कन्यादान -परम्परा या रूढ़ि

न तो मैं कोई वस्तु थी

न ही अन्न वस्त्र,

और न ही

घर के किसी कोने में पड़ा

कोई अवांछित, उपेक्षित पात्र

तो फिर हे पिता !

दान क्यों किया तुमने मेरा ?

धर्म, संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज़

सब बदल लिए तुमने अपने हित में।

किन्तु मेरे नाम पर

युगों युगों की परम्परा निभाते रहे हो तुम।

मुझे व्यक्तित्व से वस्तु बनाते रहे हो तुम।

दान करके

सभी दायित्वों से मुक्ति पाते रहे थे तुम।

और इस तरह, मुझे

किसी की निजी सम्पत्ति बनाते रहे तुम।

मेरे नाम से पुण्य कमाते रहे थे तुम ।

अपने लिए स्वर्गारोहण का मार्ग बनाते रहे तुम।

तभी तो मेरे लिए पहले से ही

सृजित कर लिये  कुछ मुहावरे 

“इस घर से डोली उठेगी उस घर से अर्थी”।

पढ़ा है पुस्तकों में मैंने

बड़े वीर हुआ करते थे हमारे पूर्वज

बड़े बड़े युद्ध जीते उन्होंनें

बस बेटियों की ही रक्षा नहीं कर पाते थे।

जौहर करना पड़ता था उन्हें

और तुम उनके उत्तराधिकारी।

युग बदल गये, तुम बदल गये

लेकिन नहीं बदला तो  बस

मुझे देखने का तुम्हारा नज़रिया।

कभी बेटी मानकर तो देखो,

मुझे पहचानकर तो देखो।

खुला आकाश दो, स्वाधीनता का भास दो।

अपनेपन का एहसास दो,

विश्वास का आभास दो।

अधिकार का सन्मार्ग दो,

कर्त्तव्य का भार दो ।

सौंपों मत किसी को।

किसी का मेरे हाथ में हाथ दो,

जीवन भर का साथ दो।

अपनेपन का भान दो।

बस थोड़ा सा मान दो

बस दान मत दो। दान मत दो।

कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो

ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है

कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है

पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है

जीवन में यह उलट-पलट होती है

बहुत छोटी हूं मैं

कुछ समझने के लिए।

पर

इतनी छोटी भी तो नहीं

कि कुछ भी समझ न आये।

मेरे आस-पास लोग कहते हैं

हर औरत मां होती है

बहन होती है,पत्नी होती है

बेटी और सखा होती है।

फिर मुझे देखकर कहते हैं

देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है

ममतामयी, देवी है देवी।

मुझे नहीं पता

औरत क्या, मां क्या,

बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या

और ममता क्या होती है।

मुझे नहीं पता

मेरी गोद यह में कौन है

बेटा है, भाई है

पति है, या कोई और।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।

लोग कहते हैं, देखो

भाई की देख-भाल करती है।

बड़ा होकर यही तो है

इसकी रक्षा करेगा

राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,

अपने घर भेजेगा।

कोई समझायेगा मुझे

जीवन में  यह उलट-पलट कैसे होती है।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।

बड़े-बड़े कर रहे आजकल

बड़े-बड़े कर रहे आजकल बात बहुत साफ़-सफ़ाई की

शौचालय का विज्ञापन करके, करते खूब कमाई जी

इनकी भाषा, इनके शब्दों से हमें  घिन आती है

बात करें महिलाओं की और करते आंख सिकाई जी

 

चूड़ियां उतार दी मैंने

चूड़ियां उतार दी मैंने, सब कहते हैं पहनने वाली नारी अबला होती है

यह भी कि प्रदर्शन-सजावट के पीछे भागती नारी कहां सबला होती है

न जाने कितनी कहावतें, मुहावरे बुन दिये इस समाज ने हमारे लिये

सहज साज-श्रृंगार भी यहां न जाने क्यों बस उपहास की बात होती है

चूड़ी की हर खनक में अलग भाव होते हैं,कभी आंसू,  कभी  हास होते हैं

कभी न समझ सका कोई, यहां तो नारी की हर बात उपहास होती है

कुछ तो मुंह भी खोल

बस !

अब बहुत हुआ।

केवल आंखों से न बोल।

कुछ तो मुंह भी खोल।

कोई बोले कजरारे नयना

कोई बोले मतवारे नयना।

कोई बोले अबला बेचारी,

किसी को दिखती सबला है।

तेरे बारे में,

तेरी बातें सब करते।

अवगुण्ठन के पीछे

कोई तेरा रूप निहारे

कोई प्रेम-प्याला पी रहे ।

किसी को

आंखों से उतरा पानी दिखता

कोई तेरी इन सुरमयी आंखों के

नशेमन में जी रहे।

कोई मर्यादा ढूंढ रहा

कोई तेरे सपने बुन रहा,

किसी-किसी को

तेरी आबरू लुटती दिखती

किसी को तू बस

सिसकती-सिसकती दिखती।

जिसका जो मन चाहे

बोले जाये।

पर तू क्या है

बस अपने मन से बोल।

बस अब बहुत हुआ।

केवल आंखों से न बोल।

कुछ तो मुंह भी खोल।

अन्तर्मन की आग जला ले

अन्तर्मन की आग जला ले

उन लपटों को बाहर दिखला दे

रोना-धोना बन्द कर अब

क्यों जिसका जी चाहे कर ले तब

सबको अपना संसार दिखा ले

अपनी दुनिया आप बसा ले

ठोक-बजाकर जीना सीख

कर ले अपने मन की रीत

कोई नहीं तुझे जलाता

तेरी निर्बलता तुझ पर हावी

अपनी रीत आप बना ले

पाखण्डों की बीन बजा देे

मनचाही तू रीत कर ले

इसकी-उसकी सुनना बन्द कर

बेचारगी का ढोंग बन्द कर

दया-दया की मांग मतकर

बेबस बन कर जीना बन्द कर

अपने मन के गीत बजा ले

घुटते-घुटते रोना बन्द कर

रो-रोकर दिखलाना बन्द कर

इसकी-उसकी सुनना बन्द कर

अपने मन से जीना सीख

अन्तर्मन की आग जला ले

 उन लपटों को बाहर दिखला दे

 

नारी बेचारी नेह की मारी

बस इतना पूछना है

कि क्या अब तुमसे बन्दूक

भी न सम्हल रही

जो मेरे हाथ दे दी!

कहते हो

नारी बेचारी

अबला, ममता, नेह की मारी

कोमल, प्यारी, बेटी बेचारी

घर-द्वार, चूल्हा-चौखट 

सब मेरे काम

और प्रकृति का उपहार

ममत्व !

मेरे दायित्व!!

कभी दुर्गा, कभी सीता कहते

कभी रणचण्डी, कभी लक्ष्मीबाई बताते

कभी जौहर करवाते

अब तो हर जगह

बस औरतों के ही काम गिनवाते

कुछ तो तुम भी कर लो

अब क्या तुमसे यह बन्दूक

भी न चल रही

जो मेरे हाथ थमा दी !!

 

अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।

मैंने तो सिर्फ कहा था "शब्द"

पता नहीं कब

वह शब्द नहीं रहे

चेतावनी हो गये।

मैंने तो सिर्फ कहा था "पत्थर"

तुम पता नहीं क्यों तुम

उसे अहिल्या समझ बैठे।

मैंने तो सिर्फ कहा था "नाम"

और तुम

अपने आप ही राम बन बैठे।

और मैंने तो सिर्फ कहा था

"अन्त"

पता नहीं कैसे

तुम उसे मौत समझ बैठे।

और यहीं से

ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई।

मौत, जो हुई नहीं

समझ ली गई।

पत्थर, जो अहिल्या नहीं

छू लिया गया।

और तुम राम नहीं।

और पत्थर भी अहिल्या नहीं।

जो शताब्दियों से

सड़क के किनारे पड़ा हो

किसी राम की प्रतीक्षा में

कि वह आयेगा

और उसे अपने चरणों से  छूकर

प्राणदान दे जायेगा।

किन्तु पत्थर

जो अहिल्या नहीं

छू लिया गया

और तुम राम नहीं।

जब तक तुम्हें

सही स्थिति का पता लगता

मौत ज़िन्दगी हो गई

और पत्थर आग।

वैसे भी

अब तब मौमस बहुत बदल चुका है।

जब तक तुम्हें

सही स्थिति का पता लगता

मौत ज़िन्दगी हो गई

और पत्थर आग।

एक पत्थर से

दूसरे पत्थर तक

होती हुई यह आग।

अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।

जिसे तुम देख नहीं सकते।

आज दबी है

कल चिंगारी हो जायेगी।

अहिल्या तो पता नहीं

कब की मर चुकी है

और तुम

अब भी ठहरे हो

संसार से वन्दित होने के लिए।

सुनो ! चेतावनी देती हूं !

सड़क के किनारे पड़े

किसी पत्थर को, यूं ही

छूने की कोशिश मत करना।

पता नहीं

कब सब आग हो जाये

तुम समझ भी न सको

सब आग हो जाये,एकाएक।।।।

अन्तर्द्वन्द

हर औरत के भीतर 
एक औरत है
और उसके भीतर
एक और औरत।
यह बात
स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है
इन औरतों की।

धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी
औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं
कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।

लेकिन
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।

औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर
लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।

इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है
समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।

जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।