दैवीय सौन्दर्य

रंगों की शोखियों से

मन चंचल हुआ।

रक्त वर्ण संग

बासन्तिका,

मानों हवा में लहरें

किलोल कर रहीं।

आंखें अपलक

निहारतीं।

काश!

यहीं,

इसी सौन्दर्य में

ठहर जाये सब।

कहते हैं

क्षणभंगुर है जीवन।

स्वीकार है

यह क्षणभंगुर जीवन,

इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।

चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा

चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा

हवाओं का रूख देख लेते हैं ज़रा

धरा भी नम होकर स्वागत कर रही

हटा आवरण, हवाओं संग उड़ते हैं ज़रा

प्रकृति का सौन्दर्य चित्र

कभी-कभी सूरज

के सामने ही

बादल बरसने लगते हैं।

और जल-कण,

रजत-से

दमकने लगते हैं।

तम

खण्डित होने लगता है,

घटाएं

किनारा कर जाती हैं।

वे भी

इस सौन्दय-पाश में

बंध दर्शक बन जाती हैं।

फिर

मानव-मन कहां

तटस्थ रह पाता है,

सरस-रस से सराबोर

मद-मस्त हो जाता है।

चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे

चांद से छिटककर चांदनी धरा पर है चली आई                      

पगली-सी डोलती, देखो कहां कहां है घूम आई

देख-देखकर चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे

रवि की आहट से डर,फिर चांद के पास लौट आई

रेखाओं का खेल है प्यारे

रेखाओं का खेल है प्यारे, कुछ शब्दों में ढल जाते हैं कुछ आकारों में

कुछ चित्रों को कलम बनाती, कुछ को उकेरती तूलिका विचारों में

भावों का संसार विचित्र, स्वयं समझ न पायें, औरों को क्या समझायें

न रूप बने न रंग चढ़े, उलझे-सुलझे रह जाते हैं अपने ही उद्गारों में

रंग-बिरंगी आभा लेकर

काली-काली घनघोर घटाएं, बिजुरी चमके, मन बहके

झर-झर-झर बूंदें झरतीं, चीं-चीं-चीं-चीं चिड़िया चहके

पीछे से कहीं आया इन्द्रधनुष रंग-बिरंगी आभा लेकर

मदमस्त पवन, धरा निखरी, उपवन देखो महके-महके

भोर का सूरज

भोर का सूरज जीवन की आस देता है

भोर का सूरज रोशनी का भास देता है

सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग

भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है

गगन पर बिखरी रंगीनिया

सूरज की किरणें देखो नित नया कुछ लाती है

भोर की आभा देखो नित नये रूप सजाती है

पत्ते-पत्ते पर खेल रही ओस की बूंदे झिलमिल

गगन पर बिखरी रंगीनिया देखो नित लुभाती है।

आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल

आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल

ज्‍यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल

डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा

शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल

बारिश की बूंदे अलमस्त सी

बारिश की बूंदे अलमस्त सी, बहकी-बहकी घूम रहीं

पत्तों-पत्तों पर सर-सर करतीं, इधर-उधर हैं झूम रहीं

मैंने रोका, हाथों पर रख, उनको अपने घर ले आई मैं

पता नहीं कब भागीं, कहां गईं, मैं घर-भर में ढूंढ रही

उदित होते सूर्य से पूछा मैंने

उदित होते सूर्य से पूछा मैंने, जब अस्त होना है तो ही आया क्यों
लौटते चांद-तारों की ओर देख, सूरज मन ही मन मुस्काया क्यों
कभी बादल बरसे, इन्द्रधनुष निखरा, रंगीनियां बिखरीं, मन बहका
परिवर्तन ही जीवन है, यह जानकर भी तुम्हारा मन भरमाया क्यों

सर्दी  में सूरज

इस सर्दी  में सूरज तुम हमें बहुत याद आते हो

रात जाते ही थे, अब दिन भर भी गायब रहते हो

देखो, यूं न हमें सताओ, काम कोई कर पाते नहीं

कोहरे को भेद बाहर आओ, क्यों हमें तरसाते हो

कितनी मनोहारी है जि़न्‍दगी

प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्‍दगी

हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्‍दगी

कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी

ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्‍दगी

कोहरे की ओट में

कोहरे की ओट में ज़िन्दगी ठहर सी गई है

आकाश और धरा एकमेक होकर रह गई है

न सूरज निकलता है न चांद-तारे दिखते हैं

प्रकाश राह ढूंढता, मेरी किरण कहां रह गई है

सूर्यग्रहण के चित्र पर एक रचना

दूर कहीं गगन में

सूरज को मैंने देखा

चन्दा को मैंने देखा

तारे टिमटिम करते

जीवन में रंग भरते

लुका-छिपी ये खेला करते

कहते हैं दिन-रात हुई

कभी सूरज आता है

कभी चंदा जाता है

और तारे उनके आगे-पीछे

देखो कैसे भागा-भागी करते

कभी लाल-लाल

कभी काली रात डराती

फिर दिन आता

सूरज को ढूंढ रहे

कोहरे ने बाजी मारी

दिन में देखो रात हुई

चंदा ने बाजी मारी

तम की आहट से

दिन में देखो रात हुई

प्रकृति ने नवचित्र बनाया

रेखाओं की आभा ने मन मोहा

दिन-रात का यूं भाव टला

जीवन का यूं चक्र चला

कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे

कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते

बस, जीवन का यूं चक्र चला

कैसे समझा, किसने समझा

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नयनों में घिर आये बादल

धूप खिली, मौसम खुशनुमा, घूम रहे बादल

हवाएं चलीं-चलीं, गगन पर छितराए बादल

कुछ बूंदें बरसी, मन महका-बहका-पगला

तुम रूठे, नयनों में गहरे घिर आये बादल

 

बूंदें कुछ कह जाती हैं

बूंदें कुछ कह जाती हैं

मुझको

सहला-सहला जाती हैं

हंस-हंस कह रहीं

जी ले, जी ले,

रंग-बिरंगी दुनिया

रंग-बिरंगी सोच

उड़ ले, उड़ ले

टप-टप गिरती बूंदें

छप-छपाक-छप

छप-छपाक-छप

खिल-खिल-खिल हंसती

इधर-उधर

मचल-मचलकर

उछल-उछलकर

हंस-हंस बतियाती

कुछ कहती मुझसे

लुढ़क-लुढ़क कर

मस्त-मस्त

पत्ता-पत्ता, डाली-डाली

घूम रहीं,

कानों में कुछ कह जातीं

मैं मुस्का कर रह जाती

हरियाली को छू रहीं

कहीं छुपन-छुपन खेल रहीं,

कब आईं

और कब जायेंगी

देखो-देखो धूप खिली

पकड़ो बूंदें

भागी-भागी

 

 

छनक-छन तारे छनके

ज़रा-सा मैंने हाथ बढ़ाया, नभ मेरे हाथ आया

छनक-छनक-छन तारे छनके, चंदा भी मुस्काया

सूरज की गठरी बांधी, सपनों की सीढ़ी तानी

इन्द्रधनुष ने रंग बिखेरे, मनमोहक चित्र बनाया

बदली के पीछे से कुछ बूंदे निकली, मन भरमाया

 

 

मानव के धोखे में मत आ जाना

समझाया था न तुझको

जब तक मैं न लौटूं

नीड़ से बाहर मत जाना

मानव के 

धोखे में मत आ जाना।

फैला चारों ओर प्रदूषण

कहीं चोट मत खा जाना।

कहां गये सब संगी साथी

कहां ढूंढे अब उनको।

समझाकर गई थी न

सब साथ-साथ ही रहना।

इस मानव के धोखे में मत आ जाना।

उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे

कहां बनाएं नीड़।

न फल मिलता है

न जल मिलता है

न कोई डाले चुग्गा।

हाथों में पिंजरे है

पकड़ पकड़ कर हमको

इनमें डाल रहे हैं

कोई अभयारण्य बना रहे हैं,

परिवारों से नाता टूटे

अपने जैसा मान लिया है।

फिर कहते हैं, देखो देखो

हम जीवों की रक्षा करते हैं।

चलो चलो

कहीं और चलें

इन शहरों से दूर।

करो उड़ान की तैयारी

हमने अब यह ठान लिया है।

फूल खिलखिलाए

बारिश के बाद धूप निखरी
आंसुओं के बाद मुस्कान बिखरी
बदलते मौसम के एहसास हैं ये
फूल खिलखिलाए, महक बिखरी

 

मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस

प्रस्तर के अंतस में

सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।

कल कल करती नदियां, 

झर झर करते झरने, 

लहराती बलखाती नहरें, 

मन की बहारें, और कितने ही सपने।

जहां अंकुरित होते हैं

नव पुष्प,

पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं

जिंदगी महकती है, गाती है,

गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।

इन्द्रधनुषी रंगों से

आकाश सराबोर होता है

और मन टटोलता है

प्रस्तर का अंतस।

ये चांद है अदाओं का

चांद

यूं ही तो नहीं

चमकता है आसमान में।

उसकी भी अपनी अदाएं हैं।

किसी को तो चांद सी

सूरत दे देता है

और किसी के जीवन में

चांद से दाग

और किसी किसी के लिए तो

कभी चांद निकलता ही नहीं

बस

अमावस्या ही बनी रहती है जीवन भर।

बस एक भ्रम पालकर

जिन्दगी जी लेते हैं

कि चांद है उनकी जिन्दगी में

क्योंकि जब

चांद आसमान में है

तो कुछ तो उनकी

जिन्दगी में भी होगा ही।

और कहीं कहीं तो कभी

चांद डूबता ही नहीं,

बस पूर्णिमा ही बनी रहती है।

इसलिए इस भ्रम में

या  इस गणना में मत रहना

कि इतने दिन बाद

चौथ का चांद

आ जायेगा जीवन में,

या अमावस्या या पूर्णिमा,

उसकी मर्ज़ी आये या न आये

रिश्तों के तो माने हैं

पेड़ सूखे तो क्या

सावन रूठे तो क्या

पत्ते झरे तो क्या

कांटे चुभे तो क्या।

हम भूले नहीं

अपना बसेरा।

लौट लौट कर आयेंगे

बसेरा यहीं बसायेंगे

तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।

दु:ख सुख तो आने जाने हैं।

पर रिश्तों के तो माने हैं।

जब तक हैं

तब तक तो

इन्हें निभायेंगे।

बसेरा यहीं बसायेंगे।

जीवन का राग

रात में सूर्य रश्मियां द्वार खटखटाती हैं
दिन भर जीवन का राग सुनाती हैं
शाम ढलते ढलते सुर साज़ बदल जाते हैं
तब चंद्र किरणें थपथपाकर सुलाती हैं

अनुप्रास अलंकार छन्दमुक्त रचना

अभी भी अक्तूबर में
ठहर ठहर कर
बेमौसम बारिश।
लौट लौट कर 
आती सर्दी।
और ये ओले 
रात फिर रजाई बाहर आई।
धुले कपड़े धूप में सुखाये।
पर खबरों ने खराब किया मन।
बेमौसम बारिश
बरबाद कर गई फ़सलें।
किसानों को कर्ज़
चुकाने में हुई चूक।
सरकार ने सदा की तरह
वो वादे किये
जो जानते थे सब
न निभायेगी सरकार
और टीवी वाले टंकार कर रहे हैं
नेताओं के निराले वादे।
और इस बीच
कितने किसानों ने
कड़वे आंसू पीकर
कर ली अपनी जीवन लीला समाप्त।
और हमने कागज़-कलम उठा ली
किसी कविता मंच पर
कविता लिखने के लिए।


 

जल की बूंदों का आचमन कर लें

सावन की काली घटाएं मन को उजला कर जाती हैं
सावन की झड़ी मन में रस-राग-रंग भर जाती है
पत्तों से झरते जल की बूंदों का आचमन कर लें
सावन की नम हवाएं परायों को अपना कर जाती हैं

कहां किस आस में

सूर्य की परिक्रमा के साथ साथ ही परिक्रमा करता है सूर्यमुखी

अक्सर सोचती हूं रात्रि को कहां किस आस में रहता है सूर्यमुखी

सम्भव है सिसकता हो रात भर कहां चला जाता है मेरा हमसफ़र

शायद इसीलिए प्रात में अश्रुओं से नम सुप्त मिलता है सूर्यमुखी

किसने रची विनाश की लीला

जल जीवन है, जल पावन है

जल सावन है, मनभावन है

जल तृप्ति है, जल पूजा है।

मन डरता है, जल प्लावन है।

कब सूखा होगा

कब होगी अति वृष्टि

मन उलझा है।

कब तरसें बूंद बूंद को

और कब

सागर ही सागर लहरायेगा,

उतर धरा पर आयेगा

मन डरता है।

किसने रची विनाश की लीला

किसने दोहा प्रकृति को,

कौन बतलायेगा।

जीवन बदला, शैली बदली

रहन सहन की भाषा बदली।

अब यह होना था, और होना है

कहने सुनने से क्या होगा।

आयेंगी और जायेंगी

ये विपदाएं।

बस इतना होना है

कि हम सबको

यहां] सदा

साथ साथ होना है।

घन बरसे या सागर उफ़न पड़े

हमें नहीं डरना है

बस इतना ही कहना है।

मौसम की आहट

कुहासे की चादर ओढ़े आज सूरज देर तक सोया रहा

ढूंढती फिर रही उसे न जाने अब तक कहां खोया रहा

दे रोशनी, जीवन की आस दे, दिन का भास दे, उजास दे

आवाज़ दी मैंने उसे, उठ ज़रा अब, रात भर सोया रहा

मन वन-उपवन में

यहीं कहीं

वन-उपवन में

घन-सघन वन में

उड़ता है मन

तिेतली के संग।

न गगन की उड़ान है

न बादलों की छुअन है

न चांद तारों की चाहत है

इधर-उधर

रंगों से बातें होती हैं

पुष्पों-से भाव

खिल- खिल खिलते हैं

पत्ती-पत्ती छूते हैं

तृण-कंटक हैं तो क्या,

वट-पीपल तो क्या,

सब अपने-से लगते हैं।

बस यहीं कहीं

आस-पास

ढूंढता है मन अपनापन

तितली के संग-संग

घूमता है मन

सुन्दर वन-उपवन में।