मैं अपराधी हो गई
इतनी भी
गलतियाँ, भूलें
नहीं की थीं
ज़िन्दगी में
कि तुम
हर समय
उन्हीं का लेखा-जोखा
लिए बैठे रहो।
बहुत कुछ किया होगा
जो तुम्हें
नापसन्द रहा होगा,
लेकिन उसे भूल
या गलती का नाम
तो नहीं दिया जा सकता।
कुछ मेरी अपनी भी
भावनाएँ थीं
अपनी पसन्द-नापसन्द,
अपनी तरह से
जीवन जीने का मन ।
केवल तुम्हारे ही सांचे में
ढलती रही जब तक
तब तक सब ठीक था।
जैसे ही
मेरी इच्छाओं का पिटारा खुला
मैं अपराधी हो गई।
ऐसा नहीं होता रे!