भविष्य

आदमी ने कहा

चाहिए औरत

जो बेटे पैदा करे।

 

हर आदमी ने कहा

औरत चाहिए।

पर चाहिए ऐसी औरत

जो केवल बेटे पैदा करे।

 

हर औरत

केवल

बेटे पैदा करने लगी।

 

अब बेटों के लिए

कहां से लाएंगे औरतें

जो उनके लिए

बेटे पैदा करें।

 

युगे-युगे

मां ने कहा मीठे वचन बोलाकर

अमृत होता है इनमें

सुनने वाले को जीवन देते हैं ।

-

पिता ने कहा

चुप रहा कर

ज़माने की धार-से बोलने लगी है  अभी से।

वैसे भी

लड़कियों का कम बोलना ही

अच्छा होता है।

-

यह सब लिखते हुए

मैं बताना तो नहीं चाहती थी

अपनी लड़की होने की बात।

क्योंकि यह पता लगते ही

कि बात कहने वाली लड़की है,

सुनने वाले की भंगिमा

बदल जाती है।

-

पर अब जब बात निकल ही गई,

तो बता दूं

लड़की नहीं, शादीशुदा ओैरत हूं मैं।

-

पति ने कहा,

कुछ पढ़ा-लिखाकर,

ज़माने से जुड़।

अखबार,

बस रसोई में बिछाने

और रोटी बांधने के लिए ही नहीं होता,

ज़माने भर की जानकारियां होती हैं इसमें,

कुछ अपना दायरा बढ़ा।

-

मां की गोद में थी

तब मां की सुनती थी।

पिता का शासनकाल था

तब उनका कहना माना।

और अब, जब

पति-परमेश्वर कह रहे हैं

तब उनका कहना सिर-माथे।

मां के दिये, सभी धर्म-ग्रंथ

उठाकर रख दिये मैंने ताक पर,

जिन्हें, मेरे समाज की हर औरत

पढ़ती चली आई है

पतिव्रता,

सती-सीता-सावित्री बनने के लिए।

और सुबह की चाय के साथ

समाचार बीनने लगी।

-  

माईक्रोवेव के युग में

मेरी रसोई

मिट्टी के तेल के पीपों से भर गई।

मेरा सारा घर

आग की लपटों से घिर गया।

आदिम युग में

किस तरह भूना जाता होगा

मादा ज़िंदा मांस,

मेरी जानकारी बढ़ी।

 

औरत होने के नाते

मेरी भी हिस्सेदारी थी इस आग में।

किन्तु, कहीं कुछ गलत हो गया।

आग, मेरे भीतर प्रवेश कर गई।

भागने लगी मैं पानी की तलाश में।

एक फावड़ा ओैर एक खाली घड़ा

रख दिया गया मेरे सामने

जा, हिम्मत है तो कुंआं खोद

ओैर पानी ला।

भरे कुंएं तो कूदकर जान देने के लिए होते हैं।

-

अविवाहित युवतियां

लड़के मांगती हैं मुझसे।

पैदाकर ऐसे लड़के

जो बिना दहेज के शादी कर लें।

या फिर रोज़-रोज़ की नौटंकी से तंग आकर

आत्महत्या के बारे में

विमर्श करती हैं मेरे घर के पंखों से।

मैं पंखे हटा भी दूं,

तो और भी कई रास्ते हैं विमर्श के।

-

मेरे द्वार पर हर समय

खट्-खट् होने लगी है।

घर से निकाल दी गई औरतें

रोती हैं मेरे द्वार पर,

शरण मांगती हैं रात-आधी रात।

टी वी, फ्रिज, स्कूटर,

पैसा मांगती हैं मुझसे।

आदमी की भूख से कैसे निपटें

राह पूछती हैं मुझसे।

-

मेरे घर में

औरतें ही औरतें हो गईं हैं।

-

बीसियों बलात्कारी औरतों के चेहरे

मेरे घर की दीवारों पर

चिपक गये हैं तहकीकात के लिए।

पुलिसवाले,

कोंच-कोंचकर पूछ रहे हैं

उनसे उनकी कहानी।

फिर करके पूछते हैं,

ऐसे ही हुआ था न।

-

निरीह बच्चियां

बार-बार रास्ता भूल जाती हैं

स्कूल का।

ओढ़ने लगती हैं चूनरी।

मां-बाप इत्मीनान की सांस लेते हैं।

-

अस्पतालों में छांटें जाते हैं

लड़के ओैर लड़कियां।

लड़के घर भेज दिये जाते हैं

और लड़कियां

पुनर्जन्म के लिए।

-

अपने ही चाचा-ताउ से

चचेरों-ममेरों से, ससुर-जेठ

यानी जो भी नाते हैं नर से

बचकर रहना चाहिए

कब उसे किससे ‘काम’ पड़े

कौन जाने

फिर पांच वर्ष की बच्ची हो

अथवा अस्सी वर्ष की बुढ़िया

सब काम आ जाती है।

 

यह मैं क्या कर बैठी !

यूंही सबकी मान बैठती हूं।

कुछ अपने मन का करती।

कुछ गुनती, कुछ बुनती, कुछ गाती।

कुछ सोती, कुछ खाती।

मुझे क्या !

कोई मरे या जिये,

मस्तराम घोल पताशा पीये।

यही सोच मैंने छोड़ दी अखबार,

और इस बार, अपने मन से

उतार लिए,

ताक पर से मां के दिये सभी धर्मग्रंथ।

पर यह कैसे हो गया?

इस बीच,

अखबार की हर खबर

यहां भी छप चुकी थी।

यहां भी तिरस्कृत,

घर से निकाली जा रहीं थीं औरतेंै

अपहरण, चीरहरण की शिकार,

निर्वासित हो रही थीं औरतें।

शिला और देवी बन रहीं थीं औरतें।

अंधी, गूंगी, बहरीं,

यहां भी मर रहीं थीं औरतें।

-

इस बीच

पूछ बैठी मुझसे

मेरी युवा होती बेटी

मां क्या पढूं मैं।

मैं खबरों से बाहर लिकली,

बोली,

किसी का बताया

कुछ मत पढ़ना, कुछ मत करना।

जिन्दगी आप पढ़ायेगी तुझे पाठ।

बनी-बनाई राहों पर मत चलना।

किसी के कदमों का अनुगमन मत करना।

जिन्दगी का पाठ आप तैयार करना।

छोड़कर जाना अपने कदमों के निशान

कि सारा इतिहास, पुराण

और धर्म मिट जाये।

मिट जाये वर्तमान।

और मिट जाये

भविप्य के लिए तैयार की जा रही आचार-संहिता,

जिसमें सती, श्रापित, अपमानित

होती हैं औरतें।

शिला मत बनना।

बनाकर जाना शिलाएं ,

कि युग बदल जाये।

 

 

झूठे मुखौटे मत चढ़ा

झूठे मुखौटे मत चढ़ा।

असली चेहरा दुनिया को दिखा।

मन के आक्रोश पर आवरण मत रख।

जो मन में है

उसे निडर भाव से प्रकट कर।

यहां डर से काम नहीं चलता।

वैसे भी हंसी चेहरे,

और चेहरे पर हंसी,

लोग ज़्यादा नहीं सह पाते।

 

इससे पहले

कि कोई उतारे तुम्हारा मुखौटा,

अपनी वास्तविकता में जीओ,

अपनी अच्छाईयों-बुराईयों को

समभाव से समझकर

जीवन का रस पीओे।

 

अपने आकर्षण से बाहर निकल

अपने आकर्षण से बाहर निकल।

देख ज़रा

प्रतिच्छाया धुंधलाने लगी है।

रंगों से आभा जाने लगी है।

नृत्य की गति सहमी हुई है

घुंघरूओं की थाप बहरी हुई है।

गति विश्रृंखलित हुई है।

मुद्रा तेरी थकी हुई है।

वन-कानन में खड़ी हुई है।

पीछे मुड़कर देख।

सच्चाईयों से मुंह न मोड़।

भेड़िए बहके हुए हैं।

चेहरों पर आवरण पहने हुए हैं।

पहचान कहीं खो गई है।

सम्हलकर कदम रख।

अपनी हिम्मत को परख।

सौन्दर्य में ही न उलझ।

झूठी प्रशंसाओं से निकल।

सामने वाले की सोच को परख।

तब अपनी मुद्रा में आ।

अस्त्र उठा या

नृत्य से दिल बहला।

 

जीवन की नैया ऐसी भी होती है

जल इतना

विस्तारित होता है

जाना पहली बार।

अपने छूटे,

घर-वर टूटे।

लकड़ी से घर चलता था।

लकड़ी से घर बनता था।

लकड़ी से चूल्हा जलता था,

लकड़ी की चौखट के भीतर

ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।

निडर भाव से जीते थे,

अपनों के दम पर जीते थे।

पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,

राह हमें दिखलाती है,

जाना पहली बार।

अब राहें अकेली दिखती हैं,

अब, राहें बिखरी दिखती हैं,

पानी में कहां-कहां तिरती हैं।

इस विस्तारित सूनेपन में

राहें आप बनानी है,

जीवन की नैया ऐसी भी होती है,

जाना पहली बार।

अब देखें, कब तक लाठी चलती है,

अब देखें, किसकी लाठी चलती है।

मुझको मेरी नज़रों से परखो

मन विचलित होता है।

मन आतंकित होता है।

भूख मरती है।

दीवारें रिसती हैं।

न भावुक होता है।

न रोता है।

आग जलती भी है।

आग बुझती भी है।

कब तक दर्शाओगे

मुझको ऐसे।

कब तक बहाओगे

घड़ियाली आंसू।

बेचारी, अबला, निरीह

कहकर

कब तक मुझ पर

दया दिखलाओगे।

मां मां मां मां कहकर

कब तक

झूठे भाव जताओगे।

बदल गई है दुनिया सारी,

बदल गये हो तुम।

प्यार, नेह, त्याग का अर्थ

पिछड़ापन,

थोथी भावुकता नहीं होता।

यथार्थ, की पटरी पर

चाहे मिले कुछ कटुता,

या फिर कुछ अनचाहापन,

मुझको, मेरी नज़रों से देखो,

मुझको मेरी नज़रों से परखो,

तुम बदले हो

मुझको भी बदली नज़रों से देखो।

ज़िन्दगी आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती

नयनों पर परदे पड़े हैं

आंसुओं पर ताले लगे हैं

मुंह पर मुखौट बंधे हैं।

बोलना मना है,

आंख खोलना मना है,

देखना और बताना मना है।

इसलिए मस्तिष्क में बीज बोकर रख।

दिल में आस जगाकर रख।

आंसुओं को आग में तपाकर रख।

औरों के मुखौटे उतार,

अपनी धार साधकर रख।

ज़िन्दगी आंख मूंदकर,

जिह्वा दबाकर,

आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती,

बस इतना याद रख।

पंखों की उड़ान परख

पंखों की उड़ान परख

गगन परख, धरा निरख ।

 

तुझको उड़ना सिखलाती हूं,

आशाओं के गगन से

मिलवाना चाहती हूं,

साहस देती हूं,

राहें दिखलाती हूं।

जीवन में रोशनी

रंगीनियां  दिखलाती हूं।

 

पर याद रहे,

किसी दिन

अनायास ही

एक उछाल देकर

हट जाउंगी

तेरी राहों से।

फिर अपनी राहें

आप तलाशना,

जीवन भर की उड़ान के लिए।

अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश

मेरा एक रूप है, शायद !

 

मेरा एक स्वरूप है, शायद !

 

एक व्यक्तित्व है, शायद !

 

अपने-आपको,

अपने से बाहर,

अपनी नज़र से

देखने की,

एक कोशिश की मैंने।

आवरण हटाकर।

अपने आपको जानने की

कोशिश की मैंने।

 

मेरी आंखों के सामने

एक धुंधला चित्र

उभरकर आया,

मेरा ही था।

पर था

अनजाना, अनपहचाना।

जिसने मुझे समझाया,

तू ऐसी ही है,

ऐसी ही रहेगी,

और मुझे डराते हुए,

प्रवेश कर गया मेरे भीतर।

 

कभी-कभी

कितनी भी चाहत कर लें

कभी कुछ नहीं बदलता।

बदल भी नहीं सकता

जब इरादे ही कमज़ोर हों।

स्वाभिमान हमारा सम्बल है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

नारी में भी चाहत होती है

ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है

कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी ही राहत होती है

पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है

ऐसा ही होता है हर युग में

अग्नि परीक्षा देने पर भी सीता तो बदनाम हुई थी

किया कुकर्म इन्द्र ने पर अहिल्या तो बलिदान हुई थी

पाषाण रूप पड़ी रही, सीता को बनवास मिला था

ऐसा ही होता है हर युग में नारी ही कुरबान हुई थी

क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

(कवियत्री महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध रचना की पंक्ति पर आधारित रचना)

• * * * *

क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

न मैं न नीर भरी दुख की बदरी

न मैं राधा न गोपी, न तेरी हीर परी

न मैं लैला-मजनूं की पीर भरी।

• * * * *

जब कोई कहता है

नारी तू महान है, मेरी जान है

पग-पग तेरा सम्मान है

जब मुझे कोई त्याेग, ममता, नेह,

प्यार की मूर्ति या देवी कहता है

तब मैं एक प्रस्तर-सा अनुभव करती हूं।

जब मेरी तुलना सती-सीता-सावित्री,

मीरा, राधा से की जाती है

तो मैं जली-भुनी, त्याज्य, परकीया-सी

अपमानित महसूस करती हूं।

जब दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती से

तुलना की जाती है

तब मैं खिसियानी सी हंसने लगती हूं।

o * * *

ढेर सारे अर्थहीन श्लाघा-शब्द

मुझे बेधते हैं, उपहास करते हैं मेरा।

• * * * * *

न मुझे आग में जलना है

न मुझे सूली पर चढ़ना है

न महान बनना है,

बेतुके रिश्तों में न बांध मुझे

मुझे बस अपने मन से जीना है,

अपने मन से मरना है।

 

नियति

जन्म होता है

मरने के लिए।

लड़कियां भी

जन्म लेती हैं

मरने के लिए।

अर्थात्

जन्म लेकर

मरना है

हर लड़की को।

फिर, जब

मरना तय है

तो क्या फ़र्क पड़ता है

कि वह

किस तरह मरे।

कल की मरती

आज मरे।

कल का क्लेश

आज कटे।

जलकर मरे

या डूबकर मरे।

या पैदा होने से

पहले ही मरे।

जब जन्म होता ही

मरने के लिए है

तो जल्दी जल्दी मरे।

बहू ने दो रोटी खा ली

हमारे भारतीय परिवारों में एक परम्परा है कि घर की बहू अन्त में ही खाना खाएगी, तभी वह अच्छी बहू होती है। उसी अच्छी बहू पर एक रचना
********************************
बहू को भूख लग आई 
और बहू ने दो रोटी खा ली।
मरी दिन चढ़े पांच बजे उठी थी।
काम की न काज की, ढाई मन अनाज की।

न चक्की न चूल्हा, न पानी न कुआं
न गाय न गोबर, न पाथी न टब्बर।

और अभी बस बारह ही तो बजे हैं
और इस जन्मजली को देखो
अभी से भूख लग आई, और दो रोटी खा ली।

और करने को होता ही क्या है।
चार जेठ, चार जेठानियां
दो ननदें , दो देवर
बारह पंद्रह बच्चे।
और हम बूढ़े बुढ़िया का क्या
कोने में पड़े रहते हैं। 
और आप ! बिचौली है बस की लाड़ली।
सारा दिन पड़ी रहे।
पर इसका मतलब यह तो नहीं
कि उसे जब-तब भूख लग आये
और दो रोटी खा ले।
आखिर बहू है इज़्जतदार खानदान की।

न बड़ों के पैर छुए, न छोटों को संवारा।
न नहाई न धोई, न मंदिर न तुलसी।

काम भी क्या !
बस ! बड़ों का चाय-नाश्ता
छोटों के लिए कुछ मीठा-नमकीन
कुछ आये गये मेहमान।
खानदानी लोग हैं हम।
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं
कि बनाते-खिलाते, परोसते-समेटते
उसे भूख लग आये और आप दो रोटी खा ले।

लाखों का सोना लादा
और दे दिया हीरे-सा अपना लल्ला ।
अरे हां ! उसके बारे में तो मैं 
बताना ही भूल गई।

अभी बस ! बारह ही तो बजे हैं।
बेचारा सोकर उठा भी नहीं।
और इस करमजली को देखो
उसके उठने से पहले ही 
भूख लग आई
और दो रोटी खाली।

पता नहीं क्या सिखाते हैं मां बाप
आजकल अपनी लड़कियों को।
नाक कट गई हमारे खानदान की
क्या कहेगी दुनिया
कि बहू को भूख लग आई 
और दो रोटी खा ली।

सूरज गुनगुनाया आज

सूरज गुनगुनाया आज

मेरी हथेली में आकर,

कहने लगा

चल आज

इस तपिश को

अपने भीतर महसूस कर।

मैं न कहता कि आग उगल।

पर इतना तो कर

कि अपने भीतर के भावों को

आकाश दे,

प्रभात और रंगीनियां दे।

उत्सर्जित कर

अपने भीतर की आग

जिससे दुनिया चलती है।

मैं न कहता कि आग उगल

पर अपने भीतर की

तपिश को बाहर ला,

नहीं तो

भीतर-भीतर जलती यह आग

तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,

देखे दुनिया

कि तेरे भीतर भी

इक रोशनी है

आस है, विश्वास है

अंधेरे को चीर कर

जीने की ललक है

गहराती परछाईयों को चीरकर

सामने आ,

अपने भीतर इक आग जला।

 

 

 

 

द्वार खुले हैं तेरे लिए

विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना

समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना

खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए

हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना

आज भी वहीं के वहीं हैं हम

कहां छूटा ज़माना पीछे, आज भी वहीं के वहीं हैं हम

न बन्दूक है न तलवार दिहाड़ी पर जा रहे हैं हम

नज़र बदल सकते नहीं किसी की कितनी भी चाहें

ये आत्म रक्षा नहीं जीवन यापन का साधन लिए हैं हम

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

अभियान ज़ोरों पर है।

विज्ञापनों में भरपूर छाया है

जिसे देखो वही आगे आया है।

भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं

लोग इस हेतु

घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,

मोमबत्तियां जला रहे हैं।

लेकिन क्या सच में ही

बदली है हमारी मानसिकता !

प्रत्येक नवजात के चेहरे पर

बालक की ही छवि दिखाई देती है

बालिका तो कहीं

दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।

इस चित्र में एक मासूम की यह छवि

किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है

तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।

कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।

एक साधारण बालिका की चाह तो

हमने कब की त्याग दी है

अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा

की भी बात नहीं करते।

कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी

अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।

पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल

को तो हम जानते ही नहीं

कि कहें

कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।

कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास

अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।

शायद आपको लग रहा होगा

मैं विषय-भ्रम में हूं।

जी नहीं,

इस नवजात को मैं भी देख रही हूं

एक चमकते सितारे की तरह

रोशनी से भरपूर।

किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं

कि इस चित्र में सबको

एक नवजात बालक की ही प्रतीति

क्यों है

बालिका की क्यों नहीं।

चिंगारी दर चिंगारी सुलगती

अच्छी नहीं लगती

घर के किसी कोने में

चुपचाप जलती अगरबत्ती।

मना करती थी मेरी मां

फूंक मारकर बुझाने के लिए

अगरबत्ती।

मुंह की फूंक से

जूठी हो जाती है।

हाथ की हवा देकर

बुझाई जाती है अगरबत्ती।

डब्बी में सहेजकर

रखी जाती है अगरबत्ती।

खुली नहीं छोड़ी जाती

उड़ जायेगी खुशबू

टूट जायेगी

टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।

क्योंकि सीधी खड़ी कर

लपट दिखाकर

जलानी होती है अगरबत्ती।

लेकिन जल्दी चुक जाती है

मज़ा नहीं देती

लपट के साथ जलती अगरबत्ती।

फिर गिर जाये कहीं

तो सब जला देगी अगरबत्ती।

इसलिए

लपट दिखाकर

अदृश्य धुएं में लिपटी

चिंगारी दर चिंगारी सुलगती

किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।

रोज़ डांट खाती हूं मैं।

लपट सहित जलती

छोड़ देती हूं अगरबत्ती।

अपनी पहचान की तलाश

नाम ढूँढती हूँ पहचान पूछती हूँ ।

मैं कौन हूँ बस अपनी आवाज ढूँढती हूँ ।

प्रमाणपत्र जाँचती हूँ

पहचान पत्र तलाशती हूँ

जन्मपत्री देखती हूँ

जन्म प्रमाणपत्र मांगती हूँ

बस अपना नाम मांगती हूँ।

परेशान घूमती हूँ

पूछती हूँ सब से

बस अपनी पहचान मांगती हूं।

खिलखिलाते हैं सब

अरे ! ये कमला की छुटकी

कमली हो गई है।

नाम  ढूँढती है, पहचान ढूँढती है

अपनी आवाज ढूँढती है।

अरे ! सब जानते हैं

सब पहचानते हैं

नाम जानते हैं।

कमला  की बिटिया, वकील की छोरी

विन्नी बिन्नी की बहना,

हेमू की पत्नी, देवकी की बहू,

और मिठू की अम्मा ।

इतने नाम इतनी पहचान।

फिर भी !

परेशान घूमती है, पहचान पूछती है

नाम मांगती है, आवाज़ मांगती है।

मैं पूछती हूं

फिर ये कविता कौन है

कौन है यह कविता ?

बौखलाई, बौराई घूमती हूं

नाम पूछती हूं, अपनी आवाज ढूँढती हूं

अपनी पहचान मांगती हूं

अपना नाम मांगती हूं।

कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो

ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है

कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है

पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है

जीवन में यह उलट-पलट होती है

बहुत छोटी हूं मैं

कुछ समझने के लिए।

पर

इतनी छोटी भी तो नहीं

कि कुछ भी समझ न आये।

मेरे आस-पास लोग कहते हैं

हर औरत मां होती है

बहन होती है,पत्नी होती है

बेटी और सखा होती है।

फिर मुझे देखकर कहते हैं

देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है

ममतामयी, देवी है देवी।

मुझे नहीं पता

औरत क्या, मां क्या,

बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या

और ममता क्या होती है।

मुझे नहीं पता

मेरी गोद यह में कौन है

बेटा है, भाई है

पति है, या कोई और।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।

लोग कहते हैं, देखो

भाई की देख-भाल करती है।

बड़ा होकर यही तो है

इसकी रक्षा करेगा

राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,

अपने घर भेजेगा।

कोई समझायेगा मुझे

जीवन में  यह उलट-पलट कैसे होती है।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।