर सुना, गुड्डे-गुड़िया बड़े हो गये

और उनका विवाह हो गया।

अनायास एक दिन

सब कहीं खो गये।

-

और मुझे भी पता लगा

कि मैं भी बड़ी हो गई।

-

मेरी कसीदे की चादर

अब उधड़ने लगी थी,

एक हाथ से दूसरे हाथ

घूमने लगी थी।

जिसका जो जी चाहा

उस पर काढ़ने में लगा था,

मैं जी-जान से उस सबको

संवारने में लगी थी।

पर, हर धागा कहां संवरता है,

हर कसीदा कहां कुछ बोल पाता है।

-

और मैं

आज भी उस उधड़ी-अधबुनी चादर को

बांहों में लपेटे घूम रही हूं,

एक आस में।

लोग कहते है बुढ़िया सठिया गई है।

भविष्य

आदमी ने कहा

चाहिए औरत

जो बेटे पैदा करे।

 

हर आदमी ने कहा

औरत चाहिए।

पर चाहिए ऐसी औरत

जो केवल बेटे पैदा करे।

 

हर औरत

केवल

बेटे पैदा करने लगी।

 

अब बेटों के लिए

कहां से लाएंगे औरतें

जो उनके लिए

बेटे पैदा करें।

 

युगे-युगे

मां ने कहा मीठे वचन बोलाकर

अमृत होता है इनमें

सुनने वाले को जीवन देते हैं ।

-

पिता ने कहा

चुप रहा कर

ज़माने की धार-से बोलने लगी है  अभी से।

वैसे भी

लड़कियों का कम बोलना ही

अच्छा होता है।

-

यह सब लिखते हुए

मैं बताना तो नहीं चाहती थी

अपनी लड़की होने की बात।

क्योंकि यह पता लगते ही

कि बात कहने वाली लड़की है,

सुनने वाले की भंगिमा

बदल जाती है।

-

पर अब जब बात निकल ही गई,

तो बता दूं

लड़की नहीं, शादीशुदा ओैरत हूं मैं।

-

पति ने कहा,

कुछ पढ़ा-लिखाकर,

ज़माने से जुड़।

अखबार,

बस रसोई में बिछाने

और रोटी बांधने के लिए ही नहीं होता,

ज़माने भर की जानकारियां होती हैं इसमें,

कुछ अपना दायरा बढ़ा।

-

मां की गोद में थी

तब मां की सुनती थी।

पिता का शासनकाल था

तब उनका कहना माना।

और अब, जब

पति-परमेश्वर कह रहे हैं

तब उनका कहना सिर-माथे।

मां के दिये, सभी धर्म-ग्रंथ

उठाकर रख दिये मैंने ताक पर,

जिन्हें, मेरे समाज की हर औरत

पढ़ती चली आई है

पतिव्रता,

सती-सीता-सावित्री बनने के लिए।

और सुबह की चाय के साथ

समाचार बीनने लगी।

-  

माईक्रोवेव के युग में

मेरी रसोई

मिट्टी के तेल के पीपों से भर गई।

मेरा सारा घर

आग की लपटों से घिर गया।

आदिम युग में

किस तरह भूना जाता होगा

मादा ज़िंदा मांस,

मेरी जानकारी बढ़ी।

 

औरत होने के नाते

मेरी भी हिस्सेदारी थी इस आग में।

किन्तु, कहीं कुछ गलत हो गया।

आग, मेरे भीतर प्रवेश कर गई।

भागने लगी मैं पानी की तलाश में।

एक फावड़ा ओैर एक खाली घड़ा

रख दिया गया मेरे सामने

जा, हिम्मत है तो कुंआं खोद

ओैर पानी ला।

भरे कुंएं तो कूदकर जान देने के लिए होते हैं।

-

अविवाहित युवतियां

लड़के मांगती हैं मुझसे।

पैदाकर ऐसे लड़के

जो बिना दहेज के शादी कर लें।

या फिर रोज़-रोज़ की नौटंकी से तंग आकर

आत्महत्या के बारे में

विमर्श करती हैं मेरे घर के पंखों से।

मैं पंखे हटा भी दूं,

तो और भी कई रास्ते हैं विमर्श के।

-

मेरे द्वार पर हर समय

खट्-खट् होने लगी है।

घर से निकाल दी गई औरतें

रोती हैं मेरे द्वार पर,

शरण मांगती हैं रात-आधी रात।

टी वी, फ्रिज, स्कूटर,

पैसा मांगती हैं मुझसे।

आदमी की भूख से कैसे निपटें

राह पूछती हैं मुझसे।

-

मेरे घर में

औरतें ही औरतें हो गईं हैं।

-

बीसियों बलात्कारी औरतों के चेहरे

मेरे घर की दीवारों पर

चिपक गये हैं तहकीकात के लिए।

पुलिसवाले,

कोंच-कोंचकर पूछ रहे हैं

उनसे उनकी कहानी।

फिर करके पूछते हैं,

ऐसे ही हुआ था न।

-

निरीह बच्चियां

बार-बार रास्ता भूल जाती हैं

स्कूल का।

ओढ़ने लगती हैं चूनरी।

मां-बाप इत्मीनान की सांस लेते हैं।

-

अस्पतालों में छांटें जाते हैं

लड़के ओैर लड़कियां।

लड़के घर भेज दिये जाते हैं

और लड़कियां

पुनर्जन्म के लिए।

-

अपने ही चाचा-ताउ से

चचेरों-ममेरों से, ससुर-जेठ

यानी जो भी नाते हैं नर से

बचकर रहना चाहिए

कब उसे किससे ‘काम’ पड़े

कौन जाने

फिर पांच वर्ष की बच्ची हो

अथवा अस्सी वर्ष की बुढ़िया

सब काम आ जाती है।

 

यह मैं क्या कर बैठी !

यूंही सबकी मान बैठती हूं।

कुछ अपने मन का करती।

कुछ गुनती, कुछ बुनती, कुछ गाती।

कुछ सोती, कुछ खाती।

मुझे क्या !

कोई मरे या जिये,

मस्तराम घोल पताशा पीये।

यही सोच मैंने छोड़ दी अखबार,

और इस बार, अपने मन से

उतार लिए,

ताक पर से मां के दिये सभी धर्मग्रंथ।

पर यह कैसे हो गया?

इस बीच,

अखबार की हर खबर

यहां भी छप चुकी थी।

यहां भी तिरस्कृत,

घर से निकाली जा रहीं थीं औरतेंै

अपहरण, चीरहरण की शिकार,

निर्वासित हो रही थीं औरतें।

शिला और देवी बन रहीं थीं औरतें।

अंधी, गूंगी, बहरीं,

यहां भी मर रहीं थीं औरतें।

-

इस बीच

पूछ बैठी मुझसे

मेरी युवा होती बेटी

मां क्या पढूं मैं।

मैं खबरों से बाहर लिकली,

बोली,

किसी का बताया

कुछ मत पढ़ना, कुछ मत करना।

जिन्दगी आप पढ़ायेगी तुझे पाठ।

बनी-बनाई राहों पर मत चलना।

किसी के कदमों का अनुगमन मत करना।

जिन्दगी का पाठ आप तैयार करना।

छोड़कर जाना अपने कदमों के निशान

कि सारा इतिहास, पुराण

और धर्म मिट जाये।

मिट जाये वर्तमान।

और मिट जाये

भविप्य के लिए तैयार की जा रही आचार-संहिता,

जिसमें सती, श्रापित, अपमानित

होती हैं औरतें।

शिला मत बनना।

बनाकर जाना शिलाएं ,

कि युग बदल जाये।

 

 

झूठे मुखौटे मत चढ़ा

झूठे मुखौटे मत चढ़ा।

असली चेहरा दुनिया को दिखा।

मन के आक्रोश पर आवरण मत रख।

जो मन में है

उसे निडर भाव से प्रकट कर।

यहां डर से काम नहीं चलता।

वैसे भी हंसी चेहरे,

और चेहरे पर हंसी,

लोग ज़्यादा नहीं सह पाते।

 

इससे पहले

कि कोई उतारे तुम्हारा मुखौटा,

अपनी वास्तविकता में जीओ,

अपनी अच्छाईयों-बुराईयों को

समभाव से समझकर

जीवन का रस पीओे।

 

रोज़ की ही कहानी है

जब जब कोई घटना घटती है,

हमारी क्रोधाग्नि जगती है।

हमारी कलम

एक नये विषय को पाकर

लिखने के लिए

उतावली होने लगती है।

समाचारों से हम

रचनाएं रचाते हैं।

आंसू शब्द तो सम्मानजनक है,

लिखना चाहिए

टसुए बहाते हैं।

दर्द बिखेरते हैं।

आधी-अधूरी जानकारियों को

राजनीतिज्ञों की तरह

भुनाते हैं।

वे ही चुने शब्द

वे ही मुहावरे

देवी-देवताओं का आख्यान

नारी की महानता का गुणगान।

नारी की बेचारगी,

या फिर

उसकी शक्तियों का आख्यान।

 

पूछती हूं आप सबसे,

कभी अपने आस-पास देखा है,

एक नज़र,

कितना करते हैं हम नारी का सम्मान।

कितना दिया है उसे खुला आसमान।

उसकी वाणी की धार को तराशते हैं,

उसकी आन-बान-शान को संवारते हैं,

या फिर

ऐसे किस्सों से बाहर निकलने के बाद

कुछ अच्छे उपहासात्मक

चुटकुले लिख डालते हैं।

आपसे क्या कहूं,

मैं भी शायद

यहीं कहीं खड़ी हूं।

अपने आकर्षण से बाहर निकल

अपने आकर्षण से बाहर निकल।

देख ज़रा

प्रतिच्छाया धुंधलाने लगी है।

रंगों से आभा जाने लगी है।

नृत्य की गति सहमी हुई है

घुंघरूओं की थाप बहरी हुई है।

गति विश्रृंखलित हुई है।

मुद्रा तेरी थकी हुई है।

वन-कानन में खड़ी हुई है।

पीछे मुड़कर देख।

सच्चाईयों से मुंह न मोड़।

भेड़िए बहके हुए हैं।

चेहरों पर आवरण पहने हुए हैं।

पहचान कहीं खो गई है।

सम्हलकर कदम रख।

अपनी हिम्मत को परख।

सौन्दर्य में ही न उलझ।

झूठी प्रशंसाओं से निकल।

सामने वाले की सोच को परख।

तब अपनी मुद्रा में आ।

अस्त्र उठा या

नृत्य से दिल बहला।

 

जीवन की नैया ऐसी भी होती है

जल इतना

विस्तारित होता है

जाना पहली बार।

अपने छूटे,

घर-वर टूटे।

लकड़ी से घर चलता था।

लकड़ी से घर बनता था।

लकड़ी से चूल्हा जलता था,

लकड़ी की चौखट के भीतर

ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।

निडर भाव से जीते थे,

अपनों के दम पर जीते थे।

पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,

राह हमें दिखलाती है,

जाना पहली बार।

अब राहें अकेली दिखती हैं,

अब, राहें बिखरी दिखती हैं,

पानी में कहां-कहां तिरती हैं।

इस विस्तारित सूनेपन में

राहें आप बनानी है,

जीवन की नैया ऐसी भी होती है,

जाना पहली बार।

अब देखें, कब तक लाठी चलती है,

अब देखें, किसकी लाठी चलती है।

मुझको मेरी नज़रों से परखो

मन विचलित होता है।

मन आतंकित होता है।

भूख मरती है।

दीवारें रिसती हैं।

न भावुक होता है।

न रोता है।

आग जलती भी है।

आग बुझती भी है।

कब तक दर्शाओगे

मुझको ऐसे।

कब तक बहाओगे

घड़ियाली आंसू।

बेचारी, अबला, निरीह

कहकर

कब तक मुझ पर

दया दिखलाओगे।

मां मां मां मां कहकर

कब तक

झूठे भाव जताओगे।

बदल गई है दुनिया सारी,

बदल गये हो तुम।

प्यार, नेह, त्याग का अर्थ

पिछड़ापन,

थोथी भावुकता नहीं होता।

यथार्थ, की पटरी पर

चाहे मिले कुछ कटुता,

या फिर कुछ अनचाहापन,

मुझको, मेरी नज़रों से देखो,

मुझको मेरी नज़रों से परखो,

तुम बदले हो

मुझको भी बदली नज़रों से देखो।

औरत

अपने आस-पास

नित नये-नये रंगों को,

घिरते-बिखरते अंघेरों को

देखते-देखते,

अक्सर मेरी मुट्ठियां

भिंच जाया करती हैं

पर कैसी विडम्बना है यह

कि मैं चुपचाप

सिर झुकाकर

उन कसी मुट्ठियों से

आटा गूंथने लग जाती हूं

और इसे ही

अपनी सफ़लता मान लेती हूं।

ज़िन्दगी आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती

नयनों पर परदे पड़े हैं

आंसुओं पर ताले लगे हैं

मुंह पर मुखौट बंधे हैं।

बोलना मना है,

आंख खोलना मना है,

देखना और बताना मना है।

इसलिए मस्तिष्क में बीज बोकर रख।

दिल में आस जगाकर रख।

आंसुओं को आग में तपाकर रख।

औरों के मुखौटे उतार,

अपनी धार साधकर रख।

ज़िन्दगी आंख मूंदकर,

जिह्वा दबाकर,

आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती,

बस इतना याद रख।

पंखों की उड़ान परख

पंखों की उड़ान परख

गगन परख, धरा निरख ।

 

तुझको उड़ना सिखलाती हूं,

आशाओं के गगन से

मिलवाना चाहती हूं,

साहस देती हूं,

राहें दिखलाती हूं।

जीवन में रोशनी

रंगीनियां  दिखलाती हूं।

 

पर याद रहे,

किसी दिन

अनायास ही

एक उछाल देकर

हट जाउंगी

तेरी राहों से।

फिर अपनी राहें

आप तलाशना,

जीवन भर की उड़ान के लिए।

अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश

मेरा एक रूप है, शायद !

 

मेरा एक स्वरूप है, शायद !

 

एक व्यक्तित्व है, शायद !

 

अपने-आपको,

अपने से बाहर,

अपनी नज़र से

देखने की,

एक कोशिश की मैंने।

आवरण हटाकर।

अपने आपको जानने की

कोशिश की मैंने।

 

मेरी आंखों के सामने

एक धुंधला चित्र

उभरकर आया,

मेरा ही था।

पर था

अनजाना, अनपहचाना।

जिसने मुझे समझाया,

तू ऐसी ही है,

ऐसी ही रहेगी,

और मुझे डराते हुए,

प्रवेश कर गया मेरे भीतर।

 

कभी-कभी

कितनी भी चाहत कर लें

कभी कुछ नहीं बदलता।

बदल भी नहीं सकता

जब इरादे ही कमज़ोर हों।

मुझे तो हर औरत दिखाई देती है


तुम सीता हो या सावित्री
द्रौपदी हो या कुंती
अहिल्या हो या राधा-रूक्मिणी
मैं अक्सर पहचान ही नहीं पाती।
सम्भव है होलिका, अहिल्या,
गांधारी, कुंती, उर्मिला,
अम्बा-अम्बालिका हो।
या नीता, गीता
सुशीला, रमा, शमा कोई भी हो।
और भी बहुत से नाम
स्मरण आ रहे हैं मुझे
किन्तु मैं स्वयं भी
किसी असमंजस में नहीं
पड़ना चाहती,
और न ही चाहती हूं
कि तुम सोचने लगो,
कि इसकी तो बातें
सदैव ही अटपटी-होती हैं
उलझी-उलझी।

तुम्हें क्या लगता है
कौन है यह?
सती-सावित्री?

मुझे तो हर औरत
दिखाई देती है इसके भीतर
सदैव पति के लिए
दुआएं मांगती,
यमराज के आगे सिर झुकाकर
अपनी जीवन देकर ।

स्वाभिमान हमारा सम्बल है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

नारी में भी चाहत होती है

ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है

कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी ही राहत होती है

पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है

ऐसा ही होता है हर युग में

अग्नि परीक्षा देने पर भी सीता तो बदनाम हुई थी

किया कुकर्म इन्द्र ने पर अहिल्या तो बलिदान हुई थी

पाषाण रूप पड़ी रही, सीता को बनवास मिला था

ऐसा ही होता है हर युग में नारी ही कुरबान हुई थी

अबला- सबला की बातें अब छोड़ क्‍यों नहीं देते

शूर्पनखा, सती-सीता-सावित्री, देवी, भवानी की बातें अब हम छोड़ क्यों नहीं देते

कभी आरोप, कभी स्तुति, कभी उपहास, अपने भावों को नया मोड़ क्यों नहीं देते

बातें करते अधिकारों  की, मानों बेडि़यों में जकड़ी कोई जन्‍मों की अपराधी हो

त्‍याग, तपस्‍या , बलिदान समर्पण अबला- सबला की बातें अब छोड़ क्‍यों नहीं देते

क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

(कवियत्री महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध रचना की पंक्ति पर आधारित रचना)

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क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

न मैं न नीर भरी दुख की बदरी

न मैं राधा न गोपी, न तेरी हीर परी

न मैं लैला-मजनूं की पीर भरी।

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जब कोई कहता है

नारी तू महान है, मेरी जान है

पग-पग तेरा सम्मान है

जब मुझे कोई त्याेग, ममता, नेह,

प्यार की मूर्ति या देवी कहता है

तब मैं एक प्रस्तर-सा अनुभव करती हूं।

जब मेरी तुलना सती-सीता-सावित्री,

मीरा, राधा से की जाती है

तो मैं जली-भुनी, त्याज्य, परकीया-सी

अपमानित महसूस करती हूं।

जब दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती से

तुलना की जाती है

तब मैं खिसियानी सी हंसने लगती हूं।

o * * *

ढेर सारे अर्थहीन श्लाघा-शब्द

मुझे बेधते हैं, उपहास करते हैं मेरा।

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न मुझे आग में जलना है

न मुझे सूली पर चढ़ना है

न महान बनना है,

बेतुके रिश्तों में न बांध मुझे

मुझे बस अपने मन से जीना है,

अपने मन से मरना है।

 

नियति

जन्म होता है

मरने के लिए।

लड़कियां भी

जन्म लेती हैं

मरने के लिए।

अर्थात्

जन्म लेकर

मरना है

हर लड़की को।

फिर, जब

मरना तय है

तो क्या फ़र्क पड़ता है

कि वह

किस तरह मरे।

कल की मरती

आज मरे।

कल का क्लेश

आज कटे।

जलकर मरे

या डूबकर मरे।

या पैदा होने से

पहले ही मरे।

जब जन्म होता ही

मरने के लिए है

तो जल्दी जल्दी मरे।

बहू ने दो रोटी खा ली

हमारे भारतीय परिवारों में एक परम्परा है कि घर की बहू अन्त में ही खाना खाएगी, तभी वह अच्छी बहू होती है। उसी अच्छी बहू पर एक रचना
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बहू को भूख लग आई 
और बहू ने दो रोटी खा ली।
मरी दिन चढ़े पांच बजे उठी थी।
काम की न काज की, ढाई मन अनाज की।

न चक्की न चूल्हा, न पानी न कुआं
न गाय न गोबर, न पाथी न टब्बर।

और अभी बस बारह ही तो बजे हैं
और इस जन्मजली को देखो
अभी से भूख लग आई, और दो रोटी खा ली।

और करने को होता ही क्या है।
चार जेठ, चार जेठानियां
दो ननदें , दो देवर
बारह पंद्रह बच्चे।
और हम बूढ़े बुढ़िया का क्या
कोने में पड़े रहते हैं। 
और आप ! बिचौली है बस की लाड़ली।
सारा दिन पड़ी रहे।
पर इसका मतलब यह तो नहीं
कि उसे जब-तब भूख लग आये
और दो रोटी खा ले।
आखिर बहू है इज़्जतदार खानदान की।

न बड़ों के पैर छुए, न छोटों को संवारा।
न नहाई न धोई, न मंदिर न तुलसी।

काम भी क्या !
बस ! बड़ों का चाय-नाश्ता
छोटों के लिए कुछ मीठा-नमकीन
कुछ आये गये मेहमान।
खानदानी लोग हैं हम।
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं
कि बनाते-खिलाते, परोसते-समेटते
उसे भूख लग आये और आप दो रोटी खा ले।

लाखों का सोना लादा
और दे दिया हीरे-सा अपना लल्ला ।
अरे हां ! उसके बारे में तो मैं 
बताना ही भूल गई।

अभी बस ! बारह ही तो बजे हैं।
बेचारा सोकर उठा भी नहीं।
और इस करमजली को देखो
उसके उठने से पहले ही 
भूख लग आई
और दो रोटी खाली।

पता नहीं क्या सिखाते हैं मां बाप
आजकल अपनी लड़कियों को।
नाक कट गई हमारे खानदान की
क्या कहेगी दुनिया
कि बहू को भूख लग आई 
और दो रोटी खा ली।

विचलित करती है यह बात

मां को जब भी लाड़ आता है

तो कहती है

तू तो मेरा कमाउ पूत है।

 

पिता के हाथ में जब

अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं

तो एक बार तो शर्म और संकोच से

उनकी आंखें डबडबा जाती हैं

फिर सिर पर हाथ फेरकर

दुलारते हुए कहते हैं

मुझे बड़ा नाज़ है

अपने इस होनहार बेटे पर।

 

किन्तु

मुझे विचलित करती है यह बात

कि मेरे माता पिता को जब भी

मुझ पर गर्व होता है

तो वे मुझे

बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं

बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।

सूरज गुनगुनाया आज

सूरज गुनगुनाया आज

मेरी हथेली में आकर,

कहने लगा

चल आज

इस तपिश को

अपने भीतर महसूस कर।

मैं न कहता कि आग उगल।

पर इतना तो कर

कि अपने भीतर के भावों को

आकाश दे,

प्रभात और रंगीनियां दे।

उत्सर्जित कर

अपने भीतर की आग

जिससे दुनिया चलती है।

मैं न कहता कि आग उगल

पर अपने भीतर की

तपिश को बाहर ला,

नहीं तो

भीतर-भीतर जलती यह आग

तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,

देखे दुनिया

कि तेरे भीतर भी

इक रोशनी है

आस है, विश्वास है

अंधेरे को चीर कर

जीने की ललक है

गहराती परछाईयों को चीरकर

सामने आ,

अपने भीतर इक आग जला।

 

 

 

 

द्वार खुले हैं तेरे लिए

विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना

समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना

खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए

हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना