सूरज गुनगुनाया आज
मेरी हथेली में आकर,
कहने लगा
चल आज
इस तपिश को
अपने भीतर महसूस कर।
मैं न कहता कि आग उगल।
पर इतना तो कर
कि अपने भीतर के भावों को
आकाश दे,
प्रभात और रंगीनियां दे।
उत्सर्जित कर
अपने भीतर की आग
जिससे दुनिया चलती है।
मैं न कहता कि आग उगल
पर अपने भीतर की
तपिश को बाहर ला,
नहीं तो
भीतर-भीतर जलती यह आग
तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,
देखे दुनिया
कि तेरे भीतर भी
इक रोशनी है
आस है, विश्वास है
अंधेरे को चीर कर
जीने की ललक है
गहराती परछाईयों को चीरकर
सामने आ,
अपने भीतर इक आग जला।
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ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं रिश्ते
वे चुप-चुप थे ज़रा, हमने पूछा कई बार, क्या हुआ है
यूं ही छोटी-छोटी बातों पर भी कभी कोई गैर हुआ है
ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं कुछ अच्छे रिश्ते
सबसे हंस-बोलकर समय बीते, ऐसा कब-कब हुआ है
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आसमान में छेद
पता नहीं कौन शायर कह गया
आसमां में छेद क्यों नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछाला होता यारो ।
पता नहीं किस युग का था वह शायर।
उछालकर देखा था क्या उसने कभी पत्थर।
बड़ा काम तो हम ज़िन्दगी में
कभी कर नहीं पाये
सोचा, चलो आज कुछ नया करते हैं
उस शायर की इच्छा पूरी करते हैं।
एक क्यों,
तबीयत से कई पत्थर उछालते हैं,
आसमान में एक नहीं
अनेक छेद करते हैं।
पर शायद
युग बदल गया था
या हमें
पत्थर उछालने का
तरीका पता नहीं था
हमने तो अभी बस
एक ही पत्थर उठाया था
उछालने की नौबत भी नहीं आई थी
सैंकड़ों पत्थर लौट आये हमारे पास।
लगता है
उस शायर का शेर
सबने पसन्द कर लिया है
और हमारी तरह
सभी पत्थर उछालने में लगे हैं
और हम तो
अपना ही सिर फोड़ने में लगे हैं।
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ज़िन्दगी की लम्बी राहों पर
मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है
ज़िन्दगी बिताने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ज़िन्दगी की इन लम्बी राहों पर
चलते चलते
फूलों संग मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है।
बरसात की मार हो या
सूखे की धार
ज़िन्दगी को मनाने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ठहर गये अगर
तो चुक जायेंगे
चलते रहने की भी
अपनी एक अदा होती है।
खड़े हैं आपकी प्रतीक्षा में,
चले आओ हमारे साथ,
ज़िन्दगी में संग संग
दूर-दूर तक
चलने की भी
अपनी एक अदा होती है।
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दोनों अपने-अपने पथ चलें
तुम अपनी राह चलो,
मैं अपनी राह चलूंगी।
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दोनों अपने-अपने पथ चलें
दोनों अपने-अपने कर्म करें।
होनी-अनहोनी जीवन है,
कल क्या होगा, कौन कहे।
चिन्ता मैं करती हूं,
चिन्ता तुम करते हो।
पीछे मुड़कर न देखो,
अपनी राह बढ़ो।
मैं भी चलती हूं
अपने जीवन-पथ पर,
एक नवजीवन की आस में।
तुम भी जाओ
कर्तव्य निभाने अपने कर्म-पथ पर।
डर कर क्या जीना,
मर कर क्या जीना।
आशाओं में जीते हैं।
आशाओं में रहते हैं।
कल आयेगा ऐसा
साथ चलेगें]
हाथों में हाथ थाम साथ बढ़ेगें।
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कहां है तबाही कौन सी आपदा
कहां है आपदा,
कहां हुई तबाही,
कोई विपदा नहीं कहीं।
कुछ मर गये,
कुछ भूखे रह गये।
किसी को चिकित्सा नहीं मिल पाई।
आग लगी या
भवन ढहा,
कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा।
करोड़ों-अरबों में
अब किस-किस को देखेंगे?
घर-घर जाकर
किस-किसको पूछेंगे।
आसमान से तो
कह नहीं कर सकते,
बरसना मत।
सूरज को तो रोक नहीं सकते,
ज़्यादा चमकना मत।
सड़कों पर सागर है,
सागर में उफ़ान,
घरों में तैरती मछलियां देखीं आज,
और नदियों में बहते घर।
तो कहां है विपदा,
कहां है तबाही,
कौन सी आपदा।
बड़े-बड़े शहरों में
छोटी-छोटी बातें
तो होती रहती हैं सैटोरीना।
ज़्यादा मत सोचा कर।
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नाम लिखा है तुम्हारा
रोज़ एक फूल छुपाती थी किताबों में
तुम्हारे चेहरे का अक्स बनाती थी किताबों में
दिल की बात बताती थी किताबों में
फिर एक दिन किताब पुरानी हो गई
पन्ने खुलने लगे, फूल झरने लगे
सूखे फूलों को समेटा, पत्ती पत्ती को सहेजा
कोई देख न ले
इसलिए बंद मुठ्ठी में सहेजा
पर मुठ्ठी की दरारों से, चाहत झरने लगी
फूल फिर रूप लेने लगे,
रंग फिर बहकने लगे
नाम तुम्हारा लिखने लगे
दिल में बाग खिलने लगे
उपहार भेजती हूं तुम्हें
तुम्हारा ही दिल
नाम लिखा है तुम्हारा
फूलों में, कलियों में
इन उलझी लड़ियों में
सलमे सितारों में
तारों में , हारों में ।।।।।।
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मन न जाने कहां-कहां-तिरता है
इस एकान्त में
एक अपनापन है,
फूलों-पत्तियों में
मेरे मन का चिन्तन है।
कुछ हरे-भरे,
कुछ गिरे-पड़े,
कुछ डाली से टूटे,
और कुछ मानों कलियों-से
अधजीवन में ही
अपनेपन से छूटे।
लकड़ी की नैया पर बैठे-बैठे
मन न जाने कहां-कहां-तिरता है।
इस निश्चल, निश्छल जल में
अपनी प्रतिच्छाया ढूंढता है।
कुछ उलटता है, कुछ पलटता है
डूबता-उतरता है,
फिर लौटता है
सहज-सहज
एक मधुर मुस्कान के साथ।
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सघन-वन-कानन ये मन है
सघन-वन-कानन ये मन है।
चिड़िया भी चहके,
कोयल भी कूके,
फूलों की डाली भी महके,
कभी उलझ-उलझकर
मन-भाव बहके।
पर डर लगता है
जब
वानर, डाल-डाल बहके।
कब जाग उठेगा नृसिंह
कब गज की गर्जन से
गूंजेगा गगन,
कौन जाने।
कभी हरीतिमा, कभी सूखा,
कभी पतझड़, कभी रूखा
कब टूटेगी डाली,
कब बिखरेंगे पल्लव
कौन जाने।
दावानल भीतर ही भीतर चलता है
इसीलिए ये
सघन-वन-कानन मन डरता है।
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बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे पर गरल उन्होंने पिया था
विषधर उनके आभूषण थे त्रिशूल हाथ में लिया था
भूत-प्रेत संग नरमुण्डों की माला पहने, बजता था डमरू
त्रिनेत्र खोल तीनों लोकों के दुष्टों का संहार उन्होंने किया था