सोने की  हैं ये कुर्सियां

सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां

काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की  हैं जी ये कुर्सियां

पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का

कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां

मंचों पर बने रहने के लिए

अब तो हमको भी आनन-फ़ानन में कविता लिखना आ गया

बिना लय-ताल के प्रदत्त शीर्षक पर गीत रचना आ गया

जानते हैं सब वाह-वाह करके किनारा कर लेते हैं बिना पढ़े

मंचों पर बने रहने के लिए हमें भी यह सब करना आ गया

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी

हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी

पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा

फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी

अच्‍छी नींद लेने के लिए

अच्‍छी नींद लेने के लिए बस एक सरकारी कुर्सी चाहिए

कुछ चाय-नाश्‍ता और कमरे में एक ए सी होना चाहिए

फ़ाईलों को बनाईये तकिया, पैर मेज़ पर ज़रा टिकाईये

काम तो होता रहेगा, टालने का तरीका आना चाहिए

होगा कैसे मनोरंजन

कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन

किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन

अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा

औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन

“आपने “कुच्छछ” किया है क्या”

आज बहुत परेशान, चिन्तित हूं, दुखी हूं वह जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं Hurt हूं।

पूछिए क्यों ?

पूछिए , पूछिए।

जले पर नमन छिड़किए।

हमारी समस्या का आनन्द लीजिए।

ऐसा सुनते हैं कि दो-तीन या चार दिन पहले कोई हिन्दी दिवस गुज़र गया। यह भी सुनते हैं कि यह गुज़र कर हर वर्ष वापिस लौट आता है और मनाया भी जाता है। बहुत वर्ष पहले जब मै शिमला में थी तब की धुंधली-धुंधली यादें हैं इस दिन के आने और गुज़रने की। फेसबुक ने तो परेशान करके रख दिया है। जिसे देखो वही हिन्दी दिवस के कवि सम्मेलन में कविता पढ़ रहा है, कोई सम्मान ले रहा है कोई प्रतीक चिन्ह लेकर मुझे चिढ़ा रहा है, किसी की पुस्तकों का विमोचन हो रहा है, किसी पर ‘‘हार’’ चढ़ रहे हैं तो कोई सीधे-सीधे मुझे अंगूठा दिखा रहा है। यहां तक कि विदेशी धरती पर भी हिन्दी का दिन मनाया जा रहा है।

हं हं हं हं !!

ऐसे थोड़े-ई होता है।

हमारे साथ तो सदा ही बुरी रही।

इस बहाने कुछ चटपटी यादें।

बड़ी शान से पीएचडी करते रहे और बैंक में क्लर्क बन बैठे। हमसे पहले ही हमारी चर्चा हमारी फ़ाईल से बैंक में पहुंच चुकी थी। मेरी पहचान हुई ‘‘हिन्दी वाली ’’।

यह कथा 1980 से 2000 के बीच की है।

हिन्दी भाषा और साहित्य मुझे विद्यालय से ही अच्छा लगता था। मेरा उच्चारण स्पष्ट था, हिन्दी बोलना भी मुझे पसन्द था। अध्ययन के साथ मेरी शब्दावली की क्षमता भी बढ़ी और मेरी हिन्दी और भी अच्छी होती गई।

पहली घटना मेरे साथ कुछ ऐसे घटी। कुछ परिचित-अपरिचित मित्रों के साथ बैठी थी। बातचीत चल रही थी। एक युवक मेरी ओर बड़े आश्चर्य से देख रहा था। मैं कुछ सकपका रही थी। अचानक वह युवक सबकी बात बीच में रोककर मुझे सम्बोधित करते हुए बोला

“आपने “कुच्छछ” किया है क्या” ?

हम घबराकर उठ खड़े हुए, ...........30 साल तक...... इश्क-मुहब्बत तो करनी नहीं आई शादी हुई नहीं, इन्होंने हमारी कौन-सी चोरी पकड़ ली ? मैंने तो कोई अपराध, हत्या, चोरी-डकैती नहीं की।

मैं चौंककर बोली, “मैंने क्या किया है”!

वह बोला “नहीं-नहीं, मेरा मतलब आपने हिन्दी में “कुच्छ्छ“ किया है क्या ?

आह ! जान में जान आई। मैं बहुत रोब से बोली, जी हां मैंने हिन्दी में एम.ए.,एम.फ़िल की है, पी.एच.डी.कर रही हूं।

“तभ्भ्भी, आप इतनी हिन्दी मार रही हैं।“

सब खिलखिलाकर हंस पड़े,

अरे ! इसकी तो आदत ही है हिन्दी झाड़ने की। हमें तो अब आदत हो गई है।

धीरे-धीरे मैं “हिन्दीवाली” होती गई। सदैव अच्छी, शुद्ध हिन्दी बोलना मेरा पहला अपराध था।

मेरा दूसरा अपराध था कि मैंने “हिन्दीवाली” होकर भी हिन्दी के क्षेत्र में नौकरी नहीं की। जिसने हिन्दी में “कुच्छछ” किया है उसे केवल हिन्दी अध्यापक, प्राध्यापक, हिन्दी अनुवादक  अथवा हिन्दी अधिकारी ही होना चाहिए।

उसे हिन्दी का सर्वज्ञ भी होना चाहिए। हिन्दी के प्रत्येक शब्द का अर्थ ज्ञात होना चाहिए और एक अच्छा अनुवादक भी।

शब्दकोष से अंग्रेज़ी के कठिनतम शब्द ढूंढकर लाये जाते और मुझसे उनका अर्थ पूछा जाता। मैं जब यह कहती कि मुझे नहीं पता तो सामूहिक तिरस्कारपूर्ण स्वर होता था ‘‘हं, फिर आपकी पी. एच. डी. का क्या फ़ायदा’’

हमारा हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में कार्य करना, लेखन, सब भाड़ में , बस ''बेचारी ''

ऐसी स्थिति में हम एक दया का पात्र होते हैं, ''बेचारी '' । पूरे बीस वर्ष यह torcher भुगता और आज भी भोग रही हूं।

 

हांजी बजट बिगड़ गया

हांजी , बजट बिगड़ गया। सुना है इधर मंहगाई बहुत हो गई है। आलू पच्चीस रूपये किलो, प्याज भी पच्चीस तीस रूपये किलो और  टमाटर भी। अब बताईये भला आम आदमी जाये तो जाये कहां और  खाये तो खाये क्या। अब महीने में चार पांच किलो प्याज, इतने ही आलू टमाटर का तो खर्चा हो ही जाता है।सिलेंडर भी शायद 14_16 रूपये मंहगा हो रहा है।  कहां से लाये आम आदमी इतने पैसे , कैसे भरे बच्चों का पेट और  कैसे जिये इस मंहगाई के ज़माने में। 

घर में जितने सदस्य हैं उनसे ज़्यादा मोबाईल घर में हैं। बीस पच्चीस रूपये महीने के नहीं, हज़ारों के। और  हर वर्ष नये फीचर्स के साथ नया मोबाईल तो लेना ही पड़ता है। यहां मंहगाई की बात कहां से गई। हर मोबाईल का हर महीने का बिल हज़ार पंद्रह सौ रूपये तो ही जाता है। नैट भी चाहिए। यह तो आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जितने सदस्य उतनी गाड़ियां। और  एकफोर व्हीलरभी रखना ही पड़ता है। अब समय किसके पास है कि एक दूसरे को लिफ्ट दें  सबका अपना अपना समय और  सुविधाएं। और  स्टेटस भी तो कोई चीज़ है। अब पैट्रोल पर महीने का पांच सात हज़ार खर्च हो भी जाता है तो क्या। 18 वर्ष से छोटे बच्चों को तो आजकल गाड़ी देनी ही पड़ती है। साईकिल का युग तो रह नहीं गया। चालान होगा तो भुगत लेंगे। कई तरीके आते हैं। अब यहां मंहगाई कहां से आड़े गई। हर महीने एक दो आउटिंग तो हो ही जाती है। अब घर के चार पांच लोग बाहर घूमने जाएंगे , खाएंगे पीयेंगे तो पांच सात हज़ार तो खर्च हो ही जाता है। भई कमा किस लिए रहे हैं। महीने में एकाध फिल्म। अब जन्मदिन अथवा किसी शुभ दिन पर हलवा पूरी का तो ज़माना रह नहीं गया। अच्छा आयोजन तो करना ही पड़ता है। हज़ारों नहीं, लाखों में भी खर्च हो सकता है। तब क्या। और  मरण_पुण्य तिथि पर तो शायद इससे भी ज़्यादा। और  शादी_ब्याह की तो बात ही मत कीजिए, आजकल तो दस बीस लाख से नीचे की बात ही नहीं है। 

लेकिन आलू प्याज टमाटर मंहगा हो गया है। बजट बिगड़ गया।

‘गर किसी पर न हो मरना तो जीने का मजा क्या

कुछ यूं बात हुई

उनसे आंखें चार हुईं

दिल, दिल  से छू गया

कहां-कहां से बात हुई

कुछ हम न समझे

कुछ वे न समझे

कुछ हम समझे

और कुछ वे समझे

कभी नींद उड़ी

कभी दिन में तारे चमके

कभी सपनों ही सपनों में बात हुई

बहके-बहके भाव चले

आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई

उम्र हमारी साठ हुई

मिलने लगे कुछ उलाहने

सुनने में आया

ये क्या कर बैठे

हम तो उन पर मर बैठे

ये भी क्या बात हुई

जी हां,

हमने उनको समझाया

गर किसी पर

न हो मरना

तो

जीने का मजा क्या

इक नल लगवा दे भैया

कहां है अब पनघट

कहां है अब कृष्ण कन्हैया

क्यो इन सबमें

अब उलझा है मन दैया

इतना ही है तू

कृष्ण कन्हैया

तो मेरे घर में

इक नल लगवा दे भैया।

युग बदल गया

तू भी अपना यह वेश बदल,

न छेड़ बैठना किसी को

गोपी समझ के

कारागार के द्वार खुले हैं दैया।

गीत-संगीत सब बदल गये

रास-बिहारी खिसक गये

ढोल की ताल अब बहक गई

रास-बिहारी चले गये

किचन में कितना काम पड़ा है मैया

इतना ही है तू

कृष्ण कन्हैया

तो अपनी अंगुली से

मेरे घर के सारे काम

करवा दे रे भैया।

​​​​​​​

चैन से सो लेने दो

अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया

अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया

अरे अवकाश  हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ

नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया

अपनापन आजमाकर देखें

चलो आज यहां ही सबका अपनापन आजमाकर देखें

मेरी तुकबन्दी पर वाह वाह की अम्बार लगाकर देखें

न मात्रा, न मापनी, न गणना, छन्द का ज्ञान है मुझे

मेरे तथाकथित मुक्तक की ज़रा हवा निकालकर देखें

 

बताते हैं क्या कीजिए

सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए

तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।

शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप

चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।

राधिके सुजान

अपनी तो हाला भी राधिके सुजान होती है

हमारी चाय भी उनके लिए मद्यपान होती है

कहा हमने चलो आज साथ-साथ आनन्द लें बोले

तुम्हारी सात की,हमारी सात सौ की कहां बात होती है

मदमस्त जिये जा

जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा

सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा

न बोल, बोल कड़वे, हर दिन अच्छा बीतेगा

अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा

कौन क्या कहता है भूलकर मदमस्त जिये जा

 

मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं

अब

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

डर नहीं रह गया अब,

कोई खींच के उतार न दे मुखौटा

और कोई देख न ले असली चेहरा

तो, कहां छिपते फिरेंगे।

मुखौटों की कीमत पहले भी थी

अब भी है।

फ़र्क बस इतना है

कि अब खुलेआम

बोली लगाये घूमते हैं।

मुखौटे हाथ में लिए घूमते हैं।

बेचते ही नहीं,

खरीदते भी हैं ।

और ज़रूरत आन पड़े

तो बड़ों बड़ों के मुखौटे

अपने चेहरे पर चढ़ाए

बेधड़क घूमते हैं।

किसी का भी चेहरा नोचकर

उसका मुखौटा बना

अपने चेहरे पर

चढ़ाए घूमते हैं।

जो इन मुखौटों से मिल सकता है

वह असली चेहरा कहां दे पाता कीमत

इसलिए

अपना असली चेहरा  

बगल में दबाये घूमते हैं।

लौट गये वे भटके-भटके

जिनको समझी थी मैं भूले-भटके, वे सब निकले हटके-हटके
ज्ञान-ध्यान वे बांट रहे थे, हम अज्ञानी रह गये अटके-अटके
पोथी बांची, कथा सुनाई, फिर दान-धर्म की बात समझाई
हमने भी अपनी कविता कह डाली, लौट गये वे भटके-भटके

मान-सम्मान की आस में

मान-सम्मान की आस में सौ-सौ ग्रंथ लिखकर हम बन-बैठे “कविगण”

स्वयं मंच-सज्जा कर, सौ-सौ बार, करवा रहे इनका नित्य-प्रति विमोचन

नेता हो या अभिनेता, ज्ञानी हो या अज्ञानी कोई फ़र्क नहीं पड़ता

छायाचित्र छप जायें, समाचारों में नाम देखने को तरसें हमरे लोचन

मन की भोली-भाली हूं

डील-डौल पर जाना मत

मुझसे तुम घबराना मत

मन की भोली-भाली हूं

मुझसे तुम कतराना मत

हम सब तो बस बन्दर हैं

नाचते तो सभी हैं

बस

इतना ही पता नहीं लगता

कि डोरी किसके हाथ में है।

मदारी कौन है और बन्दर कौन।

बहुत सी गलतफहमियां रहती हैं मन में।

खूब नाचते हैं हम

यह सोच कर , कि देखों

कैसा नाच नचाया हमने सामने वाले को।

लेकिन बहुत बाद में पता लगता है कि

नाच तो हम ही रहे थे

और सामने वाला तो तमाशबीन था।

किसके इशारे पर

कब कौन नाचता है

और कौन नचाता है पता ही नहीं लगता।

इशारे छोड़िए ,

यहां तो लोग

उंगलियों पर नचा लेते हैं

और नाच भी लेते हैं।

और भक्त लोग कहते हैं

कि डोरी तो उपर वाले के हाथ में है

वही नचाता है

हम सब तो बस बन्दर हैं।

गांधी जी ने ऐसा तो नहीं कहा था

गांधी जी को तो

गोली मार दी गई।

वे चले गये।

किन्तु उनके तीन बन्दर

यहीं रह गये

आंख, कान, मुंह बन्द किये।

आज उनकी संतति

पीढ़ी दर पीढ़ी

यूं ही आंख, कान, मुंह

बन्द किये बैठी है,

तीन हिस्सों में बंटी

गांधी जी ने

ऐसा तो नहीं कहा था।

किन्तु, यही है सत्य।

जो सुनते-देखते हैं वे बोलते नहीं,

जो बोलते-देखते हैं, वे सुनते नहीं

जो बोलते-सुनते हैं, वे देखते नहीं।

फिर कहते हैं

इस देश में कुछ बदल क्यों नहीं रहा !!!!!

औकात दिखा दी

ऐसा थोड़े ही होता है कि एक दिन में ही तुमने मेरी औकात गिरा दी

जो कल था आज भी वही, वहीं हूं मैं, बस तुमने अपनी समझ हटा दी

आज गया हूं बस कुछ रूप बदलने, कल लौटूंगा फिर आओगे गले लगाने

एक दिन क्या रोका मुझको,देखा मैंने कैसे तुम्हें,तुम्हारी औकात दिखा द

सिक्के सारे खन-खन गिरते

कहते हैं जी,

हाथ की है मैल रूपया,

थोड़ी मुझको देना भई।

मुट्ठी से रिसता है धन,

गुल्लक मेरी टूट गई।

सिक्के सारे खन-खन गिरते

किसने लूटे पता नहीं।

नोट निकालो नोट निकालो

सुनते-सुनते

नींद हमारी टूट गई।

छल है, मोह-माया है,

चाह नहीं है

कहने की ही बातें हैं।

मेरा पैसा मुझसे छीनें,

ये कैसी सरकार है भैया।

टैक्सों के नये नाम

समझ न आयें

कोई हमको समझाए भैया

किसकी जेबें भर गईं,

किसकी कट गईं,

कोई कैसे जाने भैया।

हाल देख-देखकर सबका

अपनी हो गई ता-ता थैया।

नोटों की गद्दी पर बैठे,

उठने की है चाह नहीं,

मोह-माया सब छूट गई,

बस वैरागी होने को

मन करता है भैया।

आगे-आगे हम हैं

पीछे-पीछे है सरकार,

बचने का है कौन उपाय

कोई हमको सुझाओ  दैया।

हमको छुट्टा दे सरकार
रंजोगम में डूब गये हैं, गोलगप्पे हो गये बीस के चार

कितने खायें, कैसे खायें, नोट मिला है दो हज़ार

कहता है भैया हमसे, सारे खाओ या फिर जाओ

हम ढाई आने के ग्राहक हैं, हमको छुट्टा दे सरकार

तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा

तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तेरी मूंछे मेरी मूंछे
पग्गड़ बांध बने हम लाला
तू भी कालू मैं भी काला
चलता है या खींचू गाल
दो बीड़ी लाया हूं
गुमटी पर बैठेंगे
खायेंगे चाट-पकौड़ी
सब कहते बुड्ढा- बुड्ढा
चटोर कहीं का।
कहने दो हमको क्या ।
घर जाकर कह देंगे
पेट ठीक न है
फिर बीबी बोलेगी
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बहू गैस की गोली लायेगी,
बेटा पानी देगा,
बीबी चिल्ला़येगी,
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बड़ा मज़ा आयेगा।
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा- बुड्ढा
चलता है या खींचू गाल

गधा-पुराण

पता था मुझे पहले ही
गधों के सींग नहीं होते,
किन्तु शायद
आपको पता नहीं
कि गधों में ही अक्ल होती है।
गधे को गधा कह दिया
तो बुरा क्यों  मानना।
दूसरों का बोझा ढोते हैं
इसीलिए,
खा-पीकर
आराम से सोते हैं।
मार का क्या।
वह तो सभी को पड़ती है
बस यह मत पूछना कैसे-कैसे,
बड़े-बड़ों की पोल खुल जायेगी
और यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।
गधे को घास तो डालते हैं,
आपको क्या मिलता है।
और ज़रूरत पड़ने पर
इसी गधे को
बाप भी बना लेते हैं।

आज के लिए इतना ही बहुत है
गधा-पुराण।
बाकी फिर कभी सही।