अपनी इच्छाओं के कसीदे

चोरी-चोरी, चुपके-चुपके

अपनी इच्छाओं के

कसीदे बुना करती थी।

पहले-पहल गुड्डे-गुड़िया

कुछ खेल-खिलौने, कंचे-गोटी

छुपन-छुपाई, कट्टी-मिट्टा,

इमली खट्टी, सब बुनती थी।

फिर सुना, गुड्डे-गुड़िया बड़े हो गये

और उनका विवाह हो गया।

अनायास एक दिन

सब कहीं खो गये।

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और मुझे भी पता लगा

कि मैं भी बड़ी हो गई।

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मेरी कसीदे की चादर

अब उधड़ने लगी थी,

एक हाथ से दूसरे हाथ

घूमने लगी थी।

जिसका जो जी चाहा

उस पर काढ़ने में लगा था,

मैं जी-जान से उस सबको

संवारने में लगी थी।

पर, हर धागा कहां संवरता है,

हर कसीदा कहां कुछ बोल पाता है।

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और मैं

आज भी उस उधड़ी-अधबुनी चादर को

बांहों में लपेटे घूम रही हूं,

एक आस में।

लोग कहते है बुढ़िया सठिया गई है।